सुबह के 3:50 हो रहे हैं , नींद आज फिर घर नही लौटी | अब शायद अखबारों में नींद के गुमशुदा होने की खबर देनी पड़ेगी | नींद तो रूठ ही जाती है जलन...
सुबह के 3:50 हो रहे हैं , नींद आज फिर घर नही लौटी | अब शायद अखबारों में नींद के गुमशुदा होने की खबर देनी पड़ेगी | नींद तो रूठ ही जाती है जलन होने लगती है उसे जब तुम्हारी यादें मेरी आँखों में घर करने लगती हैं | जैसे जैसे अंधेरा रात को अपनी आग़ोश में समेटता है तुम्हारी यादें अपने पैर उस वेटिंग टिकट वाले यात्री की तरह पैर फैलाने लगती हैं जो पहले बैठने की थोड़ी जगह फिर फैलने की जगह और आखिर में लेटने की जगह खुद से बना लेता है | अब नींद से ये बर्दाश्त कहाँ हो इसी लिये तो कई सालों से घर नही लौटी | अब तो आखरी उम्मीद तुम्ही हो , तुम लौट आओ तो शायद ये नींद भी लौट आये तुम्हारे साथ |
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धीरज झा...
धीरज झा
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धीरज झा...
धीरज झा
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