मैं बुरा हूँ... . मैं अक्सर बुरा बन जाता हूँ... अपने प्रेम की पूर्ति के लिये... जब मैं कुछ वक्त उधार माँगता हूँ तुम्हारी व्यस्तत्ता से... जब...
मैं बुरा हूँ...
.
मैं अक्सर बुरा बन जाता हूँ...
अपने प्रेम की पूर्ति के लिये...
जब मैं कुछ वक्त उधार माँगता हूँ
तुम्हारी व्यस्तत्ता से...
जब सारा दिन काम के बाद
थकी होती हो
और ऒंधे मुँह गिरती हो बिस्तर पर
नींद तुम्हे मुझ से छीन रही होती है...
तब जब मैं माँगता हूँ
कुछ लम्हे तुम्हारी नींद से
खुद के लिये
पर तुम बेबस लाचार होती हो
उस नींद के आगे
और तुम्हे फिर एक और रात
खुद से दूर नींद की बाहों में
जाता देख , जल उठता हूँ
तब मैं बुरा बन जाता हूँ
ना चाहते हुये भी...
जब तुम होती हो अपनी
मजबूरियों से घिरी हुई
काम के बोझ तले दबी हुई...
तब जब दो लम्हे चुरा लेना चाहता हूँ
पर तुम उन से बंधन नही छुड़ा पाती
चाह कर भी...
तब मैं बेबस सा लाचार सा
बस इंतज़ार करता रह जाता हूँ
तब मैं बुरा बन जाता हूँ...
जब मैं होता हूँ अपनी सपनों की ज़मीं
पर एक आलीशान महल बनाता हुआ
और तुम्हे बुलाता हूँ उस महल को
अपने ढंग से सजाने के लिये
पर तुम हकीकत में जी रही होती हो
सपनों के लिये चाह कर भी
वक्त नही निकाल पाती...
तब कभी तभी समझ नही पाता तुम्हे
और झुंझला उठता हूँ...
उस वक्त मैं बुरा ना होते हुये
भी बुरा बन जाता हूँ...
मेरे प्रेम का बेहद हो जाना
मुझे अक्सर वो बना देता है
जो मैं वास्तव में नही हूँ...
मेरी तड़प मेरो प्रेम के बाद भी...
मैं बुरा बन जाता हूँ...
अब लगता है शायद
मैं सच में बुरा हूँ...
.
धीरज झा...
धीरज झा
.
मैं अक्सर बुरा बन जाता हूँ...
अपने प्रेम की पूर्ति के लिये...
जब मैं कुछ वक्त उधार माँगता हूँ
तुम्हारी व्यस्तत्ता से...
जब सारा दिन काम के बाद
थकी होती हो
और ऒंधे मुँह गिरती हो बिस्तर पर
नींद तुम्हे मुझ से छीन रही होती है...
तब जब मैं माँगता हूँ
कुछ लम्हे तुम्हारी नींद से
खुद के लिये
पर तुम बेबस लाचार होती हो
उस नींद के आगे
और तुम्हे फिर एक और रात
खुद से दूर नींद की बाहों में
जाता देख , जल उठता हूँ
तब मैं बुरा बन जाता हूँ
ना चाहते हुये भी...
जब तुम होती हो अपनी
मजबूरियों से घिरी हुई
काम के बोझ तले दबी हुई...
तब जब दो लम्हे चुरा लेना चाहता हूँ
पर तुम उन से बंधन नही छुड़ा पाती
चाह कर भी...
तब मैं बेबस सा लाचार सा
बस इंतज़ार करता रह जाता हूँ
तब मैं बुरा बन जाता हूँ...
जब मैं होता हूँ अपनी सपनों की ज़मीं
पर एक आलीशान महल बनाता हुआ
और तुम्हे बुलाता हूँ उस महल को
अपने ढंग से सजाने के लिये
पर तुम हकीकत में जी रही होती हो
सपनों के लिये चाह कर भी
वक्त नही निकाल पाती...
तब कभी तभी समझ नही पाता तुम्हे
और झुंझला उठता हूँ...
उस वक्त मैं बुरा ना होते हुये
भी बुरा बन जाता हूँ...
मेरे प्रेम का बेहद हो जाना
मुझे अक्सर वो बना देता है
जो मैं वास्तव में नही हूँ...
मेरी तड़प मेरो प्रेम के बाद भी...
मैं बुरा बन जाता हूँ...
अब लगता है शायद
मैं सच में बुरा हूँ...
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धीरज झा...
धीरज झा
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