ये आत्महत्याऐं नही... . उसकी आत्महत्या नही होती...उसकी होती है हत्या...गरीबी के हाथों , भुखमरी के हाथों , बेबसी के हाथों , मनी प्लाँट की बेल...
ये आत्महत्याऐं नही...
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उसकी आत्महत्या नही होती...उसकी होती है हत्या...गरीबी के हाथों , भुखमरी के हाथों , बेबसी के हाथों , मनी प्लाँट की बेल की तरह बढ़ रही बेटी की शादी की चिंता के हाथों , खराब फसलों के हाथों , बिना इलाज के बढ़ रही परिवार के किसी सदस्य की बिमारी के हाथों...ये सब हत्याऐं हैं....आत्महत्या तो होती है बड़े लोगों की ,आत्महत्या तो होती है दलित की जिसकी चिता पर करारी रोटियों के साथ चखने का पापड़ भी सेका जाता है....
ये जिनकी हत्या हुई उनके पास तो आत्महत्या के लिये पर्याप्त संसाधन भी नही थे | ना उनके पास बहुमंजिला इमारत में रहने का सुख थो जो उसकी छत से कूद के आत्महत्या कर पाते ,ना उनके पास पंखा था जिस पर लटक पाते , तेजधार चाकू भी नही था भईया यकीन करो | ये तो सोचते सोचते पेड़ से लटक गये ,रेल से कट गये | इनकी लाचारी ने इन्हे मार दिया ....
पेट की भूख ने इनका गला दबा दिया...तभी तो ना बन पाये ये अभागे किसी महंगे टी वी सेट के फूल एच डी न्यूज़ चैनल की शोभा | क्योंकी ये आत्महत्याऐं नही होतीं ये होती हैं हत्याऐं जिनके कातिलों को मार पाना अब इस देश के बस की बात नही | क्योंकी देश बंट चुका है... इन गरीबों पर इस बंटे हुये देश की नज़र कहाँ पड़ेगी...ये व्यस्त हैं असहिष्णुता और सहिष्णुता की झड़प में ,ये व्यस्त हैं भारत माता की जय और हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद में से क्या कहें इस फेर में ,ये उलझे हैं दलितों और ब्राहम्णवाद की लड़ाई में ,ये उलझे हैं अफ़ज़ल के लिये इंसाफ माँगने में , ये उलझे हैं हिन्दू और मुस्लमान में....इन उलझनों में आत्महत्याऐं बस उनकी होती हैं जिन पर चैनल वालों की नज़र पड़े...तुम्हारी तो हत्या ही मानी जायेगी जिसका गवाह " गरीबी " पहले भी खामोश था और आज भी खामोश है...माफी चाहत हूँ दोस्त कुछ नही हो सकता |
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धीरज झा...
धीरज झा
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उसकी आत्महत्या नही होती...उसकी होती है हत्या...गरीबी के हाथों , भुखमरी के हाथों , बेबसी के हाथों , मनी प्लाँट की बेल की तरह बढ़ रही बेटी की शादी की चिंता के हाथों , खराब फसलों के हाथों , बिना इलाज के बढ़ रही परिवार के किसी सदस्य की बिमारी के हाथों...ये सब हत्याऐं हैं....आत्महत्या तो होती है बड़े लोगों की ,आत्महत्या तो होती है दलित की जिसकी चिता पर करारी रोटियों के साथ चखने का पापड़ भी सेका जाता है....
ये जिनकी हत्या हुई उनके पास तो आत्महत्या के लिये पर्याप्त संसाधन भी नही थे | ना उनके पास बहुमंजिला इमारत में रहने का सुख थो जो उसकी छत से कूद के आत्महत्या कर पाते ,ना उनके पास पंखा था जिस पर लटक पाते , तेजधार चाकू भी नही था भईया यकीन करो | ये तो सोचते सोचते पेड़ से लटक गये ,रेल से कट गये | इनकी लाचारी ने इन्हे मार दिया ....
पेट की भूख ने इनका गला दबा दिया...तभी तो ना बन पाये ये अभागे किसी महंगे टी वी सेट के फूल एच डी न्यूज़ चैनल की शोभा | क्योंकी ये आत्महत्याऐं नही होतीं ये होती हैं हत्याऐं जिनके कातिलों को मार पाना अब इस देश के बस की बात नही | क्योंकी देश बंट चुका है... इन गरीबों पर इस बंटे हुये देश की नज़र कहाँ पड़ेगी...ये व्यस्त हैं असहिष्णुता और सहिष्णुता की झड़प में ,ये व्यस्त हैं भारत माता की जय और हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद में से क्या कहें इस फेर में ,ये उलझे हैं दलितों और ब्राहम्णवाद की लड़ाई में ,ये उलझे हैं अफ़ज़ल के लिये इंसाफ माँगने में , ये उलझे हैं हिन्दू और मुस्लमान में....इन उलझनों में आत्महत्याऐं बस उनकी होती हैं जिन पर चैनल वालों की नज़र पड़े...तुम्हारी तो हत्या ही मानी जायेगी जिसका गवाह " गरीबी " पहले भी खामोश था और आज भी खामोश है...माफी चाहत हूँ दोस्त कुछ नही हो सकता |
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धीरज झा...
धीरज झा
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