एक पिता को समझिए एक पिता होता है एक कुम्हार की तरह एक लोहार एक सोनार की तरह । जो हमें निखारने के लिए आकार देने के लिए इस बाज़ार में हमें महं...
एक पिता को समझिए
एक पिता होता है एक कुम्हार की तरह एक लोहार एक सोनार की तरह । जो हमें निखारने के लिए आकार देने के लिए इस बाज़ार में हमें महंगा और सही मुल्य दिलाने के लिए न मन होते हुए भी हमें ठोकता पीटता और बुरी तरह सानता है जो हम अपने असली रूप में आ सकें । न चाहते हुए भी सख्तियाँ करता है डाँटता है हाथ भी उठा देता है बस इसी लिए की कहीं हम अपने अन्दर जो ले कर आए हैं उसे बाहर लाने में पीछे न रह जाऐं । पर जब हम बड़े होते हैं तो वही बात छोटे छोटे समझौते कर के एक बड़ी हार हार जाता है बस हमारे लिए ।
अगर आपके पिता आपको हर बात में टोकते हैं डाँटते हैं तो उन्हे वैसा करने दीजिए कहीं ऐसा न हो के एक वक्त आए तो आप उनकी डाँट के लिए तरस कर रह जाऐं और वो कुछ बोलें ही ना ।
मुझे याद है मैं अपने दोस्तों के साथ एक बार घूमने चला गया था घर से झूठ बोल कर । हमें उसी दिन लौट आना था पर जहाँ गए थे वहाँ का मौसम खराब हो गया बाईक से लौटना संभव सा न लगा तो हम लोग वहीं रुक गए । तब मोबाईल इतना आम नही था के हर हाथ में हो इसलिए घर बता भी नही पाया । अगले दिन शाम को लौटा तब पापा सामने थे । आँखें लाल थीं गुस्से से ( तब वो गुस्सा ही लग रहा था आज समझ रहा हूँ वो खुस्सा नही डर था फिक्र थी जो लगातार दो दिनों से आँखों मे जमा मो गई थी ) मैं पहले की तरह डरा नही शायद इसलिए क्योंकी मैं बड़ा हो गया था । पापा ने दो चार सवाल किए कहाँ था ? इतना लेट क्यों हुआ ? झूठ बोला ना ? ऐसे ही सवाल और मैने सब का अनमने मन से उल्टा जवाब दिया । पापा ने छड़ी उठा ली और लगे बरसाने मुझ पर ( शायद वो दुख था इस बात का की उनका बेटा इतना बड़ा हो गया की अब जवाब देता है ) ऐसा उन्होने अब तक बस दूसरी बार किया था एक बार बहुत पहले ऐसे ही मारा था तब भी गलती बड़ी थी । वो मारे जा रहे थे मैं चुप चाप खड़ा था । मार जब बर्दाश्त से बाहर हो गई तब मैने वो किया जो शायद मुझे नही करना चाहिए था जिसका अफ़सोस शायद मरते दम तक रहे , मैने छड़ी उनके हाथ से छीन कर फैंक दी । वो जैसे थे वैसे ही खड़े रहे , हारे हुए से । जैसे आज अपनी ही औलाद से हार गए हों । उन्होने बस इतना कहा " आज से तेरी ज़िंदगी जैसे मन जी आज के बाद कुछ नही कहूँगा " और उन्होने सच में उस दिन के बाद से कुछ नही।कहा । मैं रोया तड़पा उनकी डाँट को उस मार को पर नही उन्होने फिर नही डाँटा न मारा । चले गए पर अपनी बात पूरी रखी । आज रोता हूँ , उस दिन को याद कर के खुद को कोसता की मैने छड़ी क्यों छीनी वो नही मारते ज़्यादा जानता था मैं क्योंकी बहुत प्यार करते थे मुझे । मैने फिर भी वैसा किया । उन्होने उस दिन वैसा ना कहा होता तो शायद मेरे पास ऐसी और बहुत सी यादें होतीं पर अब नही हैं चाह कर भी नही होंगी । वो अब नही लौटेंगे ऐसी यादों का तोहफा देने ।
पिता हैं उनकी बात का बुरा न मानिए अगर मान गए तो वक्त कब आप से बुरा मान जाए आपको पता भी नही लगेगा । मारते और डाँटते वो हैं तो प्रेम भी उनसे ज़्यादा और उनके जैसा कोई नही कर सकता । कुछ दिन ही डाँटेंगे जब तक आपमे उन्हे बच्चा दिखेगा जब आपमें बड़ा देख लिया उस दिन से कुछ नही कहेंगे बस अफसोस करेंगे आपके गलत काम के लिए ।
धीरज झा
एक पिता होता है एक कुम्हार की तरह एक लोहार एक सोनार की तरह । जो हमें निखारने के लिए आकार देने के लिए इस बाज़ार में हमें महंगा और सही मुल्य दिलाने के लिए न मन होते हुए भी हमें ठोकता पीटता और बुरी तरह सानता है जो हम अपने असली रूप में आ सकें । न चाहते हुए भी सख्तियाँ करता है डाँटता है हाथ भी उठा देता है बस इसी लिए की कहीं हम अपने अन्दर जो ले कर आए हैं उसे बाहर लाने में पीछे न रह जाऐं । पर जब हम बड़े होते हैं तो वही बात छोटे छोटे समझौते कर के एक बड़ी हार हार जाता है बस हमारे लिए ।
अगर आपके पिता आपको हर बात में टोकते हैं डाँटते हैं तो उन्हे वैसा करने दीजिए कहीं ऐसा न हो के एक वक्त आए तो आप उनकी डाँट के लिए तरस कर रह जाऐं और वो कुछ बोलें ही ना ।
मुझे याद है मैं अपने दोस्तों के साथ एक बार घूमने चला गया था घर से झूठ बोल कर । हमें उसी दिन लौट आना था पर जहाँ गए थे वहाँ का मौसम खराब हो गया बाईक से लौटना संभव सा न लगा तो हम लोग वहीं रुक गए । तब मोबाईल इतना आम नही था के हर हाथ में हो इसलिए घर बता भी नही पाया । अगले दिन शाम को लौटा तब पापा सामने थे । आँखें लाल थीं गुस्से से ( तब वो गुस्सा ही लग रहा था आज समझ रहा हूँ वो खुस्सा नही डर था फिक्र थी जो लगातार दो दिनों से आँखों मे जमा मो गई थी ) मैं पहले की तरह डरा नही शायद इसलिए क्योंकी मैं बड़ा हो गया था । पापा ने दो चार सवाल किए कहाँ था ? इतना लेट क्यों हुआ ? झूठ बोला ना ? ऐसे ही सवाल और मैने सब का अनमने मन से उल्टा जवाब दिया । पापा ने छड़ी उठा ली और लगे बरसाने मुझ पर ( शायद वो दुख था इस बात का की उनका बेटा इतना बड़ा हो गया की अब जवाब देता है ) ऐसा उन्होने अब तक बस दूसरी बार किया था एक बार बहुत पहले ऐसे ही मारा था तब भी गलती बड़ी थी । वो मारे जा रहे थे मैं चुप चाप खड़ा था । मार जब बर्दाश्त से बाहर हो गई तब मैने वो किया जो शायद मुझे नही करना चाहिए था जिसका अफ़सोस शायद मरते दम तक रहे , मैने छड़ी उनके हाथ से छीन कर फैंक दी । वो जैसे थे वैसे ही खड़े रहे , हारे हुए से । जैसे आज अपनी ही औलाद से हार गए हों । उन्होने बस इतना कहा " आज से तेरी ज़िंदगी जैसे मन जी आज के बाद कुछ नही कहूँगा " और उन्होने सच में उस दिन के बाद से कुछ नही।कहा । मैं रोया तड़पा उनकी डाँट को उस मार को पर नही उन्होने फिर नही डाँटा न मारा । चले गए पर अपनी बात पूरी रखी । आज रोता हूँ , उस दिन को याद कर के खुद को कोसता की मैने छड़ी क्यों छीनी वो नही मारते ज़्यादा जानता था मैं क्योंकी बहुत प्यार करते थे मुझे । मैने फिर भी वैसा किया । उन्होने उस दिन वैसा ना कहा होता तो शायद मेरे पास ऐसी और बहुत सी यादें होतीं पर अब नही हैं चाह कर भी नही होंगी । वो अब नही लौटेंगे ऐसी यादों का तोहफा देने ।
पिता हैं उनकी बात का बुरा न मानिए अगर मान गए तो वक्त कब आप से बुरा मान जाए आपको पता भी नही लगेगा । मारते और डाँटते वो हैं तो प्रेम भी उनसे ज़्यादा और उनके जैसा कोई नही कर सकता । कुछ दिन ही डाँटेंगे जब तक आपमे उन्हे बच्चा दिखेगा जब आपमें बड़ा देख लिया उस दिन से कुछ नही कहेंगे बस अफसोस करेंगे आपके गलत काम के लिए ।
धीरज झा
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