मेरे दो सपने मैं दो ही सपनों के साथ रात को आँखें बन्द करता और सुबह आँखें खोलता हूँ यही वो दो सपने हैं जो परेशान ज़िंदगी की हर परेशानी का शोर...
मेरे दो सपने
मैं दो ही सपनों के साथ रात को आँखें बन्द करता और सुबह आँखें खोलता हूँ यही वो दो सपने हैं जो परेशान ज़िंदगी की हर परेशानी का शोर दबा कर हर वक्त खुद अपना ही शोर मचाते हैं । उन दो सपनों में से एक सपना है देश का हर पाठक मेरे शब्दों मेरी लेखनी से परिचित हो मुझे हिन्दी लेखन जगत में उस स्तर पर पहचाना जाए जहाँ से मैं वो हर चेहरा वो हर हाथ देख सकूँ जो मेरी तरह ऊपर बढ़ना तो चाहता है मगर कोई उसका हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाने वाला नही । तब मैं उस स्तर से हर उस युवा का हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाऊँ जिसमे आग हो लिखने की जो सिर्फ लिखने को ही जीवन मानता हो जिसे शब्दों से बेइंतेहाँ मोहब्बत हो । उसी सपने का पहला कदम है मेरी किताब , जिसका सपना लिए मैं पिछले दो साल से फिर रहा हूँ । चाहूँ तो उधार ले कर या किसी तरह पैसों का इंतज़ाम कर के मैं किताब छपवा लूँ मगर मुझे सिर्फ किताब पर अपना नाम देखने भर का शौख नही है । मैं अपना नाम देखना चाहता हूँ पाठकों के दिलों में । मैं ये नही कहता मैं इस लायक हूँ मगर मुझे इस लायक बनना है । मुझे वो बनना है जो आज की तरह हर दर से नज़रअंदाज़ ना किया जाए । जिसके शब्दों की गूँज सुन कर सामने से कोई आए उन शब्दों को बटोर कर किताबनुमा पोटली में डालने की पेशकश ले कर । जानता हूँ मुझ अज्ञानी के लिए बड़ी चुनौती है पर क्या है ना छोटी चुनौतियों में जिंदगी खुल कर रंग बिखेर भी नही पाती , वो मज़ा नही आता । मुझे अपनी किताबें सिर्फ बेचनी नही हैं उनका असल मुल्य जानना है । मेरी चाहतै किसी को मैं ये ना कहूँ के किताब खरीदना भाई । लोग ढूँढ कर उसे खरीदें ऐसा लिखना है मुझे । मेरी किताब के पन्ने रद्दी बन कर आग में ना जलें बल्की पन्नों पर बिखरा हर लफ्ज़ पढ़ने वाले के दिल में दिए की तरह जले ।
और दूसरा सपना है उसे हासिल करलूँ जिसने पहले सपने को मेरी आँखों में बोया उसे हिम्मत और हौंसलों की खाद दी उसे बढ़ने दिया रोज़ दिन तब तक जब तक वो सपना एक मजबूत पेड़ नही बन गया । उम्मीद और दुआ है किसी।दिन दोनों सपनों को हकीकत कर के चैन से सोऊँगा ।
धीरज झा
मैं दो ही सपनों के साथ रात को आँखें बन्द करता और सुबह आँखें खोलता हूँ यही वो दो सपने हैं जो परेशान ज़िंदगी की हर परेशानी का शोर दबा कर हर वक्त खुद अपना ही शोर मचाते हैं । उन दो सपनों में से एक सपना है देश का हर पाठक मेरे शब्दों मेरी लेखनी से परिचित हो मुझे हिन्दी लेखन जगत में उस स्तर पर पहचाना जाए जहाँ से मैं वो हर चेहरा वो हर हाथ देख सकूँ जो मेरी तरह ऊपर बढ़ना तो चाहता है मगर कोई उसका हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाने वाला नही । तब मैं उस स्तर से हर उस युवा का हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाऊँ जिसमे आग हो लिखने की जो सिर्फ लिखने को ही जीवन मानता हो जिसे शब्दों से बेइंतेहाँ मोहब्बत हो । उसी सपने का पहला कदम है मेरी किताब , जिसका सपना लिए मैं पिछले दो साल से फिर रहा हूँ । चाहूँ तो उधार ले कर या किसी तरह पैसों का इंतज़ाम कर के मैं किताब छपवा लूँ मगर मुझे सिर्फ किताब पर अपना नाम देखने भर का शौख नही है । मैं अपना नाम देखना चाहता हूँ पाठकों के दिलों में । मैं ये नही कहता मैं इस लायक हूँ मगर मुझे इस लायक बनना है । मुझे वो बनना है जो आज की तरह हर दर से नज़रअंदाज़ ना किया जाए । जिसके शब्दों की गूँज सुन कर सामने से कोई आए उन शब्दों को बटोर कर किताबनुमा पोटली में डालने की पेशकश ले कर । जानता हूँ मुझ अज्ञानी के लिए बड़ी चुनौती है पर क्या है ना छोटी चुनौतियों में जिंदगी खुल कर रंग बिखेर भी नही पाती , वो मज़ा नही आता । मुझे अपनी किताबें सिर्फ बेचनी नही हैं उनका असल मुल्य जानना है । मेरी चाहतै किसी को मैं ये ना कहूँ के किताब खरीदना भाई । लोग ढूँढ कर उसे खरीदें ऐसा लिखना है मुझे । मेरी किताब के पन्ने रद्दी बन कर आग में ना जलें बल्की पन्नों पर बिखरा हर लफ्ज़ पढ़ने वाले के दिल में दिए की तरह जले ।
और दूसरा सपना है उसे हासिल करलूँ जिसने पहले सपने को मेरी आँखों में बोया उसे हिम्मत और हौंसलों की खाद दी उसे बढ़ने दिया रोज़ दिन तब तक जब तक वो सपना एक मजबूत पेड़ नही बन गया । उम्मीद और दुआ है किसी।दिन दोनों सपनों को हकीकत कर के चैन से सोऊँगा ।
धीरज झा
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