सुनो ज़रा जब मैं शहरों की तपती धूप सा झुलसता हूँ तब तुम आ जाती हो गाँव की ठंडी सुबह सी बन कर पंछियों के मधुर गान सी चहकती हुई दूर करती हो मे...
सुनो ज़रा
जब मैं शहरों की तपती धूप सा झुलसता हूँ
तब तुम आ जाती हो गाँव की ठंडी सुबह सी बन कर
पंछियों के मधुर गान सी चहकती हुई
दूर करती हो मेरे अंदर के मोटर गाड़ियों के हार्न का शोर
जब दम सा घुटने लगता है फैक्ट्रियों के धुऐं से
तब तुम होती हो ठंडी हवा के झोंके जैसी
जब बेचैन सा होता हूँ छोटे से बंद कमरे में
तब तुम बनती हो आज़ाद दूर तक फैले खलिहानो की तरह
जब बेमतलबी लोगों की भीड़ में होने लगता हूँ अकेला
तब तुम बन कर आती हो गाँव के चौपाल की रौनक बन कर
जब मैं होता हूँ रात के घने अंधेरे में बदलता करवटें
तब तुम हो जाती हो माँ की मीठी लोरी सी मुझे सुलाने के लिए
धीरज झा
जब मैं शहरों की तपती धूप सा झुलसता हूँ
तब तुम आ जाती हो गाँव की ठंडी सुबह सी बन कर
पंछियों के मधुर गान सी चहकती हुई
दूर करती हो मेरे अंदर के मोटर गाड़ियों के हार्न का शोर
जब दम सा घुटने लगता है फैक्ट्रियों के धुऐं से
तब तुम होती हो ठंडी हवा के झोंके जैसी
जब बेचैन सा होता हूँ छोटे से बंद कमरे में
तब तुम बनती हो आज़ाद दूर तक फैले खलिहानो की तरह
जब बेमतलबी लोगों की भीड़ में होने लगता हूँ अकेला
तब तुम बन कर आती हो गाँव के चौपाल की रौनक बन कर
जब मैं होता हूँ रात के घने अंधेरे में बदलता करवटें
तब तुम हो जाती हो माँ की मीठी लोरी सी मुझे सुलाने के लिए
धीरज झा
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