सुनों हैवानों लाशों के ढेर पर बैठ कर लिखना बहुत कठिन है । फिर वो लाशें किसी धर्म या मज़हब की हों । मेरी आँखों को हमेशा लाशें ही दिखती हैं रं...
सुनों हैवानों
लाशों के ढेर पर बैठ कर लिखना बहुत कठिन है । फिर वो लाशें किसी धर्म या मज़हब की हों । मेरी आँखों को हमेशा लाशें ही दिखती हैं रंगबिरंगी लाशें सर कटी लाशें चीथड़ों में बटीं लाशें बच्चों से बूढ़ों तक की लाशें । वो लाशें जिनका कसूर बस इतना था की उन्होंने मौत के सौदागरों की पहुँच में जाने की हिम्मत की ।
हिन्दू हूँ मैं कट्टर हिन्दू दिन की शुरुआत वेदमंत्रों से करने वाला जनेऊ पहनने वाला हर हर महादेव कह के पूरे शरीर में नई ऊर्जा को महसूस करने वाला हिन्दू । शायद इसीलिए मुझ से खून में सने हुए लोग नही देखे जाते । शायद इसीलिए आँखें बह जाती हैं उनके परिवार वालों की चीखें सुन कर । मगर तुम सच्चे मुसलमान नही थे अगर होते तो यूँ आयातों के नाम पर कत्ल ए आम कर के अपने मज़हब और अपने मज़हबी भाईयों को शर्मिंदा नही करते । सच्चे मुसलमान थे वो दो बच्चे अबिनता कबीर और फराज हुसैन जिन्होंने अपनी जान दे दी मगर अपनी हिन्दू दोस्त तरिषी को छोड़ कर नही भागे । जबकी उन्हे आयातें आती थीं । यहाँ का हर मुस्लिम तुम सब की वजह से शक़ के घेरे में हर दम खड़ा रहता है की कहीं वो भी गले पर छुरी रख कर ये नही कह दे की भईया आयातें सुनाओ नही तो सर कटाओ । तुम तो आयातें पढ़वाने के बाद भी अपने ही मज़हब के नही हुए । बग़दाद मे भी दो सौ के करीब मार ही दिए । उन्हे तो आयातें आती होंगी फिर उनके साथ ऐसा क्यों किया । क्योंकी तुम इंसान ही नही हो तुम में हैवानियत घर करती है ।
एकबारगी सोच लेते हैं कहीं तुम अपनी इस हैवानियत से पूरे विश्व पर भी राज कर लो ना तो भी कोई फायदा नही क्योंकी तुम में मारने का कीड़ा इस तरह बिजबिजा रहा है की तुम अपने ही लोगों को मारने लगोगे और जब सब ख़त्म हो जाऐंगे तब जब कोई मारने को नही मिलेगा तो खुद को ही गला रेत कर मार लोगे । खैर तुम दानवों ने किसकी सुनी जो मेरी सुनोगे । मगर मेरा काम था कहना मैने कह दिया । बाकी इतना ही कहूँगा रहम करो खुद पर , अपनों पर , इंसानियत पर ।
धीरज झा
लाशों के ढेर पर बैठ कर लिखना बहुत कठिन है । फिर वो लाशें किसी धर्म या मज़हब की हों । मेरी आँखों को हमेशा लाशें ही दिखती हैं रंगबिरंगी लाशें सर कटी लाशें चीथड़ों में बटीं लाशें बच्चों से बूढ़ों तक की लाशें । वो लाशें जिनका कसूर बस इतना था की उन्होंने मौत के सौदागरों की पहुँच में जाने की हिम्मत की ।
हिन्दू हूँ मैं कट्टर हिन्दू दिन की शुरुआत वेदमंत्रों से करने वाला जनेऊ पहनने वाला हर हर महादेव कह के पूरे शरीर में नई ऊर्जा को महसूस करने वाला हिन्दू । शायद इसीलिए मुझ से खून में सने हुए लोग नही देखे जाते । शायद इसीलिए आँखें बह जाती हैं उनके परिवार वालों की चीखें सुन कर । मगर तुम सच्चे मुसलमान नही थे अगर होते तो यूँ आयातों के नाम पर कत्ल ए आम कर के अपने मज़हब और अपने मज़हबी भाईयों को शर्मिंदा नही करते । सच्चे मुसलमान थे वो दो बच्चे अबिनता कबीर और फराज हुसैन जिन्होंने अपनी जान दे दी मगर अपनी हिन्दू दोस्त तरिषी को छोड़ कर नही भागे । जबकी उन्हे आयातें आती थीं । यहाँ का हर मुस्लिम तुम सब की वजह से शक़ के घेरे में हर दम खड़ा रहता है की कहीं वो भी गले पर छुरी रख कर ये नही कह दे की भईया आयातें सुनाओ नही तो सर कटाओ । तुम तो आयातें पढ़वाने के बाद भी अपने ही मज़हब के नही हुए । बग़दाद मे भी दो सौ के करीब मार ही दिए । उन्हे तो आयातें आती होंगी फिर उनके साथ ऐसा क्यों किया । क्योंकी तुम इंसान ही नही हो तुम में हैवानियत घर करती है ।
एकबारगी सोच लेते हैं कहीं तुम अपनी इस हैवानियत से पूरे विश्व पर भी राज कर लो ना तो भी कोई फायदा नही क्योंकी तुम में मारने का कीड़ा इस तरह बिजबिजा रहा है की तुम अपने ही लोगों को मारने लगोगे और जब सब ख़त्म हो जाऐंगे तब जब कोई मारने को नही मिलेगा तो खुद को ही गला रेत कर मार लोगे । खैर तुम दानवों ने किसकी सुनी जो मेरी सुनोगे । मगर मेरा काम था कहना मैने कह दिया । बाकी इतना ही कहूँगा रहम करो खुद पर , अपनों पर , इंसानियत पर ।
धीरज झा
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