दो बूढ़े हो चुके जवान दिलों की दबी बातें बहुत सालों बाद जब सुस्त पड़ चुका था मोहब्बत में पगलाया मन जब शाँत हो चुका था मेरे अंदर का वो दिवा...
दो बूढ़े हो चुके जवान दिलों की दबी बातें
बहुत सालों बाद
जब सुस्त पड़ चुका था
मोहब्बत में पगलाया मन
जब शाँत हो चुका था
मेरे अंदर का वो दिवानापन
जब समझ के दो चार बीज
उपज चुके थे
दिमाग के छोटे से खेत में
तब तक अगर साँसों ने नही दिया था दगा
तब लिखी एक डायरी
और उसकी नकल भेज दी उसे
उसे पढ़ने के लिए
और लिखा एक खत भी
जिसमे लिखा मैने
जब मिले तुम्हे ये पार्सल
तो खोलना इसे और
तब अपनी झुकी हुई कमर को
कुर्सी की तरफ थोड़ा और झुका कर
बैठते हुए , लगाना मोटा चश्मा
अपनी आँखों पर और डायरी के पन्ने
पलटना धड़कते दिल से
ये सोच कर रोमांचित होना
की सालों मुर्दा पड़े
इस बूढ़े हो चुके लड़के
में आज जान कहाँ से आ गई
अब डायरी के आगे का सफर
करना मेरे साथ उन आँसुओं से भीगे
पन्नों पर धीरे धीरे चल कर और
पढ़ कर महसूस करना मेरे अहसासों को
जो मैं कभी समझा ही ना पाया तुम्हे
याद है वो दौर जब
मैं था तुम थी साथ नही था कोई और
मैं भड़का करता था रोका करता था भागने से
फिर गुस्से से लाल हो जाया करता था
और तुम हो जाती थी मायूस उदास सी
तब तुम से ज़्यादा मायूस और उदास मैं हो जाता था
तुम्हे बिना बताए घंटो रोया करता था
हाँ मेरा गुस्सा गलत था
मेरा तरीका गलत था
मगर क्या तुम जानती हो
मैं उन दिनों कितना बिमार था
दिमागी तौर पर बिमार था
उलझा हुआ ज़िंदगी की उलझनों मे
परेशान सा अपनी परेशानियों में
इन सब का ताप जलाता था
मुझे अंदर तक और इसे थोड़ी
शाँती मिलती थी तो बस तुम से
मगर जब तुम नही दिखती थी पास
तब मेरी उलझने लगती थीं
मकड़े के जाले की तरह मुझे उलझाने
और तुम्हारी किसी छोटी सी बात पर भी
दिखाने लगता था गुस्सा
मैं गलत था तुम्हे रुला कर खुद रोता था
मगर तुमने भी कब पूछा मुझसे
की क्या बात है आज क्यों उखड़े हो
क्यों मुझे तकलीफ देकर खुद इतनी तकलीफ सह रहे हो
तुम तो हमेशा से समझदार थी ना
फिर मेरे इस पहलू को कुयों नही समझा तुमने
फिर मुझे लगने लगा तुम्हारे सपनों
के बीच मेरी परेशानियाँ आ रही हैं
वो सपने जो कहने को तुम्हारे थे
पर पाले मैने अपनी आँखों मे थे
उनके आड़े खुद को कैसे आने देता
मैं चला गया चुप चाप
मगर देखता रहा तुम्हे उड़ता हुआ
हमारे सपने को पूरा होता हुआ
अब गलती मानने की हिम्मत हुई
तो भेजी एक डायरी तुम्हे
तुम्हारा ना हो सका तुम्हारा अपना
फिर कुछ दिनो बाद आया खत तुम्हारा
जिसमें बस लिखा था
कभी घर आओ
होती हूँ मैं अकेली ही
सपने बस वही पूरे किए जो तुमने देखे थे
तुमह्रे बाद कोई सपना ना देखा
ना किसी को हक दिया
रह गई तुम्हारी याद को अपना बना
कर अकेली अपने पिता
के बड़े से सुनसान घर में
काश ये हिम्मत तुम पहले कर लेते
मगर कोई बात नही
अब आना किसी दिन घर मेरे
खिलाऊँगी अपने हाथों से
बनाया खाना जो तुम्हे बहुत पसंद हुआ करता था
और फिर समझने की कोशिश करूँगी
वो जो मैं ना समझ पाई कभी
और समझाऊँगी वो जो
तुमने समझना ही ना चाहा कभी
आज भी तुम्हारी
अब शर्मिंदगी इतनी की
बयान कैसे करता
कैसे उसके घर की तरफ
मेरा कदम बढ़ता
बस गिरे आँसू
और पश्चाताप भर गया मन
अपनी कहाँ फिक्र थी
बस अफ़सोस की बर्बाद किया
उसका भी जीवन
धीरज झा
बहुत सालों बाद
जब सुस्त पड़ चुका था
मोहब्बत में पगलाया मन
जब शाँत हो चुका था
मेरे अंदर का वो दिवानापन
जब समझ के दो चार बीज
उपज चुके थे
दिमाग के छोटे से खेत में
तब तक अगर साँसों ने नही दिया था दगा
तब लिखी एक डायरी
और उसकी नकल भेज दी उसे
उसे पढ़ने के लिए
और लिखा एक खत भी
जिसमे लिखा मैने
जब मिले तुम्हे ये पार्सल
तो खोलना इसे और
तब अपनी झुकी हुई कमर को
कुर्सी की तरफ थोड़ा और झुका कर
बैठते हुए , लगाना मोटा चश्मा
अपनी आँखों पर और डायरी के पन्ने
पलटना धड़कते दिल से
ये सोच कर रोमांचित होना
की सालों मुर्दा पड़े
इस बूढ़े हो चुके लड़के
में आज जान कहाँ से आ गई
अब डायरी के आगे का सफर
करना मेरे साथ उन आँसुओं से भीगे
पन्नों पर धीरे धीरे चल कर और
पढ़ कर महसूस करना मेरे अहसासों को
जो मैं कभी समझा ही ना पाया तुम्हे
याद है वो दौर जब
मैं था तुम थी साथ नही था कोई और
मैं भड़का करता था रोका करता था भागने से
फिर गुस्से से लाल हो जाया करता था
और तुम हो जाती थी मायूस उदास सी
तब तुम से ज़्यादा मायूस और उदास मैं हो जाता था
तुम्हे बिना बताए घंटो रोया करता था
हाँ मेरा गुस्सा गलत था
मेरा तरीका गलत था
मगर क्या तुम जानती हो
मैं उन दिनों कितना बिमार था
दिमागी तौर पर बिमार था
उलझा हुआ ज़िंदगी की उलझनों मे
परेशान सा अपनी परेशानियों में
इन सब का ताप जलाता था
मुझे अंदर तक और इसे थोड़ी
शाँती मिलती थी तो बस तुम से
मगर जब तुम नही दिखती थी पास
तब मेरी उलझने लगती थीं
मकड़े के जाले की तरह मुझे उलझाने
और तुम्हारी किसी छोटी सी बात पर भी
दिखाने लगता था गुस्सा
मैं गलत था तुम्हे रुला कर खुद रोता था
मगर तुमने भी कब पूछा मुझसे
की क्या बात है आज क्यों उखड़े हो
क्यों मुझे तकलीफ देकर खुद इतनी तकलीफ सह रहे हो
तुम तो हमेशा से समझदार थी ना
फिर मेरे इस पहलू को कुयों नही समझा तुमने
फिर मुझे लगने लगा तुम्हारे सपनों
के बीच मेरी परेशानियाँ आ रही हैं
वो सपने जो कहने को तुम्हारे थे
पर पाले मैने अपनी आँखों मे थे
उनके आड़े खुद को कैसे आने देता
मैं चला गया चुप चाप
मगर देखता रहा तुम्हे उड़ता हुआ
हमारे सपने को पूरा होता हुआ
अब गलती मानने की हिम्मत हुई
तो भेजी एक डायरी तुम्हे
तुम्हारा ना हो सका तुम्हारा अपना
फिर कुछ दिनो बाद आया खत तुम्हारा
जिसमें बस लिखा था
कभी घर आओ
होती हूँ मैं अकेली ही
सपने बस वही पूरे किए जो तुमने देखे थे
तुमह्रे बाद कोई सपना ना देखा
ना किसी को हक दिया
रह गई तुम्हारी याद को अपना बना
कर अकेली अपने पिता
के बड़े से सुनसान घर में
काश ये हिम्मत तुम पहले कर लेते
मगर कोई बात नही
अब आना किसी दिन घर मेरे
खिलाऊँगी अपने हाथों से
बनाया खाना जो तुम्हे बहुत पसंद हुआ करता था
और फिर समझने की कोशिश करूँगी
वो जो मैं ना समझ पाई कभी
और समझाऊँगी वो जो
तुमने समझना ही ना चाहा कभी
आज भी तुम्हारी
अब शर्मिंदगी इतनी की
बयान कैसे करता
कैसे उसके घर की तरफ
मेरा कदम बढ़ता
बस गिरे आँसू
और पश्चाताप भर गया मन
अपनी कहाँ फिक्र थी
बस अफ़सोस की बर्बाद किया
उसका भी जीवन
धीरज झा
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