कुछ अलग सा कर के दिखाना है जब पैदा हुई आस पड़ोस नाते रिश्ते दारों के मन टीस उठी होना था वारिस कुल का ये पराया धन कहाँ से आ गई माँ ने लगाय...
कुछ अलग सा कर के दिखाना है
जब पैदा हुई
आस पड़ोस नाते रिश्ते दारों
के मन टीस उठी
होना था वारिस कुल का
ये पराया धन कहाँ से आ गई
माँ ने लगाया सीने से
क्योंकी उसी के तन का हिस्सा थी
पापा के लिए भी मैं
जैसे एक हसीन किस्सा थी
बड़ी बहादुरी से फर्क बेटी बेटे में बताया
जब " हम बेटा बेटी में फर्क नही करते " कह कर
इतना बड़ा अहसान बेटी जात पर जताया
बड़ी होने लगी अल्हड़पन्न की गलियों से होती हुई
हक़ अपनी मर्ज़ी से जीने का धीरे धीरे खोती हुई
ये मत करो वो मत करो कह कर
हर बार मुझे ये बताया गया
मैं रचईता हो कर इस समाज की
भी कितनी ग़ैर मामुली हूँ इस बात
का अहसास हर रोक टोक के साथ
मुझे कराया गया
बड़े अरमान पले मेरे सीने में
जिनकी चिता मैं रोज़ जलाती रही
बाप की पगड़ी भाई की राखी माँ के यकीन जैसे
ना जाने कितने बोझ सर पर उठाती रही
सब दे कर भी मुझे किसी से अपना कहलवाने
का अधिकार ना मिला
जहाँ मिली हमदर्दी मिली
मगर बेटे जैसा कभी प्यार ना मिला
आज वक्त है जब मुझे सबसे लड़ कर
कुछ करना है
चीरते हुए भीड़ को मुझे अब आगे बढ़ना है
लड़ रही हूँ समाज से और लड़ती रहूँगी
मगर अफ़सोस अपने ही दामन में बिछे काँटों
की चुभन भला कैसे सहूँगी
मगर अब तो जो भी हो चलते जाना है
नंगे पाँव या गिरते पड़ते या लहू लुहान
या चाहे जैसे भी हो मंज़िल को तो ज़रूर पाना है
कुछ अलग सा कर के दिखाना है
धीरज झा
जब पैदा हुई
आस पड़ोस नाते रिश्ते दारों
के मन टीस उठी
होना था वारिस कुल का
ये पराया धन कहाँ से आ गई
माँ ने लगाया सीने से
क्योंकी उसी के तन का हिस्सा थी
पापा के लिए भी मैं
जैसे एक हसीन किस्सा थी
बड़ी बहादुरी से फर्क बेटी बेटे में बताया
जब " हम बेटा बेटी में फर्क नही करते " कह कर
इतना बड़ा अहसान बेटी जात पर जताया
बड़ी होने लगी अल्हड़पन्न की गलियों से होती हुई
हक़ अपनी मर्ज़ी से जीने का धीरे धीरे खोती हुई
ये मत करो वो मत करो कह कर
हर बार मुझे ये बताया गया
मैं रचईता हो कर इस समाज की
भी कितनी ग़ैर मामुली हूँ इस बात
का अहसास हर रोक टोक के साथ
मुझे कराया गया
बड़े अरमान पले मेरे सीने में
जिनकी चिता मैं रोज़ जलाती रही
बाप की पगड़ी भाई की राखी माँ के यकीन जैसे
ना जाने कितने बोझ सर पर उठाती रही
सब दे कर भी मुझे किसी से अपना कहलवाने
का अधिकार ना मिला
जहाँ मिली हमदर्दी मिली
मगर बेटे जैसा कभी प्यार ना मिला
आज वक्त है जब मुझे सबसे लड़ कर
कुछ करना है
चीरते हुए भीड़ को मुझे अब आगे बढ़ना है
लड़ रही हूँ समाज से और लड़ती रहूँगी
मगर अफ़सोस अपने ही दामन में बिछे काँटों
की चुभन भला कैसे सहूँगी
मगर अब तो जो भी हो चलते जाना है
नंगे पाँव या गिरते पड़ते या लहू लुहान
या चाहे जैसे भी हो मंज़िल को तो ज़रूर पाना है
कुछ अलग सा कर के दिखाना है
धीरज झा
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