" कोनो बजार नही जाने वाला ? " " ना ऐतना दूर घूप में अभी कोन झाऐगा जी । कोनो काम था का ? " " हाँ तरकारी मंगाना था । ...
" कोनो बजार नही जाने वाला ? "
" ना ऐतना दूर घूप में अभी कोन झाऐगा जी । कोनो काम था का ? "
" हाँ तरकारी मंगाना था । "
" ना अभी तीन कि मी चल के कोन जाऐगा , सड़का पर टाले कादो कीच है । मोटर साईकिल नही चल पाऐगा । "
" ऐ सुनिए न , सब समान ले आईए एक दू दिन में , कहीं दाहर आ गया त आऊरो दिक्कत हो जाऐगा । "
" हाँ बतबा त ठीके है , अच्छा साँझ में जाते हैं । "
" आ न होता है त अपना दोस सूरत लाल बनिआ के फोन क दिजिए न की बऊआ पढ़ने गया है कहीं लऊकाए त पैसा दे देगा ऊ सब्जी लेले आएगा । "
" अरे टाबरे कहाँ है फोनमा में , छत पर जा के देखते हैं । उपर से ससुरा रजेसबा गेम खेल खेल के सब बैटरी उड़ा देता है । चारज कहवाँ से करें । अब बजार जाऐंगे त करा के लाऐंगे । न त गुलसनमा के मिल में भेजते हैं , डेनमो पर कर देगा चारज । "
" अछा त जाते हैं दाल भात चोखे बना लेंगे , तरकारी आऐगा त कुछो बनाऐंगे । "
" ठीक है बना लो । "
लछमी अपने काम में लग गई , गजेसर चूड़ा चिन्नी खा के खेत चला गया ।
कहानी खत्म , ऊपर जो भी पढ़ा वो समझ भी आया या यूँ ही पढ़ क मन ही मन सुना दिए की " सुबह सुबह क्या दिमाग चाट रहा है । " बता देता हूँ के इतनी सी बेतुकी कहानी में एक गाँव की सारी समस्याऐं गिना दी हैं और हाँ ये बता दूँ की ये मेन समस्याऐं हैं छोटी मोटी की तो गिनती ही कोई नही । बड़े शहरों की मौज में रहने वाले बच्चे अगर ये सुनें तो शायद मान ही ना पाऐं की ऐसा कहीं होगा भी वो भी आज के दौर में । जहाँ लोग इतना आगे बढ़ गए हैं शहर के शहर भाषणों में ही सही पर डिजिटल हो रहे हैं भला उस देश के गाँवों का ये हाल कैसे संभव है की लोग आज भी बिजली सड़क पानी इत्यादि की सुविधा से कोसों दूर हैं । मगर ऐसा है , मैं और मुझ जैसे कितने भाई जो अपनी माटी में जन्म इसके भुक्तभोगी हैं । आज भी जब बड़े शहरों में पढ़ रहे बच्चे अपने घर जाते हैं छुट्टियों में तो सबसे पहले यही सोचते हैं गाँव में घुसते की ये सड़क अब तक नही बनी , मेरा फोन और लैपटाॅप चार्ज कैसे होगा , फोन का नेटवर्क ही नही रहेगा । और जो कुछ ज़्यादा समझदार हैं वो ये सोच सकते हैं की जो यहाँ हमेशा से रह रहे हैं वो किस तंगहाली में रहते होंगे । आधे लोगों की जान सिर्फ इस वजह से चली जाती है क्योंकी कोई अस्पताल पास में नही है । जल्दी में इलाज ना हो पाने से लोग मर जाते हैं ।
शहर तो जैसे तैसे चल रहे हैं पर भाई गाँवों का डिजिटल ना सही पर कुछ ज़रूरतों भर विकास तो अत्यन्त ज़रूरी है । मैने तो मन में ठान लिया है की गाँव के विकास के लिए कुछ ना कुछ अपनी क्षमता भर तो ज़रूर करूँगा अब आप भी अपने गाँव के लिए कुछ ठाने मन में । बदलाव उन्ही के हाथो संभव है जो इस बदहाली से दूर आगए हैं मगर आज भी रिश्ता उन्ही टूटी सड़कों से रखते हैं ।
धीरज झा
" ना ऐतना दूर घूप में अभी कोन झाऐगा जी । कोनो काम था का ? "
" हाँ तरकारी मंगाना था । "
" ना अभी तीन कि मी चल के कोन जाऐगा , सड़का पर टाले कादो कीच है । मोटर साईकिल नही चल पाऐगा । "
" ऐ सुनिए न , सब समान ले आईए एक दू दिन में , कहीं दाहर आ गया त आऊरो दिक्कत हो जाऐगा । "
" हाँ बतबा त ठीके है , अच्छा साँझ में जाते हैं । "
" आ न होता है त अपना दोस सूरत लाल बनिआ के फोन क दिजिए न की बऊआ पढ़ने गया है कहीं लऊकाए त पैसा दे देगा ऊ सब्जी लेले आएगा । "
" अरे टाबरे कहाँ है फोनमा में , छत पर जा के देखते हैं । उपर से ससुरा रजेसबा गेम खेल खेल के सब बैटरी उड़ा देता है । चारज कहवाँ से करें । अब बजार जाऐंगे त करा के लाऐंगे । न त गुलसनमा के मिल में भेजते हैं , डेनमो पर कर देगा चारज । "
" अछा त जाते हैं दाल भात चोखे बना लेंगे , तरकारी आऐगा त कुछो बनाऐंगे । "
" ठीक है बना लो । "
लछमी अपने काम में लग गई , गजेसर चूड़ा चिन्नी खा के खेत चला गया ।
कहानी खत्म , ऊपर जो भी पढ़ा वो समझ भी आया या यूँ ही पढ़ क मन ही मन सुना दिए की " सुबह सुबह क्या दिमाग चाट रहा है । " बता देता हूँ के इतनी सी बेतुकी कहानी में एक गाँव की सारी समस्याऐं गिना दी हैं और हाँ ये बता दूँ की ये मेन समस्याऐं हैं छोटी मोटी की तो गिनती ही कोई नही । बड़े शहरों की मौज में रहने वाले बच्चे अगर ये सुनें तो शायद मान ही ना पाऐं की ऐसा कहीं होगा भी वो भी आज के दौर में । जहाँ लोग इतना आगे बढ़ गए हैं शहर के शहर भाषणों में ही सही पर डिजिटल हो रहे हैं भला उस देश के गाँवों का ये हाल कैसे संभव है की लोग आज भी बिजली सड़क पानी इत्यादि की सुविधा से कोसों दूर हैं । मगर ऐसा है , मैं और मुझ जैसे कितने भाई जो अपनी माटी में जन्म इसके भुक्तभोगी हैं । आज भी जब बड़े शहरों में पढ़ रहे बच्चे अपने घर जाते हैं छुट्टियों में तो सबसे पहले यही सोचते हैं गाँव में घुसते की ये सड़क अब तक नही बनी , मेरा फोन और लैपटाॅप चार्ज कैसे होगा , फोन का नेटवर्क ही नही रहेगा । और जो कुछ ज़्यादा समझदार हैं वो ये सोच सकते हैं की जो यहाँ हमेशा से रह रहे हैं वो किस तंगहाली में रहते होंगे । आधे लोगों की जान सिर्फ इस वजह से चली जाती है क्योंकी कोई अस्पताल पास में नही है । जल्दी में इलाज ना हो पाने से लोग मर जाते हैं ।
शहर तो जैसे तैसे चल रहे हैं पर भाई गाँवों का डिजिटल ना सही पर कुछ ज़रूरतों भर विकास तो अत्यन्त ज़रूरी है । मैने तो मन में ठान लिया है की गाँव के विकास के लिए कुछ ना कुछ अपनी क्षमता भर तो ज़रूर करूँगा अब आप भी अपने गाँव के लिए कुछ ठाने मन में । बदलाव उन्ही के हाथो संभव है जो इस बदहाली से दूर आगए हैं मगर आज भी रिश्ता उन्ही टूटी सड़कों से रखते हैं ।
धीरज झा
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