मैं एक किताब सा रहा मैं एक किताब सा रहा मुझे हर किसी ने पढ़ा जिसने भी प्यार से पलटे पन्ने ज़िंदगी के मेरे मैं खुलता गया मैं एक किताब सा रह...
मैं एक किताब सा रहा
मैं एक किताब सा रहा
मुझे हर किसी ने पढ़ा
जिसने भी प्यार से
पलटे पन्ने ज़िंदगी के मेरे
मैं खुलता गया
मैं एक किताब सा रहा
हर सफ़े पर हँसे
मायूस हुए
आँसू भी कुरबाँ किए
मगर भूल बैठे
किस्से कहानियाँ समझ कर
महसूस भी ना की मेरी तड़प
अपने अहसासों को
खुद से पढ़ा
खुद को ही सुनाया
मैं किताब सा रहा
महज़ वक्तगुज़ारी
बना दिया मुझे
पढ़ा ग़ौर से हर एक ने
वो अहसास जो मेरे अन्दर था
फिर धीरे से बंद कर दिया मुझे
और मैं पड़ा रहा रद्दी में भटकता
कभी यहाँ कभी वहां
बड़ा उलझा इन सब से
मेरा हिसाब सा रहा
मैं एक किताब सा रहा
मेरी जिल्द फट चुकी थी
राद्दियों में घूम कर
फिर सब ने समझा के मैं
बेकार होगया
जो अच्छा था मुझमे
वो मेरी बाहर की
बदसूरती में खो गया
फिर जला दिया गया मुझे
मगर जिसने कभी गौर से पढ़ा
मैं उसकी सोच में हमेशा आबाद सा रहा
मैं सारी उम्र एक किताब सा रहा
धीरज झा
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