#किताब_कि_बात मैं हर रोज़ वैसी ही पीड़ा महसूस करता हूँ जैसा वो औरत महसूस करती होगी जो अपनी ज़रूरतों, अपनी परेशानियों, अपने पेट की वजह से अपना ...
#किताब_कि_बात
मैं हर रोज़ वैसी ही पीड़ा महसूस करता हूँ जैसा वो औरत महसूस करती होगी जो अपनी ज़रूरतों, अपनी परेशानियों, अपने पेट की वजह से अपना जिस्म बेचती है । मैं ही क्यों हम में से अधिकांश लोग जाने अनजाने ऐसा ही महसूस करते हैं । फिर भी समाज उसके प्रति सहानुभूति रखने कि बजाए उसे घिनौनी नज़र से देखता है ।
मैं जब जब चोरी छुपे अपने शब्दों को किसी और के नाम से उसकी नुमाइश करता हूँ तब तब मुझे वो दर्द महसूस होता है कि कैसे ना चाहते हुए भी वो अपनी इज्ज़त हर रोज़ किसी ग़ैर के हवाले कर देती होगी क्योंकि उसके पास कोई रास्ता ही नहीं बचा सारे दर घूम आई पर कहीं आसरा न मिला ।
लोग कहते हैं खली हाथ आये हैं खली हाथ जाना है मैं इसे गलत मानता हूँ क्योंकि हम सब मजबूरियों का पुलिंदा साथ ले कर आये हैं और उन मजबूरियों के लिए किसका किसका दिल दुखाया इसका हिसाब साथ ले कर जाना है । बहुत दुखता है जब अपने अनमोल शब्दों को तोड़मरोड़ कर किसी और के हिसाब से ढालना पड़ता है तो । मगर शुक्रगुज़ार भी हैं उस मालिक के जिसने कम से कम वो तो दिया जिसकी वजह से ये बुरा दौर और बद्दतर नहीं बन रहा ।
ज़िम्मेदारियों ने इस तरह गिराया मुझको
कि मैने अपने ही शब्दों से ज़ोर ज़बरदस्ती कर दी ।
धीरज झा
मैं हर रोज़ वैसी ही पीड़ा महसूस करता हूँ जैसा वो औरत महसूस करती होगी जो अपनी ज़रूरतों, अपनी परेशानियों, अपने पेट की वजह से अपना जिस्म बेचती है । मैं ही क्यों हम में से अधिकांश लोग जाने अनजाने ऐसा ही महसूस करते हैं । फिर भी समाज उसके प्रति सहानुभूति रखने कि बजाए उसे घिनौनी नज़र से देखता है ।
मैं जब जब चोरी छुपे अपने शब्दों को किसी और के नाम से उसकी नुमाइश करता हूँ तब तब मुझे वो दर्द महसूस होता है कि कैसे ना चाहते हुए भी वो अपनी इज्ज़त हर रोज़ किसी ग़ैर के हवाले कर देती होगी क्योंकि उसके पास कोई रास्ता ही नहीं बचा सारे दर घूम आई पर कहीं आसरा न मिला ।
लोग कहते हैं खली हाथ आये हैं खली हाथ जाना है मैं इसे गलत मानता हूँ क्योंकि हम सब मजबूरियों का पुलिंदा साथ ले कर आये हैं और उन मजबूरियों के लिए किसका किसका दिल दुखाया इसका हिसाब साथ ले कर जाना है । बहुत दुखता है जब अपने अनमोल शब्दों को तोड़मरोड़ कर किसी और के हिसाब से ढालना पड़ता है तो । मगर शुक्रगुज़ार भी हैं उस मालिक के जिसने कम से कम वो तो दिया जिसकी वजह से ये बुरा दौर और बद्दतर नहीं बन रहा ।
ज़िम्मेदारियों ने इस तरह गिराया मुझको
कि मैने अपने ही शब्दों से ज़ोर ज़बरदस्ती कर दी ।
धीरज झा
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