एक बार पढ़ें ज़रूर, लाईक कमेंट से ज़रूरी नही, ज़रूरी है तो आपका पढ़ना और इसे समझना । बहुत लापरवाह था मैं । क्या करना है क्या बनना है मैने ...
एक बार पढ़ें ज़रूर, लाईक कमेंट से ज़रूरी नही, ज़रूरी है तो आपका पढ़ना और इसे समझना ।
बहुत लापरवाह था मैं । क्या करना है क्या बनना है मैने कभी इस बारे में सोचा ही नही था । पर जब दुनिया को देखा तब पाया कि हमारे आस पास हमारे ही बीच एक ऐसी दुनिया है जो ज़िंदा तो है मगर बस नाम की । उस दुनिया के बच्चों ने बच्चपन नही जिया, समझ आते ही समझदारियों ने काम पर लगा दिया । कुछ ऐसे ही बच्चों ने मेरी आँखों में एक सपना जगाया । मुझे नही पता वो सपना मैं पूरा कर पाऊँगा या नही मगर कोशिश ज़रूर करूँगा । मैं ना सही मेरी कोशिशों से मेरा सपना कोई और तो पूरा करेगा । मैने सपना देखा है एक ऐसे देश का जहाँ हमारी फालतू ज़रूरतों के त्याग से देश के हर उस बच्चे को बस अच्छा भोजन और शिक्षा मिल जाए जो बेसहारा है, जिसका शोषण किया जा रहा है, जिससे लोग अपना फायदा निकाल रहे हैं । मेरे सपने का कद इतना बड़ा है की शायद मेरी हकीकत के बिछौने पर समा न सके, क्योंकि मेरा बिछौना अभी बहुत छोटा है । मगर कोशिश भी ना की जाए ये तो गलत बात है । आज बाल दिवस है । मैने भी वो बच्चपन जिया है जब 5 सितम्बर को शिक्षकों के सम्मान के बदले 14 नवम्बर को वो हमें एक दिन ना पढ़ने की आज़ादी और लड्डू दिया करते थे । घर में कुछ पसंद का बन जाता था । मगर अब लगता है हमने हमसे ही बेईमानी की थी या कर रहे हैं क्योंकि एक बच्चपन ये भी है जिसे मैने कुछ शब्दों मे पिरोया है । जो मुझे ऐसे ही कभी कभी मायूस कर देता है । ज़रा आप भी देखिए इस बच्चपन की झलक और मनाईए बाल दिवस ।
मैं वही बाल हूँ ।
मैं वो बाल हूँ जिसका दिवस तुम मना रहे हो
मैं वो भविष्य हूँ जिसका गुणगान तुम गा रहे हो
मगर समझो न हमको एक हम दो रूपों में जीते हैं
कुछ उठाते हैं बच्चपन के लुफ्त तो
कुछ मेरी तरह जीवन में घुले ज़हर के घूंट पीते हैं
बहुत लगता है अच्छा जब तुम एक को दुलारते हो
दबी सी चीख भी निकलती है जब बेवजह दूसरे को मरते हो
बहुत बड़ी है बात की हम पढ़ने भी जाएँ
यहाँ तो रोज़ की आफत है दो वक़्त का खाना कैसे जुटाएं
ना जाने खुद को खुशहाल देश बता कर किसको बहला रहे हो
हाँ हाँ मैं वही बाल हूँ जिसका दिवस तुम मन रहे हो
शहर के फुटपाथों, दुकानों, होटलों में तुम्हे दिख जाऊंगा मैं
दो वक़्त की रोटी तो दो कुकर्म के लिए भी बिक जाऊंगा मैं
कभी सहलाहट नहीं सर पर किसी हाथ की महसूस की है
मुस्कुराता तो हूँ हर दम लेकिन ज़िन्दगी मायूस सी है
भीख भी मांगता हूँ तो वो मालिक छीन लेता है
न मिले भीख तो कभी जुबान कभी बाज़ू काट देता है
तुम तो यूँ ही गर्व में फुले नहीं समां रहे हो
ज़रा गौर से देखो साहेब हम वही वाल हैं
जिसका दिवस तुम मन रहे हो
कभी आओ हमें देखो प्यार से मुस्कुरा ही दो
हम भी बच्चे हैं इस बात का ज़रा अहसास करा ही दो
बहुत लम्बी है कतार ज़रूरी मुद्दों की, मैं जानता हूँ
ज़्यादा कहाँ बस ज़रा सा ही वक्त मांगता हूँ
तुम आज के नौजवाँ हो तुम्हारी सुनी जाए शायद
तुम्हारी कोशिशों से क्या पता मुझ में से कोई अगले साल
बाल दिवस अच्छे से मनाए शायद
हकीकत मैं मुझ से क्यों घबरा रहे हो
मैं वही बाल हूँ जिसका दिवस तुम मना रहे हो ।
बाल दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं
धीरज झा
बहुत लापरवाह था मैं । क्या करना है क्या बनना है मैने कभी इस बारे में सोचा ही नही था । पर जब दुनिया को देखा तब पाया कि हमारे आस पास हमारे ही बीच एक ऐसी दुनिया है जो ज़िंदा तो है मगर बस नाम की । उस दुनिया के बच्चों ने बच्चपन नही जिया, समझ आते ही समझदारियों ने काम पर लगा दिया । कुछ ऐसे ही बच्चों ने मेरी आँखों में एक सपना जगाया । मुझे नही पता वो सपना मैं पूरा कर पाऊँगा या नही मगर कोशिश ज़रूर करूँगा । मैं ना सही मेरी कोशिशों से मेरा सपना कोई और तो पूरा करेगा । मैने सपना देखा है एक ऐसे देश का जहाँ हमारी फालतू ज़रूरतों के त्याग से देश के हर उस बच्चे को बस अच्छा भोजन और शिक्षा मिल जाए जो बेसहारा है, जिसका शोषण किया जा रहा है, जिससे लोग अपना फायदा निकाल रहे हैं । मेरे सपने का कद इतना बड़ा है की शायद मेरी हकीकत के बिछौने पर समा न सके, क्योंकि मेरा बिछौना अभी बहुत छोटा है । मगर कोशिश भी ना की जाए ये तो गलत बात है । आज बाल दिवस है । मैने भी वो बच्चपन जिया है जब 5 सितम्बर को शिक्षकों के सम्मान के बदले 14 नवम्बर को वो हमें एक दिन ना पढ़ने की आज़ादी और लड्डू दिया करते थे । घर में कुछ पसंद का बन जाता था । मगर अब लगता है हमने हमसे ही बेईमानी की थी या कर रहे हैं क्योंकि एक बच्चपन ये भी है जिसे मैने कुछ शब्दों मे पिरोया है । जो मुझे ऐसे ही कभी कभी मायूस कर देता है । ज़रा आप भी देखिए इस बच्चपन की झलक और मनाईए बाल दिवस ।
मैं वही बाल हूँ ।
मैं वो बाल हूँ जिसका दिवस तुम मना रहे हो
मैं वो भविष्य हूँ जिसका गुणगान तुम गा रहे हो
मगर समझो न हमको एक हम दो रूपों में जीते हैं
कुछ उठाते हैं बच्चपन के लुफ्त तो
कुछ मेरी तरह जीवन में घुले ज़हर के घूंट पीते हैं
बहुत लगता है अच्छा जब तुम एक को दुलारते हो
दबी सी चीख भी निकलती है जब बेवजह दूसरे को मरते हो
बहुत बड़ी है बात की हम पढ़ने भी जाएँ
यहाँ तो रोज़ की आफत है दो वक़्त का खाना कैसे जुटाएं
ना जाने खुद को खुशहाल देश बता कर किसको बहला रहे हो
हाँ हाँ मैं वही बाल हूँ जिसका दिवस तुम मन रहे हो
शहर के फुटपाथों, दुकानों, होटलों में तुम्हे दिख जाऊंगा मैं
दो वक़्त की रोटी तो दो कुकर्म के लिए भी बिक जाऊंगा मैं
कभी सहलाहट नहीं सर पर किसी हाथ की महसूस की है
मुस्कुराता तो हूँ हर दम लेकिन ज़िन्दगी मायूस सी है
भीख भी मांगता हूँ तो वो मालिक छीन लेता है
न मिले भीख तो कभी जुबान कभी बाज़ू काट देता है
तुम तो यूँ ही गर्व में फुले नहीं समां रहे हो
ज़रा गौर से देखो साहेब हम वही वाल हैं
जिसका दिवस तुम मन रहे हो
कभी आओ हमें देखो प्यार से मुस्कुरा ही दो
हम भी बच्चे हैं इस बात का ज़रा अहसास करा ही दो
बहुत लम्बी है कतार ज़रूरी मुद्दों की, मैं जानता हूँ
ज़्यादा कहाँ बस ज़रा सा ही वक्त मांगता हूँ
तुम आज के नौजवाँ हो तुम्हारी सुनी जाए शायद
तुम्हारी कोशिशों से क्या पता मुझ में से कोई अगले साल
बाल दिवस अच्छे से मनाए शायद
हकीकत मैं मुझ से क्यों घबरा रहे हो
मैं वही बाल हूँ जिसका दिवस तुम मना रहे हो ।
बाल दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं
धीरज झा
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