माँ पापा ने कभी अपनी परम्परा से कटने नही दिया । चाहे वो परम्परा व्रत त्यौहारों की हो, खान पान कि हो या फिर बोल चाल की, कभी शहरी या किसी और प...
माँ पापा ने कभी अपनी परम्परा से कटने नही दिया । चाहे वो परम्परा व्रत त्यौहारों की हो, खान पान कि हो या फिर बोल चाल की, कभी शहरी या किसी और प्रांत के परिवेश का मुखौटा नही लगाने दिया । हमेशा यही सिखाया कि रहो भले ही जहाँ मर्ज़ी जैसे मर्ज़ी मगर अपनी जड़ों से अलग मत रहो। पापा कहा करते थे "जो इंसान अपने जन्मभूमि की मिट्टी को धूल कह कर नाक भौं सिकोड़ने लगे वो इंसान अपना अस्तित्व खो चुका होता है ।" मैने भी ऐसा ही किया । मैं कहीं भी रहा कैसे भी रहा मगर बिहार का वो गाँव और वहाँ कि परम्परा मुझ में हमेशा ज़िंदा रही ।
हमेशा से बाहर रहा इसलिए ये तो नही कह सकता कि गाँव की छठ पूजा बहुत याद आती है । हाँ मगर छठ पूजा बहुत याद आती है कारण ये है कि परम्परा को माँ पापा ने हर जगह ज़िंदा रखा । याद है मुझे मैं आठवीं में था जब माँ ने पहली बार छठ पूजा रखना शुरू किया था उससे पहले गाँव में सब रखते थे पर माँ नही रखती थीं । एक कारण ये भी था कि पंजाब में इस व्रत के बारे में कोई नही जानता था मगर उस साल पता लगा कि कुछ दूर पर कुछ बिहार यूपी के लोग हैं जो छठ मनाते हैं, बिहार यूपी में तो हर तरफ से हार चुके लोगों का एक ही सहारा होता है वो हैं छठी मईया, माँ भी ऐसे ही तब हार गई थीं जब उसका बड़ा बेटा यानी मेरा बड़ा भाई जो तब कोई चार साढे चार साल का रहा होगा, गाँव की नदी की भेंट चढ़ गया था । निराश थी हताश थी तब छठी मईया का सहारा लिया और अपनी खोई हुई औलाद माँग ली तब धीरज धराने के लिए छठी मईया ने इस धीरज को माँ की गोद में डाला तब से माँ छठी माँ की मनऊती माने हुई थी मगर उसके बाद कभी मौका ही नही मिला लेकिन अब मौका था । माँ ने भी व्रत शुरू कर दिए और उसके बाद से व्रत का सिलसिला चलता रहा । पहले परदेस में मुट्ठी भर लोग छठ मनाते थे आज मेला लगता है । सब एक जगह इक्कट्ठा हो कर घाट सजाते हैं और धूम धाम से छठ मनाते हैं ।
हाँ मगर गाँव वाली छठ पूजा की बात ही अलग है । जहाँ पूरा गाँव आस्था और छठी माँ की भक्ति में लीन रहता है । गाँव की छठ पूजा का मतलब है परदेसी बाबूओं और बबुनिओं का गाँव आना, सबका मिल कर छठ घाट को सजाना, अगरबत्तियों की गमक से पूरा वातावरण गमक उठना, ठेकुआ कसार खाजा मिठाई और फल से लदे डालों का घाट पर सजाए जाना, शारदा सिन्हा जी के छठ गीतों से पूरा माहौल छठमय हो जाना और हाँ एक सबसे मुश्किल चीज़ जो चुपके से इस व्रत का हिस्सा बन जाती है वो है बच्चों का मिठाई और फल देख कर उसे खाने की ज़िद्द करना और घर वालों का उन्हे छठी मईया की महिमा सुना कर उन्हे बहलाना । ये सब चीज़ें जैसे एक नई उमंग भर देती हैं, इन्हे सोचते ही वो गाँव वो देहात जो हम में कहीं चुपके से दुबका होता है एक दम से पूरे जोश में आ जाता है ।
छठ व्रत है मनोकामनाओं का आस्था का एकता का छठी मईया का सूरज भगवान का देहात का बिहार का यूपी का हर उस इंसान का जिसने मिट्टी की महक को अपनी आत्मा से महसूस किया हो । अच्छा लगता है जब फैशन और हर तरह की आज़ादी की इस चाह वाले दौर में भी आज की पीढ़ी अपनी आस्था अपनी परम्परा अपनी मिट्टी को खुद में ज़िंदा रखे है ।
छठ महापर्व की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं । खुशियों का त्यौहार है खुशी से मनाईए । छठी मईया आप सबकी मनोकामनाओं को पूरा करें और आप सबके घरों में खुशहाली लाएं ।
जय छठी मईया
धीरज झा
हमेशा से बाहर रहा इसलिए ये तो नही कह सकता कि गाँव की छठ पूजा बहुत याद आती है । हाँ मगर छठ पूजा बहुत याद आती है कारण ये है कि परम्परा को माँ पापा ने हर जगह ज़िंदा रखा । याद है मुझे मैं आठवीं में था जब माँ ने पहली बार छठ पूजा रखना शुरू किया था उससे पहले गाँव में सब रखते थे पर माँ नही रखती थीं । एक कारण ये भी था कि पंजाब में इस व्रत के बारे में कोई नही जानता था मगर उस साल पता लगा कि कुछ दूर पर कुछ बिहार यूपी के लोग हैं जो छठ मनाते हैं, बिहार यूपी में तो हर तरफ से हार चुके लोगों का एक ही सहारा होता है वो हैं छठी मईया, माँ भी ऐसे ही तब हार गई थीं जब उसका बड़ा बेटा यानी मेरा बड़ा भाई जो तब कोई चार साढे चार साल का रहा होगा, गाँव की नदी की भेंट चढ़ गया था । निराश थी हताश थी तब छठी मईया का सहारा लिया और अपनी खोई हुई औलाद माँग ली तब धीरज धराने के लिए छठी मईया ने इस धीरज को माँ की गोद में डाला तब से माँ छठी माँ की मनऊती माने हुई थी मगर उसके बाद कभी मौका ही नही मिला लेकिन अब मौका था । माँ ने भी व्रत शुरू कर दिए और उसके बाद से व्रत का सिलसिला चलता रहा । पहले परदेस में मुट्ठी भर लोग छठ मनाते थे आज मेला लगता है । सब एक जगह इक्कट्ठा हो कर घाट सजाते हैं और धूम धाम से छठ मनाते हैं ।
हाँ मगर गाँव वाली छठ पूजा की बात ही अलग है । जहाँ पूरा गाँव आस्था और छठी माँ की भक्ति में लीन रहता है । गाँव की छठ पूजा का मतलब है परदेसी बाबूओं और बबुनिओं का गाँव आना, सबका मिल कर छठ घाट को सजाना, अगरबत्तियों की गमक से पूरा वातावरण गमक उठना, ठेकुआ कसार खाजा मिठाई और फल से लदे डालों का घाट पर सजाए जाना, शारदा सिन्हा जी के छठ गीतों से पूरा माहौल छठमय हो जाना और हाँ एक सबसे मुश्किल चीज़ जो चुपके से इस व्रत का हिस्सा बन जाती है वो है बच्चों का मिठाई और फल देख कर उसे खाने की ज़िद्द करना और घर वालों का उन्हे छठी मईया की महिमा सुना कर उन्हे बहलाना । ये सब चीज़ें जैसे एक नई उमंग भर देती हैं, इन्हे सोचते ही वो गाँव वो देहात जो हम में कहीं चुपके से दुबका होता है एक दम से पूरे जोश में आ जाता है ।
छठ व्रत है मनोकामनाओं का आस्था का एकता का छठी मईया का सूरज भगवान का देहात का बिहार का यूपी का हर उस इंसान का जिसने मिट्टी की महक को अपनी आत्मा से महसूस किया हो । अच्छा लगता है जब फैशन और हर तरह की आज़ादी की इस चाह वाले दौर में भी आज की पीढ़ी अपनी आस्था अपनी परम्परा अपनी मिट्टी को खुद में ज़िंदा रखे है ।
छठ महापर्व की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएं । खुशियों का त्यौहार है खुशी से मनाईए । छठी मईया आप सबकी मनोकामनाओं को पूरा करें और आप सबके घरों में खुशहाली लाएं ।
जय छठी मईया
धीरज झा
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