क्या आप जानते हैं कि एक पिता जब माँ बनता है तब एक पुरुष अपनी विपरीत दिशा में चलता है छोड़ आता है मान सम्मान को कोसों पीछे बस सहता रहता है सब...
क्या आप जानते हैं कि
एक पिता जब माँ बनता है
तब एक पुरुष अपनी विपरीत दिशा में चलता है
छोड़ आता है मान सम्मान को कोसों पीछे
बस सहता रहता है सब अंखियाँ मींचे
सोचता है बार बार कि
अभी कुछ दिनों पहले तक ही तो
वो पूर्ण पुरूष हुआ करता था
एक पिता एक पति का फर्ज़
बाखूबी निभाया करता था
मगर अचानक से ये नियति को क्या सूझी
मेरी क्या बेग़ैरत ने तो
इन मासूमों के दिल की बात भी ना बूझी
ले गया इनकी माँ को मुझ से दूर कितना
कर गया मुझ समूचे को चूर चूर कितना
मैं अब खुद के टुकड़े समेटूँ
या संभालूं इन मासूमों को
कहाँ से लाऊँ मैं वो माँ के
हाथ से सने निवालों को
क्या जवाब दूँ कि
कब तक इनकी माँ लौट आएगी
माँ हम बच्चों को और कितना रुलाएगी
मुझे तो यह भी नहीं पता
कि इन्हे खाने में पसंद क्या है
सीख तो लेता मैं भी मगर कौन जानता था
वक्त की मुट्ठी में आख़िर बंद क्या है
जिसके बिना एक पल ना बिताना सीखा
बिन उसके भी अब जी रहा हूँ
बाप हूँ कैसे बिलखता छोड़ जाऊँ
बस इसीलिए ज़हर ज़िंदगी का
घूंट भर भर के पी रहा हूँ
अब तो यही कोशिश है कि
इन नन्हें मुन्नों के सर की छांह बन जाऊं
एक पिता तो हूं ही
अब इन बच्चों की अच्छी माँ बन जाऊं
धीरज झा
एक पिता जब माँ बनता है
तब एक पुरुष अपनी विपरीत दिशा में चलता है
छोड़ आता है मान सम्मान को कोसों पीछे
बस सहता रहता है सब अंखियाँ मींचे
सोचता है बार बार कि
अभी कुछ दिनों पहले तक ही तो
वो पूर्ण पुरूष हुआ करता था
एक पिता एक पति का फर्ज़
बाखूबी निभाया करता था
मगर अचानक से ये नियति को क्या सूझी
मेरी क्या बेग़ैरत ने तो
इन मासूमों के दिल की बात भी ना बूझी
ले गया इनकी माँ को मुझ से दूर कितना
कर गया मुझ समूचे को चूर चूर कितना
मैं अब खुद के टुकड़े समेटूँ
या संभालूं इन मासूमों को
कहाँ से लाऊँ मैं वो माँ के
हाथ से सने निवालों को
क्या जवाब दूँ कि
कब तक इनकी माँ लौट आएगी
माँ हम बच्चों को और कितना रुलाएगी
मुझे तो यह भी नहीं पता
कि इन्हे खाने में पसंद क्या है
सीख तो लेता मैं भी मगर कौन जानता था
वक्त की मुट्ठी में आख़िर बंद क्या है
जिसके बिना एक पल ना बिताना सीखा
बिन उसके भी अब जी रहा हूँ
बाप हूँ कैसे बिलखता छोड़ जाऊँ
बस इसीलिए ज़हर ज़िंदगी का
घूंट भर भर के पी रहा हूँ
अब तो यही कोशिश है कि
इन नन्हें मुन्नों के सर की छांह बन जाऊं
एक पिता तो हूं ही
अब इन बच्चों की अच्छी माँ बन जाऊं
धीरज झा
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