#पंडित_जी_और_लाऊडस्पीकर (एक कहानी समझ वाली ) पंडित देबीदयाल मिसिर 48 सालों से समीति बजार वाले राम मंदिर में राम जी की सेवा कर रहे थे । शहर ...
#पंडित_जी_और_लाऊडस्पीकर (एक कहानी समझ वाली )
पंडित देबीदयाल मिसिर 48 सालों से समीति बजार वाले राम मंदिर में राम जी की सेवा कर रहे थे । शहर के सबसे बड़े सेठ जानकीदास जी ने जब ये मंदिर बनवाया तो उनकी इक्छा थी कि यहाँ कोई ऐसा पुजारी रखा जाए जो बिना किसी लोभ के आजीवन राम जी की सेवा करे । मगर ऐसे दौर में जहाँ लोग रोटी के लिए मारा मारी मचाए थे उस दौर में कोई भला बिना स्वार्थ राम जी की सेवा करने को कौन तैयार होता । उन्हीं दिनों एक रामायण कथा में जानकीदास जी की नज़र एक 21 22 वर्षीय नौजवान पर पड़ी जिसे राम जी के गुणगान करते देख जानकीदास को ये अहसास हुआ कि जैसे ये स्वयं हनुमान जी हों । इतने प्रेम से और मनमग्न हो कर जो राम जी के गुणों का वर्णन कर रहा हो वो हनुमान जी का ही रूप हो सकता है ।
जानकीदास जी ने जब उसके बारे में पता लगाया तो यह मालूम पड़ा कि वह नौजवान अनाथ है, गुरूकुल से पढ़ा है और राम जी का परम भक्त है । इतना जानने के बाद जानकीदास को यह आभास हो गया कि राम जी ने अपना सेवक स्वयं ढूंढ लिया है ।
"रामभक्त हो ।"
"नहीं सेठ जी भक्त नहीं सेवक हूँ उनका ।"
"भक्त और सेवक में भला क्या अंतर हुआ ?"
"भक्त वो है जो भक्ति में लीन रहता है और सेवक वो जो अपने प्रभु समेत अपने प्रभु के भक्तों की सेवा करे । भक्त खुश रहेंगे तभी तो प्रभु भी प्रसन्न होंगे ।" उत्तर सुन कर जानकीदास का मन प्रसन्न हो गया ।
"मैने एक राम मंदिर का निर्माण करवाया है क्या तुम वहाँ पुजारी बन कर रहोगे ?"
"प्रभु की सेवा का अवसर मिले और मैं उसे गंवा दूं ऐसा कैसे संभव हो सकता है । मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगा ।"
" मगर तुम्हें वहाँ आजीवन रहना होगा । स्वीकार है ?"
" जी एकदम स्वीकार है । मैने वैसे भी अपना जीवन राम जी की सेवा में व्यतीत करने का प्रण ले लिया है ।"
"दरमाहां कितना लोगा ।"
"दो समय का भोजन, साल में एक जोड़ धोती, और कुछ अधिकार जिससे मुझे किसी मांगने वाले या भूखे को राम जी के द्वार से खाली ना भेजना पड़े ।" जानकीदास की प्रसन्नता इस समय ठीक वैसी ही थी जैसी विभीषण को हुई थी हनुमान जी से मिल कर । उसी समय उस नौजवान को जानकीदास अपने साथ ले आए । उसके बाद तो उस नौजवान ने अपनी सेवा और भक्ति से जानकीदास को ऐसे मोह लिया कि जब वह थोड़े परेशान होते तो जा कर हर दम मुस्कुराते हुए राम नाम का जाप करते उस युवक को देख आते और फिर उनकी सारी परेशानी अपने आप दूर हो जाती । जब जानकीदास जी ने अपने प्राण त्यागे तब दस साल बीत गए थे पंडित देबीदयाल को प्रभु राम की सेवा करते हुए । प्रभु चरणों में लीन होने से पहले जानकीदास उस मंदिर का अधिकार पंडित देबीदयाल को दे दिया । उन्हें पता था कि वह कभी भी अपने अधिकार का दुरउपयोग नहीं करेंगे ।
पंडित जी ने हमेशा अपने मन से राम जी की सेवा की । मंदिर में आने वाले सभी भक्त उन से बहुत खुश रहते थे । जमाना पहले से काफ़ी बदल गया था मगर पंडित देबीदयाल ने खुद को कभी नहीं बदला । सब कुछ ठीक था बस एक बात की शिकायत कुछ लोगों को हमेशा रहती थी वो ये कि आस पास के सभी मंदिरों में सुबह सुबह लाऊडस्पीकर में भजन बजाए जाते हैं तो फिर यहाँ क्यों नहीं ? जबकि यहाँ सारी व्यवस्था है । एक दिन जिन जिन लोगों को इस बात की शिकायत थी उन सबने पंडित जी से इस पर चर्चा करने की ठानी ।
उनसे सबने यह पूछा कि आप क्यों नहीं सुबह सुबह स्पीकर पर भजन चलाते ? इतना अच्छा गुणगान करते हैं आप प्रभुराम का फिर आप स्पीकर में क्यों नहीं करते जिससे सब आपका ज्ञान सब तक पहुंच पाए ?
सबकी बातें सुन कर पहले तो पंडित जी मुस्कुराए और एक लंबी सांस खींचते हुए बोले "इस पूरे क्षेत्र मे कितने लोग होंगे ?"
"यही कोई पाँच हज़ार ।"
"मंदिर में कितने आते होंगे हर रोज़ ?"
"चालिस पचास ।"
"उन चालिस पचास में।आप सब भी हैं तो क्या आप सबको मैं कभी सुबह बुला कर मंदिर ले कर आया हूँ ? या आपसे कभी ऐसा कहा है कि मैं जो भजन या प्रवचन सुनाता हूँ वो सुनिए ?"
"नहीं भला आप क्यों हमें ऐसा कहेंगे ! ये तो हमारी आस्था है जो हम आते हैं आपकी अच्छी बातों को सुनते हैं ।" लोगों का यह उत्तर सुन कर पंडित जी की मुस्कान और गहरी हो गई ।
"बस यही तो बात है । मैं प्रभु राम का सेवक हूँ, मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मेरे किसी काम के कारण कोई मेरे प्रभु को गलत कहे । आप सब में कई ऐसे लोग हैं जिन्हें मैने इसी जगह बैठ कर कहते सुना है कि फलाने की शादी में देर रात तक बाजा बजता रहा जिस कारण नींद नहीं आई । कई बार आप ये नए नए मोटरसाईकलों के तेज हाॅरन का उदाहरण दे कर कहते हैं शोर बढ़ गया है । सबको अपने अपने तरीके से अपनी अपनी मर्ज़ी से अलग अलग तरह के माध्यम से आनंद मिलता है और जिस में एक को आनंद मिले ये ज़रूरी नहीं की दूसरे को भी उसमें आनंद आए । आप प्रभु के गुणगान से आनंद प्राप्त होता तो किसी को फिल्मी गानों से ।
सुबह सुबह जब इन स्पीकरों की आवाज़ ऐसे लोगों के कानों में पड़ती है जो देर रात काम से लौटे थे थके थे वो अगर सुबह के चार बजे ये शोर सुनेंगे तो वो भजन भी उन्हें गालियों जैसा ही लगेगा और भगवान किसी डरावने शैतान से कम नहीं दिखेगा । जिनके मन में आस्था है उनकी आँख अपने आप सुबह सुबह खुल जाती है और मन प्रभु मिलन के लिए इतना व्याकुल होने लगता है कि वो बिना बुलाए मंदिर की तरफ़ भागे आते हैं । हमारे शोर करने से भगवान तो प्रसन्न नहीं होंगे मगर लोग दुखी ज़रूर हो जाएंगे । मंदिर है इसलिए भले ही खुल के ना बोलें मगर मन ही मन भगवान और भक्तों दोनों को बुरा भला कहेंगे । तो भला आप बताइए ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिस से हमारे भगवान और हमारी निंदा हो । भगवान की आराधना तब भी उतने ही मन से होती थी जब इन लाऊडस्पीकरों का चलन नहीं था । मैं नहीं कहता कि जो ऐसा कर रहे हैं वो ऐसा करना बंद कर दें, उनकी समझ में यही बेहतर रास्ता है भक्ति का । मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता जिसे मंदिर आना होगा उसे प्रभु खुद ही ले आएंगे हमें शोर करने की ज़रूरत ही नहीं ।"
पंडित जी की बातों ने वहाँ उपस्थित सभी महानुभावों को सोचने पर मजबूर कर दिया और अंत में फैसला हुआ कि पंडित जी की बात एकदम सही है और जैसे चलता आ रहा है वैसे ही होगा । बातों बातों में शाम हो गई थी और फिर सबने एक साथ प्रभु राम की आरती की । सामने मूर्ती में मुस्कुराते हुए राम जी ऐसे लग रहे थे जैसे मानों कह रहे हों कि "चलो इस भेड़ चाल वाली दुनिया में कम से कम कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सही गलत का फैसला अपनी सोच और समझ से करना जानते हैं ।
धीरज झा
पंडित देबीदयाल मिसिर 48 सालों से समीति बजार वाले राम मंदिर में राम जी की सेवा कर रहे थे । शहर के सबसे बड़े सेठ जानकीदास जी ने जब ये मंदिर बनवाया तो उनकी इक्छा थी कि यहाँ कोई ऐसा पुजारी रखा जाए जो बिना किसी लोभ के आजीवन राम जी की सेवा करे । मगर ऐसे दौर में जहाँ लोग रोटी के लिए मारा मारी मचाए थे उस दौर में कोई भला बिना स्वार्थ राम जी की सेवा करने को कौन तैयार होता । उन्हीं दिनों एक रामायण कथा में जानकीदास जी की नज़र एक 21 22 वर्षीय नौजवान पर पड़ी जिसे राम जी के गुणगान करते देख जानकीदास को ये अहसास हुआ कि जैसे ये स्वयं हनुमान जी हों । इतने प्रेम से और मनमग्न हो कर जो राम जी के गुणों का वर्णन कर रहा हो वो हनुमान जी का ही रूप हो सकता है ।
जानकीदास जी ने जब उसके बारे में पता लगाया तो यह मालूम पड़ा कि वह नौजवान अनाथ है, गुरूकुल से पढ़ा है और राम जी का परम भक्त है । इतना जानने के बाद जानकीदास को यह आभास हो गया कि राम जी ने अपना सेवक स्वयं ढूंढ लिया है ।
"रामभक्त हो ।"
"नहीं सेठ जी भक्त नहीं सेवक हूँ उनका ।"
"भक्त और सेवक में भला क्या अंतर हुआ ?"
"भक्त वो है जो भक्ति में लीन रहता है और सेवक वो जो अपने प्रभु समेत अपने प्रभु के भक्तों की सेवा करे । भक्त खुश रहेंगे तभी तो प्रभु भी प्रसन्न होंगे ।" उत्तर सुन कर जानकीदास का मन प्रसन्न हो गया ।
"मैने एक राम मंदिर का निर्माण करवाया है क्या तुम वहाँ पुजारी बन कर रहोगे ?"
"प्रभु की सेवा का अवसर मिले और मैं उसे गंवा दूं ऐसा कैसे संभव हो सकता है । मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगा ।"
" मगर तुम्हें वहाँ आजीवन रहना होगा । स्वीकार है ?"
" जी एकदम स्वीकार है । मैने वैसे भी अपना जीवन राम जी की सेवा में व्यतीत करने का प्रण ले लिया है ।"
"दरमाहां कितना लोगा ।"
"दो समय का भोजन, साल में एक जोड़ धोती, और कुछ अधिकार जिससे मुझे किसी मांगने वाले या भूखे को राम जी के द्वार से खाली ना भेजना पड़े ।" जानकीदास की प्रसन्नता इस समय ठीक वैसी ही थी जैसी विभीषण को हुई थी हनुमान जी से मिल कर । उसी समय उस नौजवान को जानकीदास अपने साथ ले आए । उसके बाद तो उस नौजवान ने अपनी सेवा और भक्ति से जानकीदास को ऐसे मोह लिया कि जब वह थोड़े परेशान होते तो जा कर हर दम मुस्कुराते हुए राम नाम का जाप करते उस युवक को देख आते और फिर उनकी सारी परेशानी अपने आप दूर हो जाती । जब जानकीदास जी ने अपने प्राण त्यागे तब दस साल बीत गए थे पंडित देबीदयाल को प्रभु राम की सेवा करते हुए । प्रभु चरणों में लीन होने से पहले जानकीदास उस मंदिर का अधिकार पंडित देबीदयाल को दे दिया । उन्हें पता था कि वह कभी भी अपने अधिकार का दुरउपयोग नहीं करेंगे ।
पंडित जी ने हमेशा अपने मन से राम जी की सेवा की । मंदिर में आने वाले सभी भक्त उन से बहुत खुश रहते थे । जमाना पहले से काफ़ी बदल गया था मगर पंडित देबीदयाल ने खुद को कभी नहीं बदला । सब कुछ ठीक था बस एक बात की शिकायत कुछ लोगों को हमेशा रहती थी वो ये कि आस पास के सभी मंदिरों में सुबह सुबह लाऊडस्पीकर में भजन बजाए जाते हैं तो फिर यहाँ क्यों नहीं ? जबकि यहाँ सारी व्यवस्था है । एक दिन जिन जिन लोगों को इस बात की शिकायत थी उन सबने पंडित जी से इस पर चर्चा करने की ठानी ।
उनसे सबने यह पूछा कि आप क्यों नहीं सुबह सुबह स्पीकर पर भजन चलाते ? इतना अच्छा गुणगान करते हैं आप प्रभुराम का फिर आप स्पीकर में क्यों नहीं करते जिससे सब आपका ज्ञान सब तक पहुंच पाए ?
सबकी बातें सुन कर पहले तो पंडित जी मुस्कुराए और एक लंबी सांस खींचते हुए बोले "इस पूरे क्षेत्र मे कितने लोग होंगे ?"
"यही कोई पाँच हज़ार ।"
"मंदिर में कितने आते होंगे हर रोज़ ?"
"चालिस पचास ।"
"उन चालिस पचास में।आप सब भी हैं तो क्या आप सबको मैं कभी सुबह बुला कर मंदिर ले कर आया हूँ ? या आपसे कभी ऐसा कहा है कि मैं जो भजन या प्रवचन सुनाता हूँ वो सुनिए ?"
"नहीं भला आप क्यों हमें ऐसा कहेंगे ! ये तो हमारी आस्था है जो हम आते हैं आपकी अच्छी बातों को सुनते हैं ।" लोगों का यह उत्तर सुन कर पंडित जी की मुस्कान और गहरी हो गई ।
"बस यही तो बात है । मैं प्रभु राम का सेवक हूँ, मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मेरे किसी काम के कारण कोई मेरे प्रभु को गलत कहे । आप सब में कई ऐसे लोग हैं जिन्हें मैने इसी जगह बैठ कर कहते सुना है कि फलाने की शादी में देर रात तक बाजा बजता रहा जिस कारण नींद नहीं आई । कई बार आप ये नए नए मोटरसाईकलों के तेज हाॅरन का उदाहरण दे कर कहते हैं शोर बढ़ गया है । सबको अपने अपने तरीके से अपनी अपनी मर्ज़ी से अलग अलग तरह के माध्यम से आनंद मिलता है और जिस में एक को आनंद मिले ये ज़रूरी नहीं की दूसरे को भी उसमें आनंद आए । आप प्रभु के गुणगान से आनंद प्राप्त होता तो किसी को फिल्मी गानों से ।
सुबह सुबह जब इन स्पीकरों की आवाज़ ऐसे लोगों के कानों में पड़ती है जो देर रात काम से लौटे थे थके थे वो अगर सुबह के चार बजे ये शोर सुनेंगे तो वो भजन भी उन्हें गालियों जैसा ही लगेगा और भगवान किसी डरावने शैतान से कम नहीं दिखेगा । जिनके मन में आस्था है उनकी आँख अपने आप सुबह सुबह खुल जाती है और मन प्रभु मिलन के लिए इतना व्याकुल होने लगता है कि वो बिना बुलाए मंदिर की तरफ़ भागे आते हैं । हमारे शोर करने से भगवान तो प्रसन्न नहीं होंगे मगर लोग दुखी ज़रूर हो जाएंगे । मंदिर है इसलिए भले ही खुल के ना बोलें मगर मन ही मन भगवान और भक्तों दोनों को बुरा भला कहेंगे । तो भला आप बताइए ऐसा काम ही क्यों किया जाए जिस से हमारे भगवान और हमारी निंदा हो । भगवान की आराधना तब भी उतने ही मन से होती थी जब इन लाऊडस्पीकरों का चलन नहीं था । मैं नहीं कहता कि जो ऐसा कर रहे हैं वो ऐसा करना बंद कर दें, उनकी समझ में यही बेहतर रास्ता है भक्ति का । मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता जिसे मंदिर आना होगा उसे प्रभु खुद ही ले आएंगे हमें शोर करने की ज़रूरत ही नहीं ।"
पंडित जी की बातों ने वहाँ उपस्थित सभी महानुभावों को सोचने पर मजबूर कर दिया और अंत में फैसला हुआ कि पंडित जी की बात एकदम सही है और जैसे चलता आ रहा है वैसे ही होगा । बातों बातों में शाम हो गई थी और फिर सबने एक साथ प्रभु राम की आरती की । सामने मूर्ती में मुस्कुराते हुए राम जी ऐसे लग रहे थे जैसे मानों कह रहे हों कि "चलो इस भेड़ चाल वाली दुनिया में कम से कम कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सही गलत का फैसला अपनी सोच और समझ से करना जानते हैं ।
धीरज झा
COMMENTS