कुछ शब्द नहीं खुला ख़त ही समझो काले घने मेघ सी ये गर्जनाएं हो रहीं अब मौन क्यों हैं हिमालय सा बढ़ता कद अचानक से हो रहा गौण क्यों है नसो...
कुछ शब्द नहीं खुला ख़त ही समझो
काले घने मेघ सी ये गर्जनाएं
हो रहीं अब मौन क्यों हैं
हिमालय सा बढ़ता कद
अचानक से हो रहा गौण क्यों है
नसों में बह रहा तप्त शोणित
अब बर्फ सा ठरने क्यों लगा है
काल के कपाल पर नृत्य करने वालों
का मन अब डरने क्यों लगा है
इसे छलावा कहें या अनल से
पूर्व पसरा हुआ सन्नाटा ही जानें
सैनिकों के क्षत विक्षत हो चुकी
देहों को विकास हम कैसे मानें
माँ की गगनभेदी चीखों को अब
सुन नहीं पाएंगे हम
चीथड़ों में पसरी वीरों की लाशों
के अंग अब चुन नहीं पाएंगे हम
कड़े शब्दों की निंदा ही
अगर अंतिम चरण है
तो फिर हम मान लें कि ये तुम्हारे प्रति
हमारे विश्वास का मरण है
ये जान लो अगर इन वीरों के लिए
प्रतिशोध की ज्वाला ना भड़की
भारत की छाती अगर दुश्मनों के रक्त
के बिना कुछ देर और प्यासी तड़पी
तो इन वीरों की जलती चिताओं में
तुम्हारी सत्ता भी धू धू जलेगी
तुम्हारे जले साम्राज्य की अस्थियों को
प्रजा अपने माथे मलेगी
लोकतंत्र है ये लोगों से ही
और लोगों के लिए हो तुम
सेवा हेतु चुना है तुमको ना कि
राजसी भोगों के लिए हो तुम
जैसे पहले किया वैसे ही अपने
दायित्वों का निर्वाह तुमको करना ही होगा
प्रजा आक्रोश की ज्वाला में तप रही है
अब तुम्हें मरो या मारो का मंत्र पढ़ना ही होगा
इसे मात्र कविता नहीं
जनमत ही समझो
मात्र कुछ शब्द नहीं
एक खुला ख़त ही समझो
धीरज झा
काले घने मेघ सी ये गर्जनाएं
हो रहीं अब मौन क्यों हैं
हिमालय सा बढ़ता कद
अचानक से हो रहा गौण क्यों है
नसों में बह रहा तप्त शोणित
अब बर्फ सा ठरने क्यों लगा है
काल के कपाल पर नृत्य करने वालों
का मन अब डरने क्यों लगा है
इसे छलावा कहें या अनल से
पूर्व पसरा हुआ सन्नाटा ही जानें
सैनिकों के क्षत विक्षत हो चुकी
देहों को विकास हम कैसे मानें
माँ की गगनभेदी चीखों को अब
सुन नहीं पाएंगे हम
चीथड़ों में पसरी वीरों की लाशों
के अंग अब चुन नहीं पाएंगे हम
कड़े शब्दों की निंदा ही
अगर अंतिम चरण है
तो फिर हम मान लें कि ये तुम्हारे प्रति
हमारे विश्वास का मरण है
ये जान लो अगर इन वीरों के लिए
प्रतिशोध की ज्वाला ना भड़की
भारत की छाती अगर दुश्मनों के रक्त
के बिना कुछ देर और प्यासी तड़पी
तो इन वीरों की जलती चिताओं में
तुम्हारी सत्ता भी धू धू जलेगी
तुम्हारे जले साम्राज्य की अस्थियों को
प्रजा अपने माथे मलेगी
लोकतंत्र है ये लोगों से ही
और लोगों के लिए हो तुम
सेवा हेतु चुना है तुमको ना कि
राजसी भोगों के लिए हो तुम
जैसे पहले किया वैसे ही अपने
दायित्वों का निर्वाह तुमको करना ही होगा
प्रजा आक्रोश की ज्वाला में तप रही है
अब तुम्हें मरो या मारो का मंत्र पढ़ना ही होगा
इसे मात्र कविता नहीं
जनमत ही समझो
मात्र कुछ शब्द नहीं
एक खुला ख़त ही समझो
धीरज झा
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