बुद्ध और मंटो कल बुद्ध पूर्णिमा थी और आज सआदत हसन मंटो का जन्मदिन । दोनों में क्या समानता हो सकती है भला । एक विष्णु अवतार कहे जाने वाले भ...
बुद्ध और मंटो
कल बुद्ध पूर्णिमा थी और आज सआदत हसन मंटो का जन्मदिन । दोनों में क्या समानता हो सकती है भला । एक विष्णु अवतार कहे जाने वाले भगवान बुद्ध जिनके करोड़ों अनुयायी हैं जिन्होंने बुद्ध जैसे महान धर्म (वैसे तो इस धर्म के बारे में इतना खास जानता नहीं मैं फिर भी अगर इस धर्म की नींव पर इतने देश खड़े हैं वो धर्म महान ही होगा । भले ही वहाँ के लोगों द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को माना जाए या ना जाए मगर महान तो है ही वैसे भी अगर सब अपने धर्म को उतनी बारीकियों से मानने लगें तो हर कोई अपने धर्म के संस्थापक जैसा ही ना बन जाएगा) स्थापना की । और दूसरी तरफ़ मंटों साहब जिनके कई कहानियों पर अश्लीलता फैलाने के आरोप लगे । जिन्हें पागल तक करार कर दिया गया, शराब और सिगरेट जिनकी कमज़ोरी थी । भला दोनो में क्या समानता हो सकती है ?
इन दोनों में कोई समानता नज़र आती है आपको ? अगर नहीं आती तो ढूंढिए आपको समानता ज़रूर मिलेगी । हर वो इंसान जो सामने वाले को किसी ना किसी तरीके से कुछ सिखाता है वो बुद्ध है वो मंटो है । सिखाना बड़ी बात नहीं है जनाब, बड़ी बात है सीखना । वो सब जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा गया है उन सबने सीखा है इसीलिए आप उनसे या उनके जीवन से सीखने के तलबग़ार हैं । सिद्धार्थ से गौतम और शरारती से बच्चे से उर्दू का महान कहानीकार मंटो बन जाना आसान नहीं होता दोस्त । किसी को सिखाने के लिए पहले चोट खानी पड़ती है फिर उस चोट से उमड़ी पीड़ा को महसूस करना पड़ता उस पीड़ा को सहेज कर रखना पड़ता है उस पीड़ा से सीखना पड़ता है फिर कोई इंसान सिखाने के काबिल बनता है ।
सिद्धार्थ गौतम जब अपना घर त्याग कर सुख की तराश में निकले तो बहुत यतन किए, कई वर्षों तक बिना अन्न खाए रहे सूख कर हड्डियों की मुट्ठी हो गए मगर वो ना मिला जिसे वो ढूंढ रहे थे । उन्हें मिला तो बस ये सीखने को मिला कि अपनी आत्मा को दुःखी करना उतना ही बड़ा पाप है जितना किसी की आत्मा को पीड़ा पहुंचाना और इस तरह ना हम सुख को पा सकते हैं ना हम ईश्वर को ।
मंटों साहब ने अपनी आँखों के सामने ना जाने कितनी कहानियों को भूख और दर्द से बिलबिलाते देखा, उस दर्द को महसूस किया, उसे सहेजा फिर जा कर उन्हें शब्दों में उतारने की हिम्मत कर पाए । उन्होंने खुल कर लिखा लोगों ने अशलील कहा उन्होंने कहा ये आईना है समाज का लोग चुप हो गए क्योंकि सच में वो अश्लीलता समाज का ही छुपा हुआ घिनौना चेहरा है जिसे मंटो ने सबके सामने रख दिया । उन्होंने बस नंगे को नंगा किया । ज़ाहिर सी बात है जब तक बच्चे को गाली बोल कर बताएंगे नहीं कि ये गाली है तब तक वो जानेगा कैसे कि ये गाली है ।
एक योगी था तपस्वी था महात्मा और लोगों का भगवान भी और दूसरा अय्याश था, शराबी था, धार्मिक आडंबरों की धज्जियाँ उड़ाने वाला था । मगर दोनों ने अपने अपने स्तर और अपने अपने तरीके से समाज को कुछ ना कुछ अच्छा ज़रूर सिखाया । मैं दोनों के व्यक्तित्व की समानता बिलकुल नहीं कर रहा, दोनों ज़मीन और आसमान की तरह अलग अलग हैं । मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमें सिखाना या हम सीखना चाहें तो किसी से भी सीख सकते हैं ।
लेख का अंत एक छोटी सी कहानी से करता हूँ जो मैने किसी के मुँह से सुनी नहीं बल्कि खुद महसूस की है और उस दिन मैं भी कुछ सीख कर ही आया था ।
वृंदावन से प्रवचन सुनाने एक मंडली आई थी शहर में । प्रवचन सुनने के लिए पूरा शहर उमड़ पड़ा था पंडाल में । हर किसी को अपने पाप आज ही धोने थे । मगर अफ़सोस उन्हें सीखना नहीं था बस पाप धोने थे इसीलिए सब प्रवचन को बिना समझे बस सुन रहे थे । प्रवचन से उन्होंने जो पाया वो अंत में यहीं पंडाल में छोड़ जाएंगे ये मैं जानता था क्योंकि मैं भी उन पाप धोने वालों में से ही था शायद या मुझे वो मिल ही नहीं रहा था जिसकी तलाश में मैं वहाँ आया था ।
वहीं प्रवचन सुनने वालों की पंक्ति में एक दस ग्यारह साल का लड़का बैठा था जो अपने पिता के साथ आया था । पिता शायद उसे इस उद्देश्य से लाए ते कि शायद इसके आगे किए जाने वाले पापों का भुग्तान एडवांस में हो जाए । मगर वो बच्चा वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं था । पिता से पेन माँग कर वो सामने अधमरी सी पीली मक्खी को उस पेन से हिला डुला रहा था और वो मक्खी उड़ने की कोशिश कर रही थी । लड़का ग़ौर से मक्खी को देखे जा रहा था । पिता का ध्यान बार बार भटक कर बेटे पर चला जा रहा था मगर वो अभी कुछ बोल भी नहीं सकता था ।
प्रवचन खत्म होने पर जब वो दोनों बाहर आए तो पिता अपने बेटे की हरक़त से परेशान था और बेटा अपने आप में खुश था । पिता से रहा नहीं गया तो आखिर उसने बेटे को ये कह कर टोक ही दिया "मैं तुम्हें यहाँ लाया था कि तुम कुछ सीख सको जो तुम्हारे भविष्य में तुम्हारे काम आए, तुम मन की शांति प्राप्त कर सको, मगर तुम्हारा ध्यान तो यहाँ था ही नहीं ।
बेटा मुस्कुराया और पिता से बोला "पिता जी मैने आज बहुत बड़ी सीख ली है यहाँ से । मैने देखा एक मक्खी जो अधमरी थी, जो रेंग भी नहीं पा रही थी मगर अपनी हिम्मत और निरंतर प्रयास से वो उड़ गई । और ये देख कर मैं बहुत खुश हूँ मेरे मन को बहुत शांति मिली । मैं तो उससे सीखने में इतना मग्न था कि मैने ध्यान ही नहीं दिया कि आप मुझे देख रहे हैं । मगर पिता जी आप इतने अच्छे प्रवचन को सुनने के बाद भी अशांत क्यों हैं ?" पिता के पास कोई जवाब नहीं था । सिवाए अपने बेटे के तरफ गर्व से देखने के ।
धीरज झा
कल बुद्ध पूर्णिमा थी और आज सआदत हसन मंटो का जन्मदिन । दोनों में क्या समानता हो सकती है भला । एक विष्णु अवतार कहे जाने वाले भगवान बुद्ध जिनके करोड़ों अनुयायी हैं जिन्होंने बुद्ध जैसे महान धर्म (वैसे तो इस धर्म के बारे में इतना खास जानता नहीं मैं फिर भी अगर इस धर्म की नींव पर इतने देश खड़े हैं वो धर्म महान ही होगा । भले ही वहाँ के लोगों द्वारा बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को माना जाए या ना जाए मगर महान तो है ही वैसे भी अगर सब अपने धर्म को उतनी बारीकियों से मानने लगें तो हर कोई अपने धर्म के संस्थापक जैसा ही ना बन जाएगा) स्थापना की । और दूसरी तरफ़ मंटों साहब जिनके कई कहानियों पर अश्लीलता फैलाने के आरोप लगे । जिन्हें पागल तक करार कर दिया गया, शराब और सिगरेट जिनकी कमज़ोरी थी । भला दोनो में क्या समानता हो सकती है ?
इन दोनों में कोई समानता नज़र आती है आपको ? अगर नहीं आती तो ढूंढिए आपको समानता ज़रूर मिलेगी । हर वो इंसान जो सामने वाले को किसी ना किसी तरीके से कुछ सिखाता है वो बुद्ध है वो मंटो है । सिखाना बड़ी बात नहीं है जनाब, बड़ी बात है सीखना । वो सब जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा गया है उन सबने सीखा है इसीलिए आप उनसे या उनके जीवन से सीखने के तलबग़ार हैं । सिद्धार्थ से गौतम और शरारती से बच्चे से उर्दू का महान कहानीकार मंटो बन जाना आसान नहीं होता दोस्त । किसी को सिखाने के लिए पहले चोट खानी पड़ती है फिर उस चोट से उमड़ी पीड़ा को महसूस करना पड़ता उस पीड़ा को सहेज कर रखना पड़ता है उस पीड़ा से सीखना पड़ता है फिर कोई इंसान सिखाने के काबिल बनता है ।
सिद्धार्थ गौतम जब अपना घर त्याग कर सुख की तराश में निकले तो बहुत यतन किए, कई वर्षों तक बिना अन्न खाए रहे सूख कर हड्डियों की मुट्ठी हो गए मगर वो ना मिला जिसे वो ढूंढ रहे थे । उन्हें मिला तो बस ये सीखने को मिला कि अपनी आत्मा को दुःखी करना उतना ही बड़ा पाप है जितना किसी की आत्मा को पीड़ा पहुंचाना और इस तरह ना हम सुख को पा सकते हैं ना हम ईश्वर को ।
मंटों साहब ने अपनी आँखों के सामने ना जाने कितनी कहानियों को भूख और दर्द से बिलबिलाते देखा, उस दर्द को महसूस किया, उसे सहेजा फिर जा कर उन्हें शब्दों में उतारने की हिम्मत कर पाए । उन्होंने खुल कर लिखा लोगों ने अशलील कहा उन्होंने कहा ये आईना है समाज का लोग चुप हो गए क्योंकि सच में वो अश्लीलता समाज का ही छुपा हुआ घिनौना चेहरा है जिसे मंटो ने सबके सामने रख दिया । उन्होंने बस नंगे को नंगा किया । ज़ाहिर सी बात है जब तक बच्चे को गाली बोल कर बताएंगे नहीं कि ये गाली है तब तक वो जानेगा कैसे कि ये गाली है ।
एक योगी था तपस्वी था महात्मा और लोगों का भगवान भी और दूसरा अय्याश था, शराबी था, धार्मिक आडंबरों की धज्जियाँ उड़ाने वाला था । मगर दोनों ने अपने अपने स्तर और अपने अपने तरीके से समाज को कुछ ना कुछ अच्छा ज़रूर सिखाया । मैं दोनों के व्यक्तित्व की समानता बिलकुल नहीं कर रहा, दोनों ज़मीन और आसमान की तरह अलग अलग हैं । मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमें सिखाना या हम सीखना चाहें तो किसी से भी सीख सकते हैं ।
लेख का अंत एक छोटी सी कहानी से करता हूँ जो मैने किसी के मुँह से सुनी नहीं बल्कि खुद महसूस की है और उस दिन मैं भी कुछ सीख कर ही आया था ।
वृंदावन से प्रवचन सुनाने एक मंडली आई थी शहर में । प्रवचन सुनने के लिए पूरा शहर उमड़ पड़ा था पंडाल में । हर किसी को अपने पाप आज ही धोने थे । मगर अफ़सोस उन्हें सीखना नहीं था बस पाप धोने थे इसीलिए सब प्रवचन को बिना समझे बस सुन रहे थे । प्रवचन से उन्होंने जो पाया वो अंत में यहीं पंडाल में छोड़ जाएंगे ये मैं जानता था क्योंकि मैं भी उन पाप धोने वालों में से ही था शायद या मुझे वो मिल ही नहीं रहा था जिसकी तलाश में मैं वहाँ आया था ।
वहीं प्रवचन सुनने वालों की पंक्ति में एक दस ग्यारह साल का लड़का बैठा था जो अपने पिता के साथ आया था । पिता शायद उसे इस उद्देश्य से लाए ते कि शायद इसके आगे किए जाने वाले पापों का भुग्तान एडवांस में हो जाए । मगर वो बच्चा वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं था । पिता से पेन माँग कर वो सामने अधमरी सी पीली मक्खी को उस पेन से हिला डुला रहा था और वो मक्खी उड़ने की कोशिश कर रही थी । लड़का ग़ौर से मक्खी को देखे जा रहा था । पिता का ध्यान बार बार भटक कर बेटे पर चला जा रहा था मगर वो अभी कुछ बोल भी नहीं सकता था ।
प्रवचन खत्म होने पर जब वो दोनों बाहर आए तो पिता अपने बेटे की हरक़त से परेशान था और बेटा अपने आप में खुश था । पिता से रहा नहीं गया तो आखिर उसने बेटे को ये कह कर टोक ही दिया "मैं तुम्हें यहाँ लाया था कि तुम कुछ सीख सको जो तुम्हारे भविष्य में तुम्हारे काम आए, तुम मन की शांति प्राप्त कर सको, मगर तुम्हारा ध्यान तो यहाँ था ही नहीं ।
बेटा मुस्कुराया और पिता से बोला "पिता जी मैने आज बहुत बड़ी सीख ली है यहाँ से । मैने देखा एक मक्खी जो अधमरी थी, जो रेंग भी नहीं पा रही थी मगर अपनी हिम्मत और निरंतर प्रयास से वो उड़ गई । और ये देख कर मैं बहुत खुश हूँ मेरे मन को बहुत शांति मिली । मैं तो उससे सीखने में इतना मग्न था कि मैने ध्यान ही नहीं दिया कि आप मुझे देख रहे हैं । मगर पिता जी आप इतने अच्छे प्रवचन को सुनने के बाद भी अशांत क्यों हैं ?" पिता के पास कोई जवाब नहीं था । सिवाए अपने बेटे के तरफ गर्व से देखने के ।
धीरज झा
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