किसी को खो देने से अच्छा है कि इंतज़ार कर लें किस्मत से लड़ रहा इंसान असल में सिर्फ किस्मत से नहीं लड़ रहा होता वो किस्मत के साथ साथ लड़ रहा ...
किसी को खो देने से अच्छा है कि इंतज़ार कर लें
किस्मत से लड़ रहा इंसान असल में सिर्फ किस्मत से नहीं लड़ रहा होता वो किस्मत के साथ साथ लड़ रहा होता है अपने घरवालों से, अपने नाते रिश्तेदारों से, अपने आस पड़ोस से उठने वाले सवालों से ।
इस लड़ाई में "कोई कुछ कह ना दे" का डर दिमाग पर इस तरह से सवार हो जाता है कि इंसान अपने ही घर में खाना भी भूख से दो रोटी कम ही खाता है । हर वक्त डर लगा रहता है कि कहीं उसके प्रति किसी वक्त में इतना प्यार दिखाने वाले अपने, ऐसे मुश्किल दौर में उसके बारे में कुछ गलता सोच लें । कहीं उसके घर का कमाऊ सदस्य उसको बेरोज़गार हो कर घर में बैठा रोटियाँ तोड़ने का ताना ना सुना दे ।
घर वालों का मन ही मन कूढ़ना जायज़ भी है, हर किसी को अपने बेटे अपने भाई से उम्मीद होती है कि वो कुछ अच्छा करे कुछ कमाए घर की बिगड़ती हालत को सुधारे, महंगाई से लड़ते लड़ते थक चुके बाप को अब आराम दे, गृहस्ती का भार अब अपने कंधों पर उठाए । और जब ये सब उम्मीदें पूरी होती हुई नहीं दिखतीं तो हर बाप हर माँ हर भाई का थोड़ा नाराज़ होना तो लाज़मी है ।
मगर एक बात जो है वो कोई नहीं समझता और वो ये कि वो इंसान जो इन सब की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा, वो सबसे ज़्यादा खुद से ही नाराज़ है, उसकी सबसे बड़ी लड़ाई खुद के साथ ही है, वो हर दिन खुद से ही ना उम्मीद होता चला जा रहा है । हर बुरा या अच्छा इंसान देश समाज के लिए सोचे ना सोचे मगर अपने घर के लिए या अपने लिए तो सोचता ही है । परोपकारी भले ना हो मगर स्वार्थी तो होता ही है । किसी की परवाह करे ना करे मगर अपनी तो करता ही है । उसे सबसे ज़्यादा भरोसा खुद पर होता है कि वो किसी के लिए कुछ करे ना करे मगर अपना भविष्य तो सुधार ही लेगा ।
जो इंसान इतना सोच रहा है क्या वो हाथ पैर नहीं मार रहा होगा अपने तरीके से ? क्या उसके मन में ये नहीं चल रहा होगा कि वो भी कुछ करे जिस से चार पैसे कमा सके जिससे वो सारे शौख़ पूरे कर सके जिनके लिए उसे हर रोज़ अपना मन मारना पड़ता है । दो बार हट हट कहने पर कुत्ता भी उस जगह से उठ खड़ा होता है तो क्या आपको नहीं लगता वो इंसान घर पर बैठा बैठा ऊब नहीं गया होगा सबके ताने सुन कर ।
मगर सब कुछ उसके हाथ में नहीं होता । वो हर बार पूरे मन से ही कोशिश करता है मगर हर बार समय उसकी कोशिश को ये कह कर नकार देता है कि अभी आराम कर, अभी तेरा वक्त नहीं आया । वो क्या करे ? कहाँ जाए ? सब कुछ अपने हाथ में होता तो दुनिया में हर इंसान खुश होता । किसी ना किसी कारण से दुःखी तो यहाँ सब हैं बस फर्क इतना है किसी को थोड़ा मिल गया और कोई थोड़ा पाने के लिए अभी भी हाथ पैर मार रहा है ।
अगर आपके आसपास कोई भी ऐसा है तो उसे ताने मारने या उससे मुँह फुला लेने से अच्छा है कि उसे समझिए, उसे हौंसला दीजिए, उसकी कोशिशों को और मज़बूत बनाने में उसकी मदद करिए । याद रखिए झोंपड़ियाँ जल्दी तैयार हो जाती हैं मगर महल बनने में वक्त लगता है । कहीं ऐसा ना हो कि आपके ताने किसी के भविष्य में बनने वाले महल को बनने से पहले ही तोड़ दें । हर इंसान अपनी नियती तय करवा के लाया है उस नियती पर ना आपका ज़ोर है ना उसका खुद का । किसी को खो देने से अच्छा है इंतज़ार कर लें । भूखा कोई नहीं मरना चाहता, जब थक जाएगा किस्मत से लड़ते लड़ते, जब भूख उसे सताएगी, जब वो बुरी तरह से टूट जाएगा तो मज़दूरी भी करेगा, बस आप हौंसला देते रहिए । कोशिशें रंग ज़रूर आएंगी ।
धीरज झा
किस्मत से लड़ रहा इंसान असल में सिर्फ किस्मत से नहीं लड़ रहा होता वो किस्मत के साथ साथ लड़ रहा होता है अपने घरवालों से, अपने नाते रिश्तेदारों से, अपने आस पड़ोस से उठने वाले सवालों से ।
इस लड़ाई में "कोई कुछ कह ना दे" का डर दिमाग पर इस तरह से सवार हो जाता है कि इंसान अपने ही घर में खाना भी भूख से दो रोटी कम ही खाता है । हर वक्त डर लगा रहता है कि कहीं उसके प्रति किसी वक्त में इतना प्यार दिखाने वाले अपने, ऐसे मुश्किल दौर में उसके बारे में कुछ गलता सोच लें । कहीं उसके घर का कमाऊ सदस्य उसको बेरोज़गार हो कर घर में बैठा रोटियाँ तोड़ने का ताना ना सुना दे ।
घर वालों का मन ही मन कूढ़ना जायज़ भी है, हर किसी को अपने बेटे अपने भाई से उम्मीद होती है कि वो कुछ अच्छा करे कुछ कमाए घर की बिगड़ती हालत को सुधारे, महंगाई से लड़ते लड़ते थक चुके बाप को अब आराम दे, गृहस्ती का भार अब अपने कंधों पर उठाए । और जब ये सब उम्मीदें पूरी होती हुई नहीं दिखतीं तो हर बाप हर माँ हर भाई का थोड़ा नाराज़ होना तो लाज़मी है ।
मगर एक बात जो है वो कोई नहीं समझता और वो ये कि वो इंसान जो इन सब की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा, वो सबसे ज़्यादा खुद से ही नाराज़ है, उसकी सबसे बड़ी लड़ाई खुद के साथ ही है, वो हर दिन खुद से ही ना उम्मीद होता चला जा रहा है । हर बुरा या अच्छा इंसान देश समाज के लिए सोचे ना सोचे मगर अपने घर के लिए या अपने लिए तो सोचता ही है । परोपकारी भले ना हो मगर स्वार्थी तो होता ही है । किसी की परवाह करे ना करे मगर अपनी तो करता ही है । उसे सबसे ज़्यादा भरोसा खुद पर होता है कि वो किसी के लिए कुछ करे ना करे मगर अपना भविष्य तो सुधार ही लेगा ।
जो इंसान इतना सोच रहा है क्या वो हाथ पैर नहीं मार रहा होगा अपने तरीके से ? क्या उसके मन में ये नहीं चल रहा होगा कि वो भी कुछ करे जिस से चार पैसे कमा सके जिससे वो सारे शौख़ पूरे कर सके जिनके लिए उसे हर रोज़ अपना मन मारना पड़ता है । दो बार हट हट कहने पर कुत्ता भी उस जगह से उठ खड़ा होता है तो क्या आपको नहीं लगता वो इंसान घर पर बैठा बैठा ऊब नहीं गया होगा सबके ताने सुन कर ।
मगर सब कुछ उसके हाथ में नहीं होता । वो हर बार पूरे मन से ही कोशिश करता है मगर हर बार समय उसकी कोशिश को ये कह कर नकार देता है कि अभी आराम कर, अभी तेरा वक्त नहीं आया । वो क्या करे ? कहाँ जाए ? सब कुछ अपने हाथ में होता तो दुनिया में हर इंसान खुश होता । किसी ना किसी कारण से दुःखी तो यहाँ सब हैं बस फर्क इतना है किसी को थोड़ा मिल गया और कोई थोड़ा पाने के लिए अभी भी हाथ पैर मार रहा है ।
अगर आपके आसपास कोई भी ऐसा है तो उसे ताने मारने या उससे मुँह फुला लेने से अच्छा है कि उसे समझिए, उसे हौंसला दीजिए, उसकी कोशिशों को और मज़बूत बनाने में उसकी मदद करिए । याद रखिए झोंपड़ियाँ जल्दी तैयार हो जाती हैं मगर महल बनने में वक्त लगता है । कहीं ऐसा ना हो कि आपके ताने किसी के भविष्य में बनने वाले महल को बनने से पहले ही तोड़ दें । हर इंसान अपनी नियती तय करवा के लाया है उस नियती पर ना आपका ज़ोर है ना उसका खुद का । किसी को खो देने से अच्छा है इंतज़ार कर लें । भूखा कोई नहीं मरना चाहता, जब थक जाएगा किस्मत से लड़ते लड़ते, जब भूख उसे सताएगी, जब वो बुरी तरह से टूट जाएगा तो मज़दूरी भी करेगा, बस आप हौंसला देते रहिए । कोशिशें रंग ज़रूर आएंगी ।
धीरज झा
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