मुस्कुराता समय "सर प्लीज़, फोन मत काटिएगा पहले मेरी बात सुन लीजिए । मेरे पास बेहतरीन आईडिया है । आप बड़े लेखक हैं थोड़ी मदद कर देंगे तो...
मुस्कुराता समय
"सर प्लीज़, फोन मत काटिएगा पहले मेरी बात सुन लीजिए । मेरे पास बेहतरीन आईडिया है । आप बड़े लेखक हैं थोड़ी मदद कर देंगे तो......" बात आधे में काट दी गई ।
"मैं अगर सभ्य तरीके से कह रहा हूँ तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम्हें सर पर चढ़ने दूँ । कितनी बार कह दिया तुमसे की व्यस्त रहता हूँ मैं वक्त बे वक्त फोन कर के परेशान मत किया करो । तुम्हारी बेफज़ूल बातों की वजह से मेरे तीन मिनट बर्बाद हो गए । अब दोबारा फोन किया तो बुरा हाल कर दूंगा....(फोन कट) ना जाने कहाँ कहाँ से चले आते हैं भूखे नंगे लोग जैसे सबका ठेका मैने ही ले रखा है ।"
फोन कट जाने पर भी कुछ देर तक फोन कान से ही लगा रहा विरेन्द्र जी के । आँखों में बेबसी के आँसूओं में तैरते उस चिट्ठी के टुकड़े थे जिसमें पड़ोसी ने लिखा था "माँ बहुत बीमार है, जल्दी इलाज ना हुआ तो कुछ भी हो सकता है ।"
माँ ज़्यादा इंतज़ार ना कर पाई, वीरेन्द्र के पहुंचने से पहले ही चली गईं । जान से प्यारी माँ के चले जाने पर भी वीरेन्द्र की आँखों में हल्की सी नमी तक नहीं थी, उसकी सूखी आँखों को देख कर ऐसा लग रहा हो मानों भीषण अकाल के कारण ज़मीन में दरारें पड़ गई हों ।
वक्त बीतता गया, समय के साथ साथ विरेन्द्र जी भी बदलते चला गए । अब विरेन्द्र जी में एक आग सी जलने लगी थी जिसका लक्ष्य था अपनी बेबसी और लाचारी को मिटा देना ।
बारह साल के कठिन संघर्ष के बाद विरेन्द्र जी की मेहनत रंग लाई और वो एक सफल और नामी लेखक बन गया । जिन्होंने उनका फोन बुरे शब्दों की भेंट के साथ काटा था वो अब बीता कल बन कर आज के लेखक विरेन्द्र को हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं और विरेन्द्र उस प्रणाम के जवाब में हर बार उसकी हालत पर मुस्कुरा देते हैं ।
विरेन्द्र जी एक मीटिंग में जाने के लिए तैयार बैठे थे दो चार और माननीयजन उनके साथ थे । इसी बीच उनके मोबाईल पर बार बार किसी का फोन आ रहा था और वो हर बार काट देते थे । दास जी ने पूछ लिया कि किसका फोन आ रहा है जो आप बार बार काट दे रहे हैं ।
विरेंन्द्र जी थोड़ी घमण्डी मुस्कान के साथ बोले "है कोई बेकार आदमीं, एक सम्मेलन में दो मिनट की मुलाकात हुई और फिर कहीं सेएरा नंबर लेकर रोज़ फोन कर देता है । अब इन जैसों की फालतू बातें सुनता रहूँ तो फिर सब काम धंधा छोड़ कर घर पर ही बैठना पड़ेगा । पता नहीं कहाँ कहाँ से चले आते हैं भूखे नंगे लोग, जैसे सबका ठेका मैने ही ले रखा है ।"
विरेन्द्र जी की बात सुन कर समय एक कोने में खड़ा मुस्कुरा रहा था । ये पता नहीं कि समय अपने भूत को याद कर के मुस्कुरा रहा था या अपने भविष्य को देख कर ।
धीरज झा
"सर प्लीज़, फोन मत काटिएगा पहले मेरी बात सुन लीजिए । मेरे पास बेहतरीन आईडिया है । आप बड़े लेखक हैं थोड़ी मदद कर देंगे तो......" बात आधे में काट दी गई ।
"मैं अगर सभ्य तरीके से कह रहा हूँ तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम्हें सर पर चढ़ने दूँ । कितनी बार कह दिया तुमसे की व्यस्त रहता हूँ मैं वक्त बे वक्त फोन कर के परेशान मत किया करो । तुम्हारी बेफज़ूल बातों की वजह से मेरे तीन मिनट बर्बाद हो गए । अब दोबारा फोन किया तो बुरा हाल कर दूंगा....(फोन कट) ना जाने कहाँ कहाँ से चले आते हैं भूखे नंगे लोग जैसे सबका ठेका मैने ही ले रखा है ।"
फोन कट जाने पर भी कुछ देर तक फोन कान से ही लगा रहा विरेन्द्र जी के । आँखों में बेबसी के आँसूओं में तैरते उस चिट्ठी के टुकड़े थे जिसमें पड़ोसी ने लिखा था "माँ बहुत बीमार है, जल्दी इलाज ना हुआ तो कुछ भी हो सकता है ।"
माँ ज़्यादा इंतज़ार ना कर पाई, वीरेन्द्र के पहुंचने से पहले ही चली गईं । जान से प्यारी माँ के चले जाने पर भी वीरेन्द्र की आँखों में हल्की सी नमी तक नहीं थी, उसकी सूखी आँखों को देख कर ऐसा लग रहा हो मानों भीषण अकाल के कारण ज़मीन में दरारें पड़ गई हों ।
वक्त बीतता गया, समय के साथ साथ विरेन्द्र जी भी बदलते चला गए । अब विरेन्द्र जी में एक आग सी जलने लगी थी जिसका लक्ष्य था अपनी बेबसी और लाचारी को मिटा देना ।
बारह साल के कठिन संघर्ष के बाद विरेन्द्र जी की मेहनत रंग लाई और वो एक सफल और नामी लेखक बन गया । जिन्होंने उनका फोन बुरे शब्दों की भेंट के साथ काटा था वो अब बीता कल बन कर आज के लेखक विरेन्द्र को हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं और विरेन्द्र उस प्रणाम के जवाब में हर बार उसकी हालत पर मुस्कुरा देते हैं ।
विरेन्द्र जी एक मीटिंग में जाने के लिए तैयार बैठे थे दो चार और माननीयजन उनके साथ थे । इसी बीच उनके मोबाईल पर बार बार किसी का फोन आ रहा था और वो हर बार काट देते थे । दास जी ने पूछ लिया कि किसका फोन आ रहा है जो आप बार बार काट दे रहे हैं ।
विरेंन्द्र जी थोड़ी घमण्डी मुस्कान के साथ बोले "है कोई बेकार आदमीं, एक सम्मेलन में दो मिनट की मुलाकात हुई और फिर कहीं सेएरा नंबर लेकर रोज़ फोन कर देता है । अब इन जैसों की फालतू बातें सुनता रहूँ तो फिर सब काम धंधा छोड़ कर घर पर ही बैठना पड़ेगा । पता नहीं कहाँ कहाँ से चले आते हैं भूखे नंगे लोग, जैसे सबका ठेका मैने ही ले रखा है ।"
विरेन्द्र जी की बात सुन कर समय एक कोने में खड़ा मुस्कुरा रहा था । ये पता नहीं कि समय अपने भूत को याद कर के मुस्कुरा रहा था या अपने भविष्य को देख कर ।
धीरज झा
COMMENTS