"अरे जनाब बेटा बड़ा हो गया है अब शादी कर दीजिए इसकी भाभी को भी आराम मिल जाएगा । अब उम्र हो चली है अकेले कितना करेंगी ।" पड़ोसी हो य...
"अरे जनाब बेटा बड़ा हो गया है अब शादी कर दीजिए इसकी भाभी को भी आराम मिल जाएगा । अब उम्र हो चली है अकेले कितना करेंगी ।" पड़ोसी हो या रिश्तेदार हर किसी को यही फिक्र होती है । माँ बाप के अरमान से ले कर नाते रिश्तेदारों की खुशियाँ सब इसी शादी से जुड़ी हैं । हमारे देश में शायद इससे बड़ा खुशी का कोई और दिन नहीं होता जिसमें एक साथ अनगिनत लोग एक साथ खुश होते हैं । दो अंजान लोगों का ज़िंदगी के नए सफ़र पर एक साथ चलने का नाम शादी है । बात सिर्फ आबादी बढ़ाने की होती तो उसके और भी तरीके थे । एक शक्स के साथ ही सारी उम्र गुज़ारना कोई ज़रूरी तो नहीं था । जानवरों की शादी नहीं होती मगर उनकी आबादी भी तो बढ़ ही रही है । मगर हम इंसान हैं ईश्वर अल्लाह खुदा गाॅड जिसे भी आप मानते हैं उसकी सबसे अनमोल रचना हैं हम, कुछ तो ख़ास होना चाहिए हम में ।
हमारी सोच, हमारे जीने का ढंग, हमारे बुज़ुर्गों द्वारा बनाए नियम यही सब हमें जानवरों से अलग ला कर खड़ा करता है । इन्हीं नियमों में से एक है शादी का नियम । जो हर इंसान मानता है । शादी के नाम पर जिसका हाथ पकड़ लिया उसे बीच रास्ते बेमतलब छोड़ना नियमों का उलंघन है । मगर यहाँ तो तीन बार तलाक कह देने भर से शादियाँ टूट जाती हैं बिना ये सोचे कि एक माँ जो असहाय है वो खुद को और अपने बच्चों को आगे कैसे पालेगी । शादियाँ और धर्मों में भी टूट रही हैं मगर उनके लिए अलग कानून है, सुनवाई होती है, तलाक के बाद पत्नी को मुआवज़ा मिलता है भले ही तलाक़ की वजह वो खुद ही हो । मगर जैसे भी हो उसे अपना और अपने बच्चों का जीवन चलाने के लिए पति की तरफ़ से मुआवज़ा दिया जाता है । अगर सब हर जगह यह कानून है तो भला तीन तलाक पर रियायत क्यों ?
आज सुप्रीम कोर्ट ने केस की सुनवाई के दौरान यह बात कही कि अगर तीन तलाक धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी । क्या धर्म के नाम पर अधर्म जायज है ? जो शक्स छोटी सी वजह से तीन तलाक दे रहा होता है क्या वो एक बार नहीं सोचता कि उसके पिता ने भी उनकी माँ के साथ ऐसा ही कुछ किया होता तो शायद आज वो इस काबिल ना होता । धर्म कभी भी गलत नहीं होता, उसे गलत बनाते हैं वो लोग जो इस धर्म से जुड़े हैं ।
यदि कोर्ट धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करना सही नहीं समझता फिर तो बाबरी मस्जिद का धर्म के नाम पर गिर जाना भी सही है, राम मंदिर को बनाने का आदेश देना भी सही है । गोधरा और मुज़्जफरनगर भी सही हैं, अख्लाक और पहलू खाँ की मौतें भी सही हैं । ये सब भी तो धर्म के मामले ही हैं फिर कोर्ट का इन मामलों में हस्तक्षेप क्यों ? फिर तो धर्म के नाम पर कुछ भी किए जाने के लिए हर इंसान आज़ाद है ।
हँसी आती है जब मूर्ती पूजा को पाखंड बता कर लोग तीन तलाक़ के मुद्दे को जायज़ ठहराने की माँग करते हैं । दुनिया चाँद पर घर बनाने के जुगाड़ में लगी हुई है और हमारा देश अभी भी बुर्का, घूंघट, तीन तलाक़ और एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने के मुद्दों को जायज़ नाजायज़ बताने के लिए लड़ रहा है । किसी ने फोन पर तीन तलाक़ कह दिया किसी ने कागज़ पर तीन बार तलाक़ लिख दिया और टूट गई शादी बिना ये सोचे कि एक बेसहारा औरत अपने बच्चों को ले कर कहाँ कहाँ भटकेगी, कैसे पालेगी खुद का और अपने बच्चों का पेट ।
गलत मुद्दा किसी भी धर्म का हो उसके खिलाफ़ आवाज़ उठनी चाहिए और सबसे पहले उसी के धर्म से उठनी चाहिए । आप तिलक लगाएं या टोपी पहनें, भजन सुने या आज़ान सुनें, नमाज़ पढ़ें या गीता पाठ पढ़ें ये सब आपका व्यक्तिगत मामला है मगर जहाँ बात किसी को बिना बात बर्बाद कर देने की बात आ जाती है वह मामला पूरे देश का हो जाता है । फिर भी आपको लगता है कि यह फैसला सही है तीन तलाक़ या इस जैसे बाकि कोई भी धार्मिक आडंबर जायज़ हैं तो फिर अफ़सोस आप खुद से ही अपना सत्यानाश कर रहे हैं ।
धीरज झा
हमारी सोच, हमारे जीने का ढंग, हमारे बुज़ुर्गों द्वारा बनाए नियम यही सब हमें जानवरों से अलग ला कर खड़ा करता है । इन्हीं नियमों में से एक है शादी का नियम । जो हर इंसान मानता है । शादी के नाम पर जिसका हाथ पकड़ लिया उसे बीच रास्ते बेमतलब छोड़ना नियमों का उलंघन है । मगर यहाँ तो तीन बार तलाक कह देने भर से शादियाँ टूट जाती हैं बिना ये सोचे कि एक माँ जो असहाय है वो खुद को और अपने बच्चों को आगे कैसे पालेगी । शादियाँ और धर्मों में भी टूट रही हैं मगर उनके लिए अलग कानून है, सुनवाई होती है, तलाक के बाद पत्नी को मुआवज़ा मिलता है भले ही तलाक़ की वजह वो खुद ही हो । मगर जैसे भी हो उसे अपना और अपने बच्चों का जीवन चलाने के लिए पति की तरफ़ से मुआवज़ा दिया जाता है । अगर सब हर जगह यह कानून है तो भला तीन तलाक पर रियायत क्यों ?
आज सुप्रीम कोर्ट ने केस की सुनवाई के दौरान यह बात कही कि अगर तीन तलाक धर्म का मामला है तो कोर्ट इसमें दखल नहीं देगी । क्या धर्म के नाम पर अधर्म जायज है ? जो शक्स छोटी सी वजह से तीन तलाक दे रहा होता है क्या वो एक बार नहीं सोचता कि उसके पिता ने भी उनकी माँ के साथ ऐसा ही कुछ किया होता तो शायद आज वो इस काबिल ना होता । धर्म कभी भी गलत नहीं होता, उसे गलत बनाते हैं वो लोग जो इस धर्म से जुड़े हैं ।
यदि कोर्ट धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करना सही नहीं समझता फिर तो बाबरी मस्जिद का धर्म के नाम पर गिर जाना भी सही है, राम मंदिर को बनाने का आदेश देना भी सही है । गोधरा और मुज़्जफरनगर भी सही हैं, अख्लाक और पहलू खाँ की मौतें भी सही हैं । ये सब भी तो धर्म के मामले ही हैं फिर कोर्ट का इन मामलों में हस्तक्षेप क्यों ? फिर तो धर्म के नाम पर कुछ भी किए जाने के लिए हर इंसान आज़ाद है ।
हँसी आती है जब मूर्ती पूजा को पाखंड बता कर लोग तीन तलाक़ के मुद्दे को जायज़ ठहराने की माँग करते हैं । दुनिया चाँद पर घर बनाने के जुगाड़ में लगी हुई है और हमारा देश अभी भी बुर्का, घूंघट, तीन तलाक़ और एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने के मुद्दों को जायज़ नाजायज़ बताने के लिए लड़ रहा है । किसी ने फोन पर तीन तलाक़ कह दिया किसी ने कागज़ पर तीन बार तलाक़ लिख दिया और टूट गई शादी बिना ये सोचे कि एक बेसहारा औरत अपने बच्चों को ले कर कहाँ कहाँ भटकेगी, कैसे पालेगी खुद का और अपने बच्चों का पेट ।
गलत मुद्दा किसी भी धर्म का हो उसके खिलाफ़ आवाज़ उठनी चाहिए और सबसे पहले उसी के धर्म से उठनी चाहिए । आप तिलक लगाएं या टोपी पहनें, भजन सुने या आज़ान सुनें, नमाज़ पढ़ें या गीता पाठ पढ़ें ये सब आपका व्यक्तिगत मामला है मगर जहाँ बात किसी को बिना बात बर्बाद कर देने की बात आ जाती है वह मामला पूरे देश का हो जाता है । फिर भी आपको लगता है कि यह फैसला सही है तीन तलाक़ या इस जैसे बाकि कोई भी धार्मिक आडंबर जायज़ हैं तो फिर अफ़सोस आप खुद से ही अपना सत्यानाश कर रहे हैं ।
धीरज झा
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