तीन दिन पहले मैं एक बड़े रहस्य को जान आया मगर आश्चर्य यह था कि जब मैने फिल्म देखना शुरू किया तो मैं भूल गया कि मैं किस उदेश्य से फिल्म देखने ...
तीन दिन पहले मैं एक बड़े रहस्य को जान आया मगर आश्चर्य यह था कि जब मैने फिल्म देखना शुरू किया तो मैं भूल गया कि मैं किस उदेश्य से फिल्म देखने आया था मैं बस खो सा गया था उस बड़े से पर्दे के बीच आँखें गड़ा कर । खैर मेरी प्रतिक्रिया क्या रही यह फिल्म देख कर यह बाद में बताऊंगा उससे पहले कुछ इधर उधर की बातें कर लें ।
बदलती दुनिया और आधुनिक संसाधनों के साथ साथ खुद को उसी परिवेष में ढालना कतई गलत नहीं अगर यह गलत है तो मेरा फोन पर यह पोस्ट लिखना आपका इस पोस्ट को पढ़ना, घर में शौचालय बनवाना, कुर्सी पर बैठ कर खाना, खरीदे कपड़े पहनना और ना जाने क्या कुछ गलत है । यही नहीं अगर इंसान इसी तरह ज़माने के साथ ढला ना होता तो आज भी बनमानुख ही होता ।
हाँ मगर इस बदलाव में उस एक बात का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है जिसे लोग नकारते चले जा रहे हैं और वो ये है कि इतने बदलावों के बावजूद भी अपनी संस्कृति को मरने ना देना । पर अफ़सोस हमारी ही लापरवाही और नज़रअंदाज़गी की वजह से संस्कृति बूढ़ी हो चुकी है और ऐसा ही रहा तो शायद जल्द ही आने वाले कुछ वर्षों में दम भी तोड़ दे । और आप सहमत हों या ना हों मगर यह सत्य है कि पश्चिमी सभ्यता की बेहद बुरी नकल कर रही भारतीय फिल्म जगत की बहुत सी फिल्मों का हाथ रहा है हमारी संस्कृति की ऐसी दुर्गति करने में ।
लोग यह बात भूल जाते हैं कि जो इंसान अपनी मूल जड़ों से कट जाता है वह कहीं का नहीं रहता । आज के समय में हमें अपनी संस्कृति के बारे में बात करना उबाऊ और ओल्ड फैशनड लगता है मगर हम भूल जाते हैं कि नया कुछ भी नहीं जिस ज़माने को हम नया कह रहे हैं कल को यह भी पुराना ही होने वाला है । जो कल को आज साथ ले कर चल रहा है उसी का कल उसे साथ लेकर चलेगा वरना आप आज आज में ही मिट्टी हो जाएंगे ।
आप कितनी भी नकल कर लें मगर जो असल है उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जो मेरी उम्र के हैं उन सबको अपना बच्चपन तो अच्छे से याद होगा और साथ ही साथ रविवार के बारह बजे दूरदर्शन पर बजने वाला वो संगीत "अद्भुत अदम्य और साहस की परिभाषा है वो मिटती मानवता की इक आशा है, शक्तिमान शक्तिमान" भी याद होगा । बच्चों सहित बड़ों के दिलों की धड़कन बन गया था शक्तिमान । इस समय मोहल्ले की गलियाँ सुनसान पड़ जाती थीं, हर कोई आपको टी वी के आगे बैठा दिखता था । वो पंच तत्व की बातें वो शक्तिमान का हर बार अंत में बच्चों को नया संदेश देना बहुत अलग सा आनंद देता था । शक्तिमान के बाद बहुत से देसी सूपर हीरो आए मगर शक्तिमान कोई ना बन पाया खुद मुकेश खन्ना भी आर्यमान बन कर शक्तिमान की छाप बच्चों के दिलों से मिटा नहीं पाए । जानते हैं ऐसा क्यों था ? क्योंकि वो एक देसी और असल सोच थी उसमें नकल नहीं थी ।
हम सब जानते हैं फिल्में झूठ हैं एकदम झूठ कोई पहाड़ से नहीं कूदता कोई अकेला पूरी फौज क्या चार लोगों को भी बिना एक खंरोच आए मार नहीं सकता, ये सब इफेक्ट हैं सब कंप्यूटर का कभाल है सब आधुनिक तकनीकों का कमाल है । बढ़िया बात है भई खुद को बेहतर बनाने के लिए अगर खुद के रहन सहन को जामाने के साथ बदलना पड़े तो बुरा क्या है इसमें । मगर बात ये है कि अगर उस बदलाव को अगर हम अपनी संस्कृति को जीवित करने के उदेश्य से उपयोग करें तो कितना बेहतर होगा । अपनी संस्कृति को जानने का मतलब उसे जीना नहीं होता । हमें बस जानना है कि हमारे बड़े बुजुर्ग कैसे थे? हमारा इतिहास क्या था ? क्या हम उस राह पर चल भी रहे हैं जिसे हमारी संस्कृति ने तैयार किया था हमारे लिए ।
बाहुबली फिल्म आपको यही समझाती है । हम सब जानते हैं कि ये सब झूठ है सब झूठ है प्रभास द्वारा किया हर सीन झूठ है उसकी तलवार का चलना झूठ है गाजर मूली की तरह शत्रुओं का कटना झूठ है, एक एक दृष्य झूठ है सच है तो वह उदेश्य जिस उदेश्य से फिल्म बनाई गई सच है तो वो गौरवशाली इतिहास जिसका वर्णन इस फिल्म में है, सच है तो वो संस्कृति जिसके जीवित होने का प्रमाण हमें यह फिल्म देख कर मिलता है ।
आज हर तरफ़ औरत की सुरक्षा के लिए आवाज़ बुलंद की जा रही है मगर सब वैसा का वैसा ही है दरिंदे अपनी भूख मिटाने के लिए मासूम लड़कियों का शिकार कर रहे।हैं कानून सबूत के अभाव में उन्हें छोड़ रहा है । सिनेमा हाॅल पूरा भरा रहता है ये फिल्म देखने के लिए । सीन चलता है, देवसेना बेञियों में जकड़ी खड़ी है सेनापति उस पर झूठा इल्ज़ाम मढ़े जा रहा है । बाहुबली आता है देवसेना से पूछता है क्या हुआ था बताओ । देवसेना बताती है कि कैसे उसने मंदिर में भेजने के बहाने सभी स्त्रियों के साथ उसे भी छूने की कोशिश की और कैसे उसने कटार से उसकी ऊंगलियां काट दीं । इतना सुनते ही बाहुबली अपनी तलवार की मुट्ठ को मुट्ठियों में भींचता।हुआ कहता।है तुमने गलत किया देवसेना इस अपराध के लिए इसकी ऊंगलियां नहीं इसका सर धड़ से अलग कर देना चाहिए और अगले ही क्षण सेनापति का सर उसके धड़ से अलग होता है । ऐसा होते ही हाॅल में बैठा हर इंसान सीट से उछल कर तालियाँ पीटने लगता है । हर इंसान वह भी जो यहाँ यही सोच कर आया है कि लड़कियाँ दिखेंगी उसे छेड़ेंगे वह भी तालियां बजा रहा है । इतनी जनता ने फिल्म देखी क्या किसी ने नहीं सोचा होगा कि वाकई में स्त्री सम्मान के योग्य है उस पर बुरी नज़र डालना पाप है ।
ये झूठ सी झलकियां हैं हमारे बीते हुए उस कल की जो हमें आज कुछ सिखाना चाहता है । और देखिए लोग उत्सुक हैं सीखने के लिए ।यूं ही नहीं किसी फिल्म का हर शो आपको हाऊसफुल मिलता है, यूं ही नहीं लोग अपना काम धंधा छोड़ कर जाते हैं किसी फिल्म को देखने । बहुत कुछ सिखाती है आपको यह फिल्म । जाइए और इस फिल्म को देख कर गौरव करिए अपने इस देश पर जिसका इतिहास इतना गौरवशाली रहा है ।
"कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा" आपके लिए यह जानने से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि हम यह फिल्म क्यों देखें । नकल आपकी अपनी काबीलियत का नाश कर देती है । अगर आप किसी के पीछे भागेंगे तो आपके साथ दो बातें होंगी एक तो आप वहाँ तक कभी नहीं पहुंच पाएगे जहाँ तक आपके आगे वाला पहुंच गया और दूसरी बात आप अपनी खुद की मंज़िल भी खो देंगे । थोड़े शब्दों में कहूं तो आप रास्ते में ही कहीं भटक भटक कर अपनी ज़िंदगी को दम तोड़ता देखेंगे । इसलिए किसी के पीछे भागने से अच्छा है खुद का रास्ता चुनिए । बाहुबली फिल्म ने अपना रास्ता खुद चुना है । उसकी कहानी किसी विदेशी की नकल नहीं, इसका प्रेम फ्रांस के फ्रेंच किसों से सजा नहीं, इसके संवाद किसी विदेशी भाषा की चाकरी नसीं कर रहे, इसके पहरावे में विदेशी फूहड़पन्न नहीं झलकता । गर्व करिए आपको आपके देश के इतिहास की सच्ची झलक वर्षों बाद फिली पर्दे पर देखने को मिली है ।
मैं यह नहीं कहता कि फिल्म में अभिनेताओं का अभिनय बहुत बेहतरीन रहा या संगीत बहुत उत्तम था या फिल्म का निर्देशन आज तक का सबसे बेहतरीन निर्देशन था । मैं बस यह कह रहा हूँ कि ऐसी ऐतिहासिक फिल्म इस दिखावे के दौर में आज तक देखने को नहीं मिली । जब मैं और मेरे साथ सैंकड़ों की भीड़ हाॅल में थी तो हम इस फिल्म को देख नहीं बल्की जी रहे थे ।
धीरज झा
बदलती दुनिया और आधुनिक संसाधनों के साथ साथ खुद को उसी परिवेष में ढालना कतई गलत नहीं अगर यह गलत है तो मेरा फोन पर यह पोस्ट लिखना आपका इस पोस्ट को पढ़ना, घर में शौचालय बनवाना, कुर्सी पर बैठ कर खाना, खरीदे कपड़े पहनना और ना जाने क्या कुछ गलत है । यही नहीं अगर इंसान इसी तरह ज़माने के साथ ढला ना होता तो आज भी बनमानुख ही होता ।
हाँ मगर इस बदलाव में उस एक बात का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है जिसे लोग नकारते चले जा रहे हैं और वो ये है कि इतने बदलावों के बावजूद भी अपनी संस्कृति को मरने ना देना । पर अफ़सोस हमारी ही लापरवाही और नज़रअंदाज़गी की वजह से संस्कृति बूढ़ी हो चुकी है और ऐसा ही रहा तो शायद जल्द ही आने वाले कुछ वर्षों में दम भी तोड़ दे । और आप सहमत हों या ना हों मगर यह सत्य है कि पश्चिमी सभ्यता की बेहद बुरी नकल कर रही भारतीय फिल्म जगत की बहुत सी फिल्मों का हाथ रहा है हमारी संस्कृति की ऐसी दुर्गति करने में ।
लोग यह बात भूल जाते हैं कि जो इंसान अपनी मूल जड़ों से कट जाता है वह कहीं का नहीं रहता । आज के समय में हमें अपनी संस्कृति के बारे में बात करना उबाऊ और ओल्ड फैशनड लगता है मगर हम भूल जाते हैं कि नया कुछ भी नहीं जिस ज़माने को हम नया कह रहे हैं कल को यह भी पुराना ही होने वाला है । जो कल को आज साथ ले कर चल रहा है उसी का कल उसे साथ लेकर चलेगा वरना आप आज आज में ही मिट्टी हो जाएंगे ।
आप कितनी भी नकल कर लें मगर जो असल है उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जो मेरी उम्र के हैं उन सबको अपना बच्चपन तो अच्छे से याद होगा और साथ ही साथ रविवार के बारह बजे दूरदर्शन पर बजने वाला वो संगीत "अद्भुत अदम्य और साहस की परिभाषा है वो मिटती मानवता की इक आशा है, शक्तिमान शक्तिमान" भी याद होगा । बच्चों सहित बड़ों के दिलों की धड़कन बन गया था शक्तिमान । इस समय मोहल्ले की गलियाँ सुनसान पड़ जाती थीं, हर कोई आपको टी वी के आगे बैठा दिखता था । वो पंच तत्व की बातें वो शक्तिमान का हर बार अंत में बच्चों को नया संदेश देना बहुत अलग सा आनंद देता था । शक्तिमान के बाद बहुत से देसी सूपर हीरो आए मगर शक्तिमान कोई ना बन पाया खुद मुकेश खन्ना भी आर्यमान बन कर शक्तिमान की छाप बच्चों के दिलों से मिटा नहीं पाए । जानते हैं ऐसा क्यों था ? क्योंकि वो एक देसी और असल सोच थी उसमें नकल नहीं थी ।
हम सब जानते हैं फिल्में झूठ हैं एकदम झूठ कोई पहाड़ से नहीं कूदता कोई अकेला पूरी फौज क्या चार लोगों को भी बिना एक खंरोच आए मार नहीं सकता, ये सब इफेक्ट हैं सब कंप्यूटर का कभाल है सब आधुनिक तकनीकों का कमाल है । बढ़िया बात है भई खुद को बेहतर बनाने के लिए अगर खुद के रहन सहन को जामाने के साथ बदलना पड़े तो बुरा क्या है इसमें । मगर बात ये है कि अगर उस बदलाव को अगर हम अपनी संस्कृति को जीवित करने के उदेश्य से उपयोग करें तो कितना बेहतर होगा । अपनी संस्कृति को जानने का मतलब उसे जीना नहीं होता । हमें बस जानना है कि हमारे बड़े बुजुर्ग कैसे थे? हमारा इतिहास क्या था ? क्या हम उस राह पर चल भी रहे हैं जिसे हमारी संस्कृति ने तैयार किया था हमारे लिए ।
बाहुबली फिल्म आपको यही समझाती है । हम सब जानते हैं कि ये सब झूठ है सब झूठ है प्रभास द्वारा किया हर सीन झूठ है उसकी तलवार का चलना झूठ है गाजर मूली की तरह शत्रुओं का कटना झूठ है, एक एक दृष्य झूठ है सच है तो वह उदेश्य जिस उदेश्य से फिल्म बनाई गई सच है तो वो गौरवशाली इतिहास जिसका वर्णन इस फिल्म में है, सच है तो वो संस्कृति जिसके जीवित होने का प्रमाण हमें यह फिल्म देख कर मिलता है ।
आज हर तरफ़ औरत की सुरक्षा के लिए आवाज़ बुलंद की जा रही है मगर सब वैसा का वैसा ही है दरिंदे अपनी भूख मिटाने के लिए मासूम लड़कियों का शिकार कर रहे।हैं कानून सबूत के अभाव में उन्हें छोड़ रहा है । सिनेमा हाॅल पूरा भरा रहता है ये फिल्म देखने के लिए । सीन चलता है, देवसेना बेञियों में जकड़ी खड़ी है सेनापति उस पर झूठा इल्ज़ाम मढ़े जा रहा है । बाहुबली आता है देवसेना से पूछता है क्या हुआ था बताओ । देवसेना बताती है कि कैसे उसने मंदिर में भेजने के बहाने सभी स्त्रियों के साथ उसे भी छूने की कोशिश की और कैसे उसने कटार से उसकी ऊंगलियां काट दीं । इतना सुनते ही बाहुबली अपनी तलवार की मुट्ठ को मुट्ठियों में भींचता।हुआ कहता।है तुमने गलत किया देवसेना इस अपराध के लिए इसकी ऊंगलियां नहीं इसका सर धड़ से अलग कर देना चाहिए और अगले ही क्षण सेनापति का सर उसके धड़ से अलग होता है । ऐसा होते ही हाॅल में बैठा हर इंसान सीट से उछल कर तालियाँ पीटने लगता है । हर इंसान वह भी जो यहाँ यही सोच कर आया है कि लड़कियाँ दिखेंगी उसे छेड़ेंगे वह भी तालियां बजा रहा है । इतनी जनता ने फिल्म देखी क्या किसी ने नहीं सोचा होगा कि वाकई में स्त्री सम्मान के योग्य है उस पर बुरी नज़र डालना पाप है ।
ये झूठ सी झलकियां हैं हमारे बीते हुए उस कल की जो हमें आज कुछ सिखाना चाहता है । और देखिए लोग उत्सुक हैं सीखने के लिए ।यूं ही नहीं किसी फिल्म का हर शो आपको हाऊसफुल मिलता है, यूं ही नहीं लोग अपना काम धंधा छोड़ कर जाते हैं किसी फिल्म को देखने । बहुत कुछ सिखाती है आपको यह फिल्म । जाइए और इस फिल्म को देख कर गौरव करिए अपने इस देश पर जिसका इतिहास इतना गौरवशाली रहा है ।
"कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा" आपके लिए यह जानने से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि हम यह फिल्म क्यों देखें । नकल आपकी अपनी काबीलियत का नाश कर देती है । अगर आप किसी के पीछे भागेंगे तो आपके साथ दो बातें होंगी एक तो आप वहाँ तक कभी नहीं पहुंच पाएगे जहाँ तक आपके आगे वाला पहुंच गया और दूसरी बात आप अपनी खुद की मंज़िल भी खो देंगे । थोड़े शब्दों में कहूं तो आप रास्ते में ही कहीं भटक भटक कर अपनी ज़िंदगी को दम तोड़ता देखेंगे । इसलिए किसी के पीछे भागने से अच्छा है खुद का रास्ता चुनिए । बाहुबली फिल्म ने अपना रास्ता खुद चुना है । उसकी कहानी किसी विदेशी की नकल नहीं, इसका प्रेम फ्रांस के फ्रेंच किसों से सजा नहीं, इसके संवाद किसी विदेशी भाषा की चाकरी नसीं कर रहे, इसके पहरावे में विदेशी फूहड़पन्न नहीं झलकता । गर्व करिए आपको आपके देश के इतिहास की सच्ची झलक वर्षों बाद फिली पर्दे पर देखने को मिली है ।
मैं यह नहीं कहता कि फिल्म में अभिनेताओं का अभिनय बहुत बेहतरीन रहा या संगीत बहुत उत्तम था या फिल्म का निर्देशन आज तक का सबसे बेहतरीन निर्देशन था । मैं बस यह कह रहा हूँ कि ऐसी ऐतिहासिक फिल्म इस दिखावे के दौर में आज तक देखने को नहीं मिली । जब मैं और मेरे साथ सैंकड़ों की भीड़ हाॅल में थी तो हम इस फिल्म को देख नहीं बल्की जी रहे थे ।
धीरज झा
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