****************************************** आज मेरे पास शब्द नहीं थे । मगर मुझे लिखना था क्योंकि लिखता ना तो मन और बोझिल सा हो जाता और इन ...
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आज मेरे पास शब्द नहीं थे । मगर मुझे लिखना था क्योंकि लिखता ना तो मन और बोझिल सा हो जाता और इन दिनों इससे ज़्यादा बोझ मन संभाल नहीं पाएगा । इसलिए बस मन का लिख दिया ।
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घर से विदा होती बेटियाँ
लगती हैं मुझे कसाई के
ठेहे की तरफ खींच कर
ले जाते बकरों की तरह
चीख़ती चिल्लाती हुईं
रो रो कर दुहाई सुनाती हुईं
टूटे बिखरे हुए बच्चपन्न के
अरमान मुझे लगते हैं
माँस के टुकड़ों की तरह
हर एक की आँख में ढूंढती हुई करुणा
हर एक से रोक लेने की
आस लगाती हुई
मन की तपीश से
माथे पर आई पसीने की बूंदें
मांग के सिंदूर को लहू के रंग सा
गाढ़ा बनाती हुईं
सच ही तो है विदाई नहीं
ये होती है बेटियों को मारने की रस्म
जब कटे कलेजे को संभालते हुए
बूढ़ा हो रहा बाप
खिंचता कर करता है
उसकी माँ की छाती से
अलग अपनी लाडली का जिस्म
जान छिड़ने वाला भाई
खोलता है डोली का मुंह
और सगे संबंधी देते हैं
कांधा उस डोली को
जिसमें यहाँ से बेटी तो बैठती है
मगर दूसरी तरफ
उतरती है एक बहु
जो फिर बेटी कभी हो नहीं पाती
मैने भी देखा आज
एक बेटी को मरते हुए
वो रो रही थी चिल्ला रही थी
अपने माँ अपने भाई
अपने नाते रिश्तेदारों को बुला रही थी
उसका बच्चपन्न उससे छीना जा रहा था
उसकी गलियां मोहल्ले रो रहे हैं
गुड़िया खिलौने आपा खो रहे हैं
महज़ कुछ यादें हैं जो संग जा रही हैं
दस्तूर ए दुनिया फर्ज़ अपना निभा रही है
धीरज झा
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आज मेरे पास शब्द नहीं थे । मगर मुझे लिखना था क्योंकि लिखता ना तो मन और बोझिल सा हो जाता और इन दिनों इससे ज़्यादा बोझ मन संभाल नहीं पाएगा । इसलिए बस मन का लिख दिया ।
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घर से विदा होती बेटियाँ
लगती हैं मुझे कसाई के
ठेहे की तरफ खींच कर
ले जाते बकरों की तरह
चीख़ती चिल्लाती हुईं
रो रो कर दुहाई सुनाती हुईं
टूटे बिखरे हुए बच्चपन्न के
अरमान मुझे लगते हैं
माँस के टुकड़ों की तरह
हर एक की आँख में ढूंढती हुई करुणा
हर एक से रोक लेने की
आस लगाती हुई
मन की तपीश से
माथे पर आई पसीने की बूंदें
मांग के सिंदूर को लहू के रंग सा
गाढ़ा बनाती हुईं
सच ही तो है विदाई नहीं
ये होती है बेटियों को मारने की रस्म
जब कटे कलेजे को संभालते हुए
बूढ़ा हो रहा बाप
खिंचता कर करता है
उसकी माँ की छाती से
अलग अपनी लाडली का जिस्म
जान छिड़ने वाला भाई
खोलता है डोली का मुंह
और सगे संबंधी देते हैं
कांधा उस डोली को
जिसमें यहाँ से बेटी तो बैठती है
मगर दूसरी तरफ
उतरती है एक बहु
जो फिर बेटी कभी हो नहीं पाती
मैने भी देखा आज
एक बेटी को मरते हुए
वो रो रही थी चिल्ला रही थी
अपने माँ अपने भाई
अपने नाते रिश्तेदारों को बुला रही थी
उसका बच्चपन्न उससे छीना जा रहा था
उसकी गलियां मोहल्ले रो रहे हैं
गुड़िया खिलौने आपा खो रहे हैं
महज़ कुछ यादें हैं जो संग जा रही हैं
दस्तूर ए दुनिया फर्ज़ अपना निभा रही है
धीरज झा
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