लेख कल ही लिख लिया था मगर पोस्ट आज कर रहा हूँ क्योंकि आज रविवार है, छुट्टी का दिन है सोचने का वक्त ज़्यादा मिलेगा । ************************...
लेख कल ही लिख लिया था मगर पोस्ट आज कर रहा हूँ क्योंकि आज रविवार है, छुट्टी का दिन है सोचने का वक्त ज़्यादा मिलेगा ।
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ये दो दिन बाद स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा । स्कूल, काॅलेज, सरकारी दफ्तरों आदि हर जगह तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं । दो दिन बाद भारत की हवा को आज़ाद हुये पूरे 70 साल हो जाएंगे । मैं भी सोच रहा था कि कोई ऐसी कहानी लिखूँ जिसे पढ़ते ही नसों में दौड़ता लहू लावा बन जाए, नसें तन जाएं, रोंगटे खड़े हो जाएं । जिसे जो भी पढ़े वो याद करे कि वो आज़ादी कितने मायने रखती है जिसे पाने के लिए हज़ारों देशभक्तों ने अपनी जाने कुर्बान कर दीं । वो आज़ादी किस तरह की दिखती होगी जिसके गृह प्रवेश के दिन से ही देश को चीर कर दो भागों में बांट दिया, जिसका लहू आज भी कश्मीर के रास्ते टपकता रहता है, उस क्षतिग्रस्त अंग में पनप उठे कीड़े अभी भी रह रह कर चीख़ चिल्लाहटें दे जाते हैं । आखिर कैसा रहा होगा खून से लथपथ ही सही मगर खुली हवा में सांस लेना ।
यही सब सोच कर मैने कलम उठाई और लिखना शुरू किया "आज़ाद भारत" हाँ इतना ही लिखा और फिर अचानक से दिमाग की नस फड़कने लगी । ऐसा लगा जैसे सब रुक गया है । ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी ने मेरे हाथ पकड़ कर कहा हो कि "ज़रा ठहरो, थोड़ा सोच लो अपनी आज़ादी के बारे में तब आगे लिखना ।" मैं सोचने लगा अपनी आज़ादी के बारे में । मगर मुझे कुछ ऐसा महसूस नहीं हुआ कि कहीं भी मेरी आज़ादी में कोई रोक हो । अपनी मर्ज़ी का पहनना है अपनी मर्ज़ी का खाना है जो मुंह में आये बक्क देना है उस बक्के हुए को लिख देना है अब भला इससे बेहतर आज़ादी और क्या हो ? इस जवाब के साथ ही मन ने एक सवाल और दाग दिया "अच्छा फिर बहन आना चाहती है तो उसे लेने कोई क्यों जाएगा ? अकेली क्यों नहीं आने देना चाहते ?" वैसे तो मन का दागा हुआ ये सवाल ज़ोर से लगा था मगर फिर भी संभलते हुये जवाभी हमले में जवाब दे मारा "अरे लड़की है ऊपर से माहौल कैसा है देख नहीं रहे ।"
"फिर ये आज़ादी किस काम की ?" ये सवाल गोली से तेज़ लगा, कुछ पल के लिए एक दम सुन्न ।
"अच्छा ये छोड़ो, ये बताओ कि दोस्त क्या कहा जाने के बारे में ?"
"बोल रहा था 14 को या 16 को जाएंगे ?"
"15 को क्यों नहीं ?"
"कह रहा था खतरा रहता है, दिल्ली वैसे भी निशाने पर रहती है सो हर बार इस दिन सफ़र से बचते हैं ।"
"कमाल है ना ? अपने ही देश की आज़ादी के दिन अपने ही देश में खतरा महसूस होना ! सच में अजीब है ।" मैं चुप था, वो भी चुप हो गया मगर बहुत से सवाल और बहुत से मुद्दे दिमाग में छोड़ गया सोचने के लिए । एक के बाद एक कई बातें दिमाग में अव्यवस्थित ढंग से हुड़ दंग करने लगीं । वो जैसे जैसे ज़हन में उछलीं मैने वैसे वैसे पकड़ कर कागज़ पर कैद कर दीं ।
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कुछ दिनों के अंदर ही एक के बाद एक मुद्दा आँखों के सामने से ऐसे गुज़रा है जैसे ये आईना हो उस भ्रम का जो आज़ादी के नाम पर मन में पाले बैठे हैं हम लोग । अच्छा ये भी ग़ौर करने वाली बात थी कि जब देश आज़ाद हुआ तो दो हिस्सो में बंटा मगर जैसे जैसे देश पर आज़ादी का चढ़ा रंग गहरा हुआ वैसे वैसे देश आज़ादी के नाम पर ही कई टुकड़ों में बंटता गया । आज़ाद तो हम सब एक साथ हुए थे फिर कुछ लोग गुलाम क्यों रह गये ? या फिर ये आज़ादी के नाम पर मनमानी की मांग कर रहे हैं ? आज़ादी से वंचित अभी बहुत से लोग हैं मगर उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता । यहाँ सिगरेट के छल्ले उड़ा कर शराब की बोतलें खाली कर के कहते हैं "हम ले के रहेंगे आज़ादी" । मगर आज़ादी किस से ? किसके लिये आज़ादी माँग रहे हैं ये ? जहाँ, जिनके लिए आज़ादी चाहिए उनकी बात आते तो लाल सलाम को पीलिया पकड़ लेता है । फिर क्यों ये बेकार का हल्ला ?
अभी तो शायद साल भर या शायद उससे भी कम हुआ है जब एक पति किसी पार्टी की सुप्रीमो को गाली देता है और बदले में सुप्रीमो के समर्थक उसकी पत्नी से बेटी तक को अपने विरोध में सड़क तक ला कर नंगा करने की बात करते हैं । उन साहेब की पत्नी जनता से अपील करती है, उभर रही पार्टी से अपील करती है और पार्टी भी बेटी के सम्मान के लिये मैदान में कूद जाती है । महोदय की पत्नी को भरपूर जनसमर्थन मिलता है, नारे लगते हैं और देवी जी देखते ही देखते यू पी की महिलाओं की मसीहा टाईप बन कर सामने आ जाती हैं । हर रोज़ महिला सम्मान में रैलियाँ, आज फलानी देवी यहाँ सम्मानित हुईं तो आज यहाँ महिलाओं का सम्मान बढ़ाया । तब हम भी उभरती पार्टी के जबर प्रशंसक थे । ताजा ताजा बुलंदशहर हादसा हुआ था, मगर इनके आने के बाद सब थम गया । हमको भी लगा कि महिला में दम है । अब कम से कम यू पी की महिलाएं सुरक्षित होंगी । चुनाव आये, शोर शराबा तेज़ हुआ । गालियों से शुरू हुई राजनीति विधायक उम्मीदवार पर जा कर थमी । उम्मीदें प्रबल थीं, देवी जी जीत गईं ।
बस जीत गयीं, अब क्या ढूंढते हो ? जीत तक का तो खेल था सारा, जीत हाथ लगी खेल खत्म । चार दिन पहले बलिया के बजहा गाँव की एक छात्रा रागिनी को कुछ लड़के घेर कर उस पर तब तक वार करते हैं जब तक वो दम नहीं तोड़ देती है और सबके सामने से ऐसे निकल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं । ये सब बस इसलिये कि लड़का रागिनी का पीछा करता था और रागिनी पीछा छुड़ाती थी । उसी के कुछ दिन बाद मऊ के एक काॅलेज में 15 20 लड़के हाॅकी स्टिक लेकर काॅलेज में घुसते हैं और छात्राओं से छेड़छाड़ करते हैं । जब छात्रों द्वारा विरोध किया जाता है तो उनकी जम कर पिटाई करते हैं । इन सबके बावजूद यू पी की वो बेटी जिसने यहाँ कि बहू बेटियों के सम्मान की रक्षा के लिए शपथ लिया था उनका इन वारदातों एक बयान तक नहीं आया जबकि बलिया तो उनका ससुराल और मायका दोनो है । अपने ही गृह क्षेत्र की इस विभत्स घटना पर ऐसी चुप्पी कैसे कि एक संवेदना बोल तक मुंह से ना फूटा, कार्यवाही तो दूर की बात है ? क्या ये सब बस वोट भर के लिए था ? क्या हम समझ लें कि नारी सम्मान की ब्रांडऐंबेसडर बनना बस दिखावा मात्र था ? क्या ये सोच लें कि महिला हो कर महिलाओं के नाम का इस्तेमाल किया आपने सिर्फ और सिर्फ जीत के लिए ? क्या हमारी आँखों में उभरी उम्मीद को हम फिर से मार दें ? क्या मान लिया जाये कि अब बेटियों की आज़ादी छिन गयी ? उन्हें अब माँ बाप पढ़ने तक ना भेज़ें ये सोच कर कि कोई बड़े बाप की बिगड़ी औलाद उसकी सोलह सतरह साल की बेटी को छेड़ेगा और जब उसकी बेपी विरोध करेगी तो उसकी चाकूओं के वार से जान ले लेगा ।
निर्भया के साथ जो हुआ उसके बाद लगा सब बदल जायेगा मगर नहीं आज़ादी तो छिनती गयी, बिहार में नैसी झा से, हिमाचल की गुड़िया और रागीनि जैसी कितनी मासूम बच्चियाँ इस गलतफहमीं में अपनी जान गंवा बैठीं कि देश आज़ाद है यहाँ हमारे सम्मान हमारी इज्ज़त की उतनी ही रक्षा की जाएगी जितनी एक आज़ाद देश की सरकार अपने नागरिकों की करती है । इनकी आज़ादी किस दिन मनाई जाएगी ?
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इधर गोरखपुर में बच्चे बिमारी से मर गये । हाँ भाई मर गये वो भी बिमारी से । मैं नहीं कह रहा अधिकारी कह रहे हैं । स्वास्थ मंत्री तथा माननीय मुख्यमंत्री जी का भी यही कहना है । बिमारी फैली है, हर साल बच्चे मरते हैं तो इसकी रोकथाम कौन करेगा ? या समझ लिया जाए कि गोरखपुर अब रहने लायक जगह नहीं रही इसे खाली करवा दिया जाए ? क्योंकि यहाँ तो हर साल बच्चे मरते हैं, कौन जाने अगले साल किस माँ को अपने लाल के लिये बीच सड़क चीख़ना चिल्लाना पड़ जाए । योगी जी आपके आते ही हर हर महादेव का उद्घघोष किया था । फेसबुक सहित दो चार ब्लाॅगों पर भी आर्टिकल लिखा था कि योगी से डर लग रहा है तो डरिये मगर सिर्फ वो जो अराजक्ता फैलाने के आदी हो गये हैं सिर्फ वो जो सिस्टम को अपने ठेबल पर पड़ा गोल वाला पेपर वेट समझते हैं और जब चाहे घुमा देते हैं । और साथ ही आपसे प्रार्थना भी की थी कि हमारा यकीन बनाए रखिएगा । आप आए मजनूओं की पिटाई होने लगी हालांकि बीच में बेकसूर भी पिटे पर हमने आँटे घुन वाली भात सोच कर वाह वाही की सोचा चलो लड़किया सुरक्षित हैं । बहन बेटियाँ राहत महसूस करेंगी अब । आपने बड़े बड़े भाषण दिये, राजनीति से कोसों दूर रहने वाली हमारी माँ भी बोल पड़ीं ' जोगी जी कुछ तो अलग करेंगे विश्वास है ।' सोचिए सर यू पी से कोई नाता ना रखने वाली साधरण सी गृहणी ने आपसे कितनी उम्मीदें लगाईं ? आपने तो आवाज़ भी ना सुनी उन टूटती कराहती और मरती उम्मीदों की । साठ बच्चे तड़प तड़प कर दम तोड़ गये सिर्फ लापरवाही की वजह से । फिर भी कोई मानने को तैयार नहीं की मौत का असलकारण असल कारण नहीं । अरे, जो भी हो बच्चों की जान तो गयी है ना ? इसका ज़िम्मेदार कौन है ? इसका पता कौन लगायेगा ? इनसे तो साँस लेने तक की आज़ादी छीन ली गयी ।
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उपराष्ट्रपति जाते जाते अपना मुस्लिम प्रेम दिखा कर बोल गये कि मुस्लिम समाज में सुरक्षा का अभाव महसूस किया जा रहा है ।" वो गलत बोले यहाँ मुस्लिम समाज नहीं यहाँ हर कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है । माँ बाप बेटियों को पढ़ाने में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, लोग इलाज के लिए अस्पतालों में जाने पर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, महिलाएं सड़क पर चलने में असुरक्षित महसूस कर रहे यहाँ तक कि अब तो बोलने तक में असुरक्षा महसूस होने लगी है ।
जो हो रहा है उसका तो जितना होना चाहिए उतना दुःख है ही मगर इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर जो अपने ही मुँह दबा रहे उससे और ज़्यादा दुःख होता है । इन लाशों से ज़्यादा डर उन संवेदनाओं की लाशों का है जो बच्चों की मृत्यु के बाद सरकार का बचाव करते हुए मर गयीं, जो सड़क पर छेड़ी जा रही लड़की को उल्टा बदनाम करते।हुए मर गयीं । आज़ादी से अच्छा है इन संवेदनाओं की मौत का मातम मनाया जाए ।
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60 साल कांग्रेस का राज रहा । कुछ तो बात रही होगी इतने सालों तक एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी में । ज़्यादा तो नहीं पर कुछ कुछ याद है कि जो कांग्रेस की रैलियों में अपने पिता और दादा के पीछे पीछे निक्कर सही करते हुए हाथ छाप ज़िंदाबाद करते नहीं थकते थे जो, वो आज भाजपा के बचाव के लिए सबसे नीचले स्तर तक आने को तैयार हैं । खुद में बदलाव किये बिना लोग हमेशा सरकारों में बदलाव चाहते रहे । हम भारतीय हैं जी, हमें खुद को बदलने से आसान लगता है इल्ज़ाम किसी और पर थोप देना । पिता जी चले गये मगर कभी भाजपा का साथ नहीं छोड़ा । जब वोट होती तो मैं पूछता था किस छाप को दिये वोट तो कहते अपना तो हमेशा कमल छाप ही होता है । मैं खुद समर्थक रहा हूँ क्योंकि उम्मीदें जगाई गयी थीं । पर अब उम्मीदें मरती जा रही हैं । सच कहूँ तो राजनीति और राजनीतिक पार्टियों दोनों से मन उचट गया है । सब के सब एक जैसे हैं । चुनाव के वक्त ज़मीन के नीचे चुनाव जीतते ही आसमान से ऊपर । असल बात ये है कि हम जबसे आज़ाद हुए हम तब से ही आज़ादी के लिए लड़ते आ रहे हैं । तमाम वादों से आज़ादी की लड़ाई, अपना रूप विकराल कर के तानाशाह बनती जा रही पार्टियों से आज़ादी, गीरी हुई सोच से आज़ादी । आज़ादी मिली होती तो हर बार ये विरोध क्यों होता । कोई तानाशाही दिखाता है उसका विरोध होता है, होते होते विरोध करने वाले ही तानाशाह बन जाते हैं फिर उनके विरोध के लिए कोई और खड़ा हो जाता है । इन सबके बीच पिसती रहती है वो जनता जिसे आज़ादी नाम का झुनझुना पकड़ा दिया गया मगर आज़ादी कभी दी नहीं गयी । यहाँ गलियाने की आज़ादी है मगर सही तरीके से विरोध करने की आज़ादी नहीं, चिल्लाने की आज़ादी है मगर सही मुद्दों पर बोलने की नहीं । आप राजनीति को पार्टियों में बांटते बांटते खुद को ही बांट बैठे हैं साहब ।
मैं किसी का विरोध या समर्थन नहीं कर रहा । आज़ादी की 71वीं वर्षगांठ है मुझे बेहद खुशी है इस बात की मगर उससे ज़्यादा इस बात की चिंता है कि जो आज़ादी हमें हज़ारों देशभक्तों के बलिदानों से मिली क्या उसे हमने अब भी उतना ही संभाल कर रखा है ? अगर नहीं तो कैसे संभालें उसे । साहब हम विरोधी या समर्थक होने से पहले इस आज़ाद देश की जनता हैं । कुछ तो लक्षण खुद में जगाईए आज़ाद जनता होने का । जिसे समर्थन करते हैं उसके बुरे काम की आलोचना को भी तैयार रहिये जिससे उन्हें हर हाल में सुधार करना पड़े ।
आईए इस स्वतंत्रता दिवस पर स्वतंत्र हो जाएं हर पार्टी हर सोच हर विचार से सिर्फ और सिर्फ जनता बन कर अपने विचार से सोचें और उसी पर अमल करें । आईए एक आवाज़ उठाई जाए, हर तरह से हर तरफ से ।
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नोट - स्वतंत्रता दिवस है अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता है तो अगर किसी को कुछ बुरा लगे तो उसे बुरा मानने की भी स्वतंत्रता है ।
जय हिंद
जय भारत
धीरज झा
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ये दो दिन बाद स्वतंत्रता दिवस मनाया जाएगा । स्कूल, काॅलेज, सरकारी दफ्तरों आदि हर जगह तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं । दो दिन बाद भारत की हवा को आज़ाद हुये पूरे 70 साल हो जाएंगे । मैं भी सोच रहा था कि कोई ऐसी कहानी लिखूँ जिसे पढ़ते ही नसों में दौड़ता लहू लावा बन जाए, नसें तन जाएं, रोंगटे खड़े हो जाएं । जिसे जो भी पढ़े वो याद करे कि वो आज़ादी कितने मायने रखती है जिसे पाने के लिए हज़ारों देशभक्तों ने अपनी जाने कुर्बान कर दीं । वो आज़ादी किस तरह की दिखती होगी जिसके गृह प्रवेश के दिन से ही देश को चीर कर दो भागों में बांट दिया, जिसका लहू आज भी कश्मीर के रास्ते टपकता रहता है, उस क्षतिग्रस्त अंग में पनप उठे कीड़े अभी भी रह रह कर चीख़ चिल्लाहटें दे जाते हैं । आखिर कैसा रहा होगा खून से लथपथ ही सही मगर खुली हवा में सांस लेना ।
यही सब सोच कर मैने कलम उठाई और लिखना शुरू किया "आज़ाद भारत" हाँ इतना ही लिखा और फिर अचानक से दिमाग की नस फड़कने लगी । ऐसा लगा जैसे सब रुक गया है । ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी ने मेरे हाथ पकड़ कर कहा हो कि "ज़रा ठहरो, थोड़ा सोच लो अपनी आज़ादी के बारे में तब आगे लिखना ।" मैं सोचने लगा अपनी आज़ादी के बारे में । मगर मुझे कुछ ऐसा महसूस नहीं हुआ कि कहीं भी मेरी आज़ादी में कोई रोक हो । अपनी मर्ज़ी का पहनना है अपनी मर्ज़ी का खाना है जो मुंह में आये बक्क देना है उस बक्के हुए को लिख देना है अब भला इससे बेहतर आज़ादी और क्या हो ? इस जवाब के साथ ही मन ने एक सवाल और दाग दिया "अच्छा फिर बहन आना चाहती है तो उसे लेने कोई क्यों जाएगा ? अकेली क्यों नहीं आने देना चाहते ?" वैसे तो मन का दागा हुआ ये सवाल ज़ोर से लगा था मगर फिर भी संभलते हुये जवाभी हमले में जवाब दे मारा "अरे लड़की है ऊपर से माहौल कैसा है देख नहीं रहे ।"
"फिर ये आज़ादी किस काम की ?" ये सवाल गोली से तेज़ लगा, कुछ पल के लिए एक दम सुन्न ।
"अच्छा ये छोड़ो, ये बताओ कि दोस्त क्या कहा जाने के बारे में ?"
"बोल रहा था 14 को या 16 को जाएंगे ?"
"15 को क्यों नहीं ?"
"कह रहा था खतरा रहता है, दिल्ली वैसे भी निशाने पर रहती है सो हर बार इस दिन सफ़र से बचते हैं ।"
"कमाल है ना ? अपने ही देश की आज़ादी के दिन अपने ही देश में खतरा महसूस होना ! सच में अजीब है ।" मैं चुप था, वो भी चुप हो गया मगर बहुत से सवाल और बहुत से मुद्दे दिमाग में छोड़ गया सोचने के लिए । एक के बाद एक कई बातें दिमाग में अव्यवस्थित ढंग से हुड़ दंग करने लगीं । वो जैसे जैसे ज़हन में उछलीं मैने वैसे वैसे पकड़ कर कागज़ पर कैद कर दीं ।
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कुछ दिनों के अंदर ही एक के बाद एक मुद्दा आँखों के सामने से ऐसे गुज़रा है जैसे ये आईना हो उस भ्रम का जो आज़ादी के नाम पर मन में पाले बैठे हैं हम लोग । अच्छा ये भी ग़ौर करने वाली बात थी कि जब देश आज़ाद हुआ तो दो हिस्सो में बंटा मगर जैसे जैसे देश पर आज़ादी का चढ़ा रंग गहरा हुआ वैसे वैसे देश आज़ादी के नाम पर ही कई टुकड़ों में बंटता गया । आज़ाद तो हम सब एक साथ हुए थे फिर कुछ लोग गुलाम क्यों रह गये ? या फिर ये आज़ादी के नाम पर मनमानी की मांग कर रहे हैं ? आज़ादी से वंचित अभी बहुत से लोग हैं मगर उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता । यहाँ सिगरेट के छल्ले उड़ा कर शराब की बोतलें खाली कर के कहते हैं "हम ले के रहेंगे आज़ादी" । मगर आज़ादी किस से ? किसके लिये आज़ादी माँग रहे हैं ये ? जहाँ, जिनके लिए आज़ादी चाहिए उनकी बात आते तो लाल सलाम को पीलिया पकड़ लेता है । फिर क्यों ये बेकार का हल्ला ?
अभी तो शायद साल भर या शायद उससे भी कम हुआ है जब एक पति किसी पार्टी की सुप्रीमो को गाली देता है और बदले में सुप्रीमो के समर्थक उसकी पत्नी से बेटी तक को अपने विरोध में सड़क तक ला कर नंगा करने की बात करते हैं । उन साहेब की पत्नी जनता से अपील करती है, उभर रही पार्टी से अपील करती है और पार्टी भी बेटी के सम्मान के लिये मैदान में कूद जाती है । महोदय की पत्नी को भरपूर जनसमर्थन मिलता है, नारे लगते हैं और देवी जी देखते ही देखते यू पी की महिलाओं की मसीहा टाईप बन कर सामने आ जाती हैं । हर रोज़ महिला सम्मान में रैलियाँ, आज फलानी देवी यहाँ सम्मानित हुईं तो आज यहाँ महिलाओं का सम्मान बढ़ाया । तब हम भी उभरती पार्टी के जबर प्रशंसक थे । ताजा ताजा बुलंदशहर हादसा हुआ था, मगर इनके आने के बाद सब थम गया । हमको भी लगा कि महिला में दम है । अब कम से कम यू पी की महिलाएं सुरक्षित होंगी । चुनाव आये, शोर शराबा तेज़ हुआ । गालियों से शुरू हुई राजनीति विधायक उम्मीदवार पर जा कर थमी । उम्मीदें प्रबल थीं, देवी जी जीत गईं ।
बस जीत गयीं, अब क्या ढूंढते हो ? जीत तक का तो खेल था सारा, जीत हाथ लगी खेल खत्म । चार दिन पहले बलिया के बजहा गाँव की एक छात्रा रागिनी को कुछ लड़के घेर कर उस पर तब तक वार करते हैं जब तक वो दम नहीं तोड़ देती है और सबके सामने से ऐसे निकल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं । ये सब बस इसलिये कि लड़का रागिनी का पीछा करता था और रागिनी पीछा छुड़ाती थी । उसी के कुछ दिन बाद मऊ के एक काॅलेज में 15 20 लड़के हाॅकी स्टिक लेकर काॅलेज में घुसते हैं और छात्राओं से छेड़छाड़ करते हैं । जब छात्रों द्वारा विरोध किया जाता है तो उनकी जम कर पिटाई करते हैं । इन सबके बावजूद यू पी की वो बेटी जिसने यहाँ कि बहू बेटियों के सम्मान की रक्षा के लिए शपथ लिया था उनका इन वारदातों एक बयान तक नहीं आया जबकि बलिया तो उनका ससुराल और मायका दोनो है । अपने ही गृह क्षेत्र की इस विभत्स घटना पर ऐसी चुप्पी कैसे कि एक संवेदना बोल तक मुंह से ना फूटा, कार्यवाही तो दूर की बात है ? क्या ये सब बस वोट भर के लिए था ? क्या हम समझ लें कि नारी सम्मान की ब्रांडऐंबेसडर बनना बस दिखावा मात्र था ? क्या ये सोच लें कि महिला हो कर महिलाओं के नाम का इस्तेमाल किया आपने सिर्फ और सिर्फ जीत के लिए ? क्या हमारी आँखों में उभरी उम्मीद को हम फिर से मार दें ? क्या मान लिया जाये कि अब बेटियों की आज़ादी छिन गयी ? उन्हें अब माँ बाप पढ़ने तक ना भेज़ें ये सोच कर कि कोई बड़े बाप की बिगड़ी औलाद उसकी सोलह सतरह साल की बेटी को छेड़ेगा और जब उसकी बेपी विरोध करेगी तो उसकी चाकूओं के वार से जान ले लेगा ।
निर्भया के साथ जो हुआ उसके बाद लगा सब बदल जायेगा मगर नहीं आज़ादी तो छिनती गयी, बिहार में नैसी झा से, हिमाचल की गुड़िया और रागीनि जैसी कितनी मासूम बच्चियाँ इस गलतफहमीं में अपनी जान गंवा बैठीं कि देश आज़ाद है यहाँ हमारे सम्मान हमारी इज्ज़त की उतनी ही रक्षा की जाएगी जितनी एक आज़ाद देश की सरकार अपने नागरिकों की करती है । इनकी आज़ादी किस दिन मनाई जाएगी ?
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इधर गोरखपुर में बच्चे बिमारी से मर गये । हाँ भाई मर गये वो भी बिमारी से । मैं नहीं कह रहा अधिकारी कह रहे हैं । स्वास्थ मंत्री तथा माननीय मुख्यमंत्री जी का भी यही कहना है । बिमारी फैली है, हर साल बच्चे मरते हैं तो इसकी रोकथाम कौन करेगा ? या समझ लिया जाए कि गोरखपुर अब रहने लायक जगह नहीं रही इसे खाली करवा दिया जाए ? क्योंकि यहाँ तो हर साल बच्चे मरते हैं, कौन जाने अगले साल किस माँ को अपने लाल के लिये बीच सड़क चीख़ना चिल्लाना पड़ जाए । योगी जी आपके आते ही हर हर महादेव का उद्घघोष किया था । फेसबुक सहित दो चार ब्लाॅगों पर भी आर्टिकल लिखा था कि योगी से डर लग रहा है तो डरिये मगर सिर्फ वो जो अराजक्ता फैलाने के आदी हो गये हैं सिर्फ वो जो सिस्टम को अपने ठेबल पर पड़ा गोल वाला पेपर वेट समझते हैं और जब चाहे घुमा देते हैं । और साथ ही आपसे प्रार्थना भी की थी कि हमारा यकीन बनाए रखिएगा । आप आए मजनूओं की पिटाई होने लगी हालांकि बीच में बेकसूर भी पिटे पर हमने आँटे घुन वाली भात सोच कर वाह वाही की सोचा चलो लड़किया सुरक्षित हैं । बहन बेटियाँ राहत महसूस करेंगी अब । आपने बड़े बड़े भाषण दिये, राजनीति से कोसों दूर रहने वाली हमारी माँ भी बोल पड़ीं ' जोगी जी कुछ तो अलग करेंगे विश्वास है ।' सोचिए सर यू पी से कोई नाता ना रखने वाली साधरण सी गृहणी ने आपसे कितनी उम्मीदें लगाईं ? आपने तो आवाज़ भी ना सुनी उन टूटती कराहती और मरती उम्मीदों की । साठ बच्चे तड़प तड़प कर दम तोड़ गये सिर्फ लापरवाही की वजह से । फिर भी कोई मानने को तैयार नहीं की मौत का असलकारण असल कारण नहीं । अरे, जो भी हो बच्चों की जान तो गयी है ना ? इसका ज़िम्मेदार कौन है ? इसका पता कौन लगायेगा ? इनसे तो साँस लेने तक की आज़ादी छीन ली गयी ।
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उपराष्ट्रपति जाते जाते अपना मुस्लिम प्रेम दिखा कर बोल गये कि मुस्लिम समाज में सुरक्षा का अभाव महसूस किया जा रहा है ।" वो गलत बोले यहाँ मुस्लिम समाज नहीं यहाँ हर कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है । माँ बाप बेटियों को पढ़ाने में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, लोग इलाज के लिए अस्पतालों में जाने पर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, महिलाएं सड़क पर चलने में असुरक्षित महसूस कर रहे यहाँ तक कि अब तो बोलने तक में असुरक्षा महसूस होने लगी है ।
जो हो रहा है उसका तो जितना होना चाहिए उतना दुःख है ही मगर इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने पर जो अपने ही मुँह दबा रहे उससे और ज़्यादा दुःख होता है । इन लाशों से ज़्यादा डर उन संवेदनाओं की लाशों का है जो बच्चों की मृत्यु के बाद सरकार का बचाव करते हुए मर गयीं, जो सड़क पर छेड़ी जा रही लड़की को उल्टा बदनाम करते।हुए मर गयीं । आज़ादी से अच्छा है इन संवेदनाओं की मौत का मातम मनाया जाए ।
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60 साल कांग्रेस का राज रहा । कुछ तो बात रही होगी इतने सालों तक एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी में । ज़्यादा तो नहीं पर कुछ कुछ याद है कि जो कांग्रेस की रैलियों में अपने पिता और दादा के पीछे पीछे निक्कर सही करते हुए हाथ छाप ज़िंदाबाद करते नहीं थकते थे जो, वो आज भाजपा के बचाव के लिए सबसे नीचले स्तर तक आने को तैयार हैं । खुद में बदलाव किये बिना लोग हमेशा सरकारों में बदलाव चाहते रहे । हम भारतीय हैं जी, हमें खुद को बदलने से आसान लगता है इल्ज़ाम किसी और पर थोप देना । पिता जी चले गये मगर कभी भाजपा का साथ नहीं छोड़ा । जब वोट होती तो मैं पूछता था किस छाप को दिये वोट तो कहते अपना तो हमेशा कमल छाप ही होता है । मैं खुद समर्थक रहा हूँ क्योंकि उम्मीदें जगाई गयी थीं । पर अब उम्मीदें मरती जा रही हैं । सच कहूँ तो राजनीति और राजनीतिक पार्टियों दोनों से मन उचट गया है । सब के सब एक जैसे हैं । चुनाव के वक्त ज़मीन के नीचे चुनाव जीतते ही आसमान से ऊपर । असल बात ये है कि हम जबसे आज़ाद हुए हम तब से ही आज़ादी के लिए लड़ते आ रहे हैं । तमाम वादों से आज़ादी की लड़ाई, अपना रूप विकराल कर के तानाशाह बनती जा रही पार्टियों से आज़ादी, गीरी हुई सोच से आज़ादी । आज़ादी मिली होती तो हर बार ये विरोध क्यों होता । कोई तानाशाही दिखाता है उसका विरोध होता है, होते होते विरोध करने वाले ही तानाशाह बन जाते हैं फिर उनके विरोध के लिए कोई और खड़ा हो जाता है । इन सबके बीच पिसती रहती है वो जनता जिसे आज़ादी नाम का झुनझुना पकड़ा दिया गया मगर आज़ादी कभी दी नहीं गयी । यहाँ गलियाने की आज़ादी है मगर सही तरीके से विरोध करने की आज़ादी नहीं, चिल्लाने की आज़ादी है मगर सही मुद्दों पर बोलने की नहीं । आप राजनीति को पार्टियों में बांटते बांटते खुद को ही बांट बैठे हैं साहब ।
मैं किसी का विरोध या समर्थन नहीं कर रहा । आज़ादी की 71वीं वर्षगांठ है मुझे बेहद खुशी है इस बात की मगर उससे ज़्यादा इस बात की चिंता है कि जो आज़ादी हमें हज़ारों देशभक्तों के बलिदानों से मिली क्या उसे हमने अब भी उतना ही संभाल कर रखा है ? अगर नहीं तो कैसे संभालें उसे । साहब हम विरोधी या समर्थक होने से पहले इस आज़ाद देश की जनता हैं । कुछ तो लक्षण खुद में जगाईए आज़ाद जनता होने का । जिसे समर्थन करते हैं उसके बुरे काम की आलोचना को भी तैयार रहिये जिससे उन्हें हर हाल में सुधार करना पड़े ।
आईए इस स्वतंत्रता दिवस पर स्वतंत्र हो जाएं हर पार्टी हर सोच हर विचार से सिर्फ और सिर्फ जनता बन कर अपने विचार से सोचें और उसी पर अमल करें । आईए एक आवाज़ उठाई जाए, हर तरह से हर तरफ से ।
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नोट - स्वतंत्रता दिवस है अभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता है तो अगर किसी को कुछ बुरा लगे तो उसे बुरा मानने की भी स्वतंत्रता है ।
जय हिंद
जय भारत
धीरज झा
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