क्या आप जानते हैं कि अकेला चना भाड़ क्यों नहीं बोड़ सकता ? उत्तर आसान है ना ? क्योंकि वह अकेला है । बच्चपन से हम लोग ये मुहावरा पढ़ते आए हैं म...
क्या आप जानते हैं कि अकेला चना भाड़ क्यों नहीं बोड़ सकता ? उत्तर आसान है ना ? क्योंकि वह अकेला है । बच्चपन से हम लोग ये मुहावरा पढ़ते आए हैं मगर इसे गूढ़ता से समझने का प्रयास कभी नहीं किया । इक्का दुक्का लोगों ने किया भी तो बाकियों ने उन्हें मुर्ख ही समझा । आप ही देख लीजिए, अगर किसी ने दिन भर में सौ रुपये कमाए हैं और उसके घर का खर्च सत्तर रूपये है तो वह तीस रूपये उस दिन के लिए बचाना चाहेगा जिस दिन उसे काम ना मिले और वो घर चलाने के लिए उस दिन पैसे ना कमा पाए । नया कुछ नहीं इसमें अधिकांश लोग यही तो करते हैं । लेकिन यदि कोई सिरफिरा यह सोच कर उस सौ में से पचास किसी ऐसे को दे दे जिसे पचास की सख़्त ज़रूरत है कि मैं अपने घर के खर्च में बीस की कटौती कर लूंगा मगर इसकी मदद करूंगा तो लोग उसे पागल या बेवकूफ़ कहेंगे ।
परंतु मानव जीवन का असल नियम यही तो है । यदि सब यही करें तो दिक्कत कहाँ होगी किसी को । जिसने जिसकी अपने हिस्से में से पचास निकल कर दे दिये वो कल को किसी और के लिए भी ऐसा ही करे और फिर वो कोई और भी किसी और के लिए यही करे तो घूम फिर कर पहली बार अपने पैसों में से पचास की मदद करने वाले को भी उसकी ज़रूरत के वक्त कोई ना कोई मदद करने वाला मिल ही जाएगा । सहकारिता यही तो है । साथ साथ मिल जुल कर काम करना, एक दूसरे की मदद करना यही तो सहकारिता है ।
संयुक्त परिवार जो अब बहुत कम देखने को मिलते हैं वह पहले समृद्ध और खुशहाल होते थे कारण यह था कि घर के जितने कमाने वाले थे वह एक साथ पूरा घर चलाते थे, एक ही घर में रहते थे, एक की खुशी सबकी खुशी और एक का दुःख सबका दुःख होता था । संपुर्ण जीवन सुख से कैसे कट जाता था यह पता तब चलता था जब जीवन के अंतिम क्षणों में पूरा घर अपने लोगों से भरा रहता था ।
एक ईंट किसी काम की नहीं । उससे से केवल किसी का सर फोड़ कर कलह ही किया जा सकता है मगर जब कई सारी ईंटें जुड़ती हैं तो एक छोटी सी मड़ई से बड़ा राजमहल तक खड़ा हो जाता है । यह है एक साथ रहने की ताक़त । आपका बच्चा जब थोड़ा बड़ा हो कर आपसे दूर पढ़ने जाता है तो आप व्याकुल क्यों हो उठते हैं ? क्यों आपको उसकी फिक्र होने लगती है ? क्योंकि आपको पता है वह वहाँ अकेला पड़ जाएगा उसके साथ उसके अपने नहीं होंगे । यह समाज जहाँ हम रहते हैं यह भी हमारा एक तरह का परिवार ही है, हम इस समाज से अलग होते।ही अलग हो जाते हैं । एक अप्रवासी मज़दूर खुद को कमज़ोर मानता है क्योंकि वह अपनों से, अपने समाज से दूर आ चुका है । उसे पता है कि भले ही उसकी अपनी गलती से भी उसका हाथ टूटने पर उसके समाज वाले उसे तुरंत उठा कर अस्पताल ले जाते थे मगर यहाँ मरने के बाद कोई चिता पर लिटा दे वही बहुत बड़ी बात है ।
आप कोई व्यापार शुरू कर रहे हैं और यदी आप सोचते हैं कि आप उसे अकेले चला लेंगे तो भला वेतन पर कुछ लोग क्यों रखें तो निःसंदेह आप व्यापारी नहीं हैं क्योंकि एक व्यापारी यह जानता है कि उसके पास जितने लोग रहेंगे वह अपना काम उतनी तेज़ी से बढ़ा पाएगा । ट्रेन से लेकर किसी अंजान शहर की गलियों तक आप अपनों की कमीं को महसूस करते हैं क्योंकि आप जानते हैं आपके लोग, आपका समाज अगर आपके साथ चलेगा तो आप निर्भीक हो कर आगे की तरफ़ दौड़ते रहेंगे । आपको यह डर नहीं रहेगा कि आप गिर जाएंगे क्योंकि आपको पता है आपके अपने आपको गिरने नहीं देंगे और अगर आप गिर भी गये तो वो आपको उठा कर फिर से दौड़ने को कहेंगे ।
यही सहकारिता है जिसने हज़ारों लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ा और ना जाने कितने आंदोलन कर के उन्हें सफल बनाया, इसी सहकारिता ने घर घर से मोहल्ला मोहल्ले से गाँव गाँव से शहर शहर से जिला जिले से राज्य और राज्य से देश बनाया । मगर अफ़सोस कि आज इस सहकारिता की भावना मात्र एक मजबूरी बन गयी है । इस दौड़ते भागते समय के साथ लोग भी इतने बदल गये हैं कि जब तक मजबूरी में दूसरों की ज़रूरत ना आन पड़े तब तक किसी को साथ ले कर चलना ही नहीं चाहते और दूसरी तरफ साथ चलने वाले भी इतने धोखेबाज़ निकल आये हैं कि कब आगे चलने वाले को गिरा कर खुद आगे बढ़ जाएं यह भी पता नहीं ।
देश और समाज को मजबूत बनाए रखने के लिए सहकारिता को बचाना अतिआवश्यक है । आप किसी की मदद करेंगे तभी कल को कोई दूसरा आपकी मदद को तैयार होगा । लोगों को अपना बनाईए और फिर अपनों से जुड़ कर सबके साथ चलिए और फिर देखिए आपके साथ आपका देश भी कैसे आगे बढ़ता चला जाता है ।
धीरज झा
परंतु मानव जीवन का असल नियम यही तो है । यदि सब यही करें तो दिक्कत कहाँ होगी किसी को । जिसने जिसकी अपने हिस्से में से पचास निकल कर दे दिये वो कल को किसी और के लिए भी ऐसा ही करे और फिर वो कोई और भी किसी और के लिए यही करे तो घूम फिर कर पहली बार अपने पैसों में से पचास की मदद करने वाले को भी उसकी ज़रूरत के वक्त कोई ना कोई मदद करने वाला मिल ही जाएगा । सहकारिता यही तो है । साथ साथ मिल जुल कर काम करना, एक दूसरे की मदद करना यही तो सहकारिता है ।
संयुक्त परिवार जो अब बहुत कम देखने को मिलते हैं वह पहले समृद्ध और खुशहाल होते थे कारण यह था कि घर के जितने कमाने वाले थे वह एक साथ पूरा घर चलाते थे, एक ही घर में रहते थे, एक की खुशी सबकी खुशी और एक का दुःख सबका दुःख होता था । संपुर्ण जीवन सुख से कैसे कट जाता था यह पता तब चलता था जब जीवन के अंतिम क्षणों में पूरा घर अपने लोगों से भरा रहता था ।
एक ईंट किसी काम की नहीं । उससे से केवल किसी का सर फोड़ कर कलह ही किया जा सकता है मगर जब कई सारी ईंटें जुड़ती हैं तो एक छोटी सी मड़ई से बड़ा राजमहल तक खड़ा हो जाता है । यह है एक साथ रहने की ताक़त । आपका बच्चा जब थोड़ा बड़ा हो कर आपसे दूर पढ़ने जाता है तो आप व्याकुल क्यों हो उठते हैं ? क्यों आपको उसकी फिक्र होने लगती है ? क्योंकि आपको पता है वह वहाँ अकेला पड़ जाएगा उसके साथ उसके अपने नहीं होंगे । यह समाज जहाँ हम रहते हैं यह भी हमारा एक तरह का परिवार ही है, हम इस समाज से अलग होते।ही अलग हो जाते हैं । एक अप्रवासी मज़दूर खुद को कमज़ोर मानता है क्योंकि वह अपनों से, अपने समाज से दूर आ चुका है । उसे पता है कि भले ही उसकी अपनी गलती से भी उसका हाथ टूटने पर उसके समाज वाले उसे तुरंत उठा कर अस्पताल ले जाते थे मगर यहाँ मरने के बाद कोई चिता पर लिटा दे वही बहुत बड़ी बात है ।
आप कोई व्यापार शुरू कर रहे हैं और यदी आप सोचते हैं कि आप उसे अकेले चला लेंगे तो भला वेतन पर कुछ लोग क्यों रखें तो निःसंदेह आप व्यापारी नहीं हैं क्योंकि एक व्यापारी यह जानता है कि उसके पास जितने लोग रहेंगे वह अपना काम उतनी तेज़ी से बढ़ा पाएगा । ट्रेन से लेकर किसी अंजान शहर की गलियों तक आप अपनों की कमीं को महसूस करते हैं क्योंकि आप जानते हैं आपके लोग, आपका समाज अगर आपके साथ चलेगा तो आप निर्भीक हो कर आगे की तरफ़ दौड़ते रहेंगे । आपको यह डर नहीं रहेगा कि आप गिर जाएंगे क्योंकि आपको पता है आपके अपने आपको गिरने नहीं देंगे और अगर आप गिर भी गये तो वो आपको उठा कर फिर से दौड़ने को कहेंगे ।
यही सहकारिता है जिसने हज़ारों लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ा और ना जाने कितने आंदोलन कर के उन्हें सफल बनाया, इसी सहकारिता ने घर घर से मोहल्ला मोहल्ले से गाँव गाँव से शहर शहर से जिला जिले से राज्य और राज्य से देश बनाया । मगर अफ़सोस कि आज इस सहकारिता की भावना मात्र एक मजबूरी बन गयी है । इस दौड़ते भागते समय के साथ लोग भी इतने बदल गये हैं कि जब तक मजबूरी में दूसरों की ज़रूरत ना आन पड़े तब तक किसी को साथ ले कर चलना ही नहीं चाहते और दूसरी तरफ साथ चलने वाले भी इतने धोखेबाज़ निकल आये हैं कि कब आगे चलने वाले को गिरा कर खुद आगे बढ़ जाएं यह भी पता नहीं ।
देश और समाज को मजबूत बनाए रखने के लिए सहकारिता को बचाना अतिआवश्यक है । आप किसी की मदद करेंगे तभी कल को कोई दूसरा आपकी मदद को तैयार होगा । लोगों को अपना बनाईए और फिर अपनों से जुड़ कर सबके साथ चलिए और फिर देखिए आपके साथ आपका देश भी कैसे आगे बढ़ता चला जाता है ।
धीरज झा
COMMENTS