मैं फटे हुए सफ़ों पे रहा अपना नाम ढूँढता जैसे उजड़ी हुई बस्ती में हो कोई काम ढूँढता मैं छोड़ आया गाँव चंद सिक्कों की खोज में फिर शहरों में रह...
मैं फटे हुए सफ़ों पे रहा अपना नाम ढूँढता
जैसे उजड़ी हुई बस्ती में हो कोई काम ढूँढता
मैं छोड़ आया गाँव चंद सिक्कों की खोज में
फिर शहरों में रहा सकून भरी शाम ढूँढता
बहुत पहले मैं था 'वो' माँ के आँचल में छोड़ आया
अब हर रात बिस्तर में हूँ वही आराम ढूँढता
एक बेवफ़ा की आँख से पीया था जो कभी
मैं मयख़ानों में रहा हू बा हू वही जाम ढूँढता
वो पूछता रहा पता मेरा मुझे नामवर बता कर
मैं मिल ही जाता अगर वो शहर का सबसे बड़ा बदनाम ढूँढता
धीरज झा
जैसे उजड़ी हुई बस्ती में हो कोई काम ढूँढता
मैं छोड़ आया गाँव चंद सिक्कों की खोज में
फिर शहरों में रहा सकून भरी शाम ढूँढता
बहुत पहले मैं था 'वो' माँ के आँचल में छोड़ आया
अब हर रात बिस्तर में हूँ वही आराम ढूँढता
एक बेवफ़ा की आँख से पीया था जो कभी
मैं मयख़ानों में रहा हू बा हू वही जाम ढूँढता
वो पूछता रहा पता मेरा मुझे नामवर बता कर
मैं मिल ही जाता अगर वो शहर का सबसे बड़ा बदनाम ढूँढता
धीरज झा
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