जनाब, लगाव यहाँ किसको है ही किस से । सब अपने आप में मस्त हैं । यहाँ अपनों की मौत का मातम तेरहवीं भर मनाते हैं लोग और जिस तरह हम उन्हें वैसे ...
जनाब, लगाव यहाँ किसको है ही किस से । सब अपने आप में मस्त हैं । यहाँ अपनों की मौत का मातम तेरहवीं भर मनाते हैं लोग और जिस तरह हम उन्हें वैसे ही हमारे बाद हमें भी भुला देते हैं लोग । और भुला भी क्यों ना दें किसी के दुःख में इंसान इस बोझिल ज़िंदगी को कंधों पर कितना वक्त उठाए घूमेगा, इसीलिए जो चले गये उन्हें भुला देना भी कहीं ना कहीं ज़िंदगी का हिस्सा है । मगर किसी की मौत को तमाशा बना कर बिना उसके अपराधी सिद्ध हुए उस पर खुशी मनाना प्रतीक है लोगों की मर रही संवेदनाओं का ।
हम सब चाहे कितना भी आगे बढ़ जाएं मगर किसी ना किसी तरह गाँवों से , वहाँ की मिट्टी से, वहाँ के संस्कारों से आज भी जुड़े हैं । हम चाहे गाँव में ज़्यादा समय ना गुज़ार पाए हों मगर कुछ किस्से ऐसे देखे सुने हैं जिन्हें अब सोचने पर लगता है कि सभ्य और समृद्ध समाज की खोज करते करते हम लोग जानवरों से भी असभ्य होते जा रहे हैं । गाँव का ये रिवाज़ है कि किसी के सुख में भले ना साथ खड़े हों मगर दुःख में हर कोई कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होता है । किसी का द्वेष, दुश्मनी या किसी तरह का मतभेद किनारे कर के लोग किसी की मृत्यु में अपनी आँख ना सही मगर मन ज़रूर गीला कर लेते हैं गाँवों में ।
मगर हम ये कहाँ चले आए ? हमें क्यों अब किसी की हत्या तक से दुःख नहीं होता ? क्यों हम उन हत्यारों के मनोबल को बढ़ा रहे हैं जो जिनका धर्म पैसा और विचारधारा बस येन तेन कर्तव्येन पैसा कमाना है भले ही वो किसी की मृत्यु से ही क्यों ना हो ।
कल से सोशल मीडिया पर इसी मरती हुई संवेदनाओं का एक और उदाहरण देखने को मिला जब बंगलूरू की जानी मानी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या से संबंधित खबर सबके सामने आई ।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उनके बाद भी उनकी डी पी पर रोहित वेमुला अभी तक अपने न्याय की आवाज़ बुलंद किये हुए है, मुझे इससे भी कुछ खास लेना देना नहीं कि उनकी वाल पर कई तस्वीरों में कन्हैया कुमार के लिए प्यार उमड़ रहा है । मुझे ये भी नहीं जानना कि वह किस विचारधारा के साथ बिना किसी की परवाह किये आगे बढ़ रही थीं ।
मेरा लेना देना अगर है तो सिर्फ इस बात से कि देश में किसी को इतना अधिकार कैसे मिल गया कि किसी भी कारण उसी के घर में घुस कर उसे ही तीन तीन गोलियाँ मार दे कोई । क्या ऐसा मान लिया जाए कि वह दौर आ चुका है जब देश के नागरिक के जान की कीमत ना के बराबर हो गयी है ?
अगर आप खुश हो रहे हैं ये सोच कर कि आपके विरोधी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली एक लेखिका कम हो गयी तो सच में मुझे आपके अबोधपन पर हंसी आ रही है । आप उस काल से अपना मुंह फेरे हुए मोद मना रहे हैं जो किसी भी क्षण आपकी आवाज़ सुन कर आपके दरवाज़े तक आ पहुंचेगा और आपको अपना ग्रास बना लेगा और उसके बाद आपके विरोधी जश्न मनाएंगे और इसी तरह काल का मनोबल बढ़ेगा और धीरे धीरे वो हम सब पर हावी हो जाएगा ।
बैंगलूरू की प्रतिष्ठित पत्रकार गौरी लंकेश के घर की डोरबेल बजती है, वो सामने खड़े काल से अंजान कुछ और ही सोचती हुईं दरवाज़ा खोलती हैं और फिर सामने खड़ा एक अज्ञात शख़्स उन पर तीन गोलियाँ दाग कर मौके पर ही उनकी जीवन लीला समाप्त कर देता है । ये देश पर हावी होता जा रहा भीड़तंत्र और हत्यारातंत्र, लोकतंत्र के हाथ पैर काट कर उसे अपाहिज बनाये जा रहा है और लोकतंत्र बस अपने अपने नज़रिये के हिसाब से इन्हें देख कर या तो निर्लजता की हंसी हंस रहा है या बेबसी के आँसू रो रहा है । संभल जाईए, इन सब घटनाओं के साथ साथ हमारी आपकी और आने वाली पीढ़ी की जानें कौड़ियों से भी सस्ती होती जा रही है ।
हमारा अतुल्य और अखंड भारत खुद के ही टुकड़े बटोरने में लगा है और हम हैं कि उसके टुकड़े करते चले जा रहे हैं बिना ये सोचे कि कल को हमारे ही वाल पलट कर हम पर ही बरसेंगे । कुछ दिनों पहले राहुल सिंह नामक युवक को ट्रेन में बुरी तरह पीटा गया और फिर उसे ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया सिर्फ इसलिए क्योंकि वह किसी पुलिस वाले की नाजायज़ हरकतों को अपने मोबाईल से शूट कर रहा था । हत्या की खबर आते ही एक पक्ष रोष से भर उठा और दूसरा पक्ष शांत बैठा रहा ।
यह दो हाल की घटनाएं मगर इससे पहले भी हर रोज़ हत्याओं की खबर आती रही है, मगर इन सब हत्याओं पर कभी एक आवाज़ नहीं उठती । यहाँ कई पार्टियाँ हैं, कई विचार धाराएं और अफ़सोस यह है कि लोग इन सभी हत्याओं पर शोक प्रगट कर विरोध करने की बजाए इसे अपनी विचारधारा या राजनीति से जोड़ कर अपना अपना दुःख या खुशी मनाने लगते हैं । आप लगे रहिए अपने मनोरंजन में और ये हत्यारातंत्र आपसे ही बल पा कर एक दिन आपके ही दरवाज़े पर आ खड़ा होगा और फिर राजनीति की रोटियाँ आपकी ही चिता पर सिकेंगी । मगर अफ़सोस तब आप उन रोटियों की सिकाई देखने के लिए जीवित ही नहीं बचे होंगे ।
मैं जन्म से ब्राहम्ण और धर्म से हिंदू हूँ और मुझे यह भी पता है कि गौरी लंकेश ब्राहम्ण हटाओ जैसी विचारधारा वाली कक समर्थक थीं मगर बात यहाँ किसी पार्टी या विचारधारा की नहीं, बात है यहाँ हत्या और हत्यारों के बढ़ते मनोबल की । अगर हमें लगता है कोई दोषी है तो उसके खिलाफ़ कार्यवाही होती है, उसका विरोध होता है, उसकी हत्या करने का अधिकार किसी को भी नहीं । अगर इस तरह विचारों के मतभेद के आधार पर हत्याएं होने लगें तो सबसे ज़्यादा वारदातें सोशल मीडिया के द्वारा ही होंगी । संभल जाईए और सोचिए कि कहीं राजनीति का कीड़ा आपकी सोच को मार तो नहीं रहा ।
धीरज झा
हम सब चाहे कितना भी आगे बढ़ जाएं मगर किसी ना किसी तरह गाँवों से , वहाँ की मिट्टी से, वहाँ के संस्कारों से आज भी जुड़े हैं । हम चाहे गाँव में ज़्यादा समय ना गुज़ार पाए हों मगर कुछ किस्से ऐसे देखे सुने हैं जिन्हें अब सोचने पर लगता है कि सभ्य और समृद्ध समाज की खोज करते करते हम लोग जानवरों से भी असभ्य होते जा रहे हैं । गाँव का ये रिवाज़ है कि किसी के सुख में भले ना साथ खड़े हों मगर दुःख में हर कोई कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होता है । किसी का द्वेष, दुश्मनी या किसी तरह का मतभेद किनारे कर के लोग किसी की मृत्यु में अपनी आँख ना सही मगर मन ज़रूर गीला कर लेते हैं गाँवों में ।
मगर हम ये कहाँ चले आए ? हमें क्यों अब किसी की हत्या तक से दुःख नहीं होता ? क्यों हम उन हत्यारों के मनोबल को बढ़ा रहे हैं जो जिनका धर्म पैसा और विचारधारा बस येन तेन कर्तव्येन पैसा कमाना है भले ही वो किसी की मृत्यु से ही क्यों ना हो ।
कल से सोशल मीडिया पर इसी मरती हुई संवेदनाओं का एक और उदाहरण देखने को मिला जब बंगलूरू की जानी मानी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या से संबंधित खबर सबके सामने आई ।
मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उनके बाद भी उनकी डी पी पर रोहित वेमुला अभी तक अपने न्याय की आवाज़ बुलंद किये हुए है, मुझे इससे भी कुछ खास लेना देना नहीं कि उनकी वाल पर कई तस्वीरों में कन्हैया कुमार के लिए प्यार उमड़ रहा है । मुझे ये भी नहीं जानना कि वह किस विचारधारा के साथ बिना किसी की परवाह किये आगे बढ़ रही थीं ।
मेरा लेना देना अगर है तो सिर्फ इस बात से कि देश में किसी को इतना अधिकार कैसे मिल गया कि किसी भी कारण उसी के घर में घुस कर उसे ही तीन तीन गोलियाँ मार दे कोई । क्या ऐसा मान लिया जाए कि वह दौर आ चुका है जब देश के नागरिक के जान की कीमत ना के बराबर हो गयी है ?
अगर आप खुश हो रहे हैं ये सोच कर कि आपके विरोधी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली एक लेखिका कम हो गयी तो सच में मुझे आपके अबोधपन पर हंसी आ रही है । आप उस काल से अपना मुंह फेरे हुए मोद मना रहे हैं जो किसी भी क्षण आपकी आवाज़ सुन कर आपके दरवाज़े तक आ पहुंचेगा और आपको अपना ग्रास बना लेगा और उसके बाद आपके विरोधी जश्न मनाएंगे और इसी तरह काल का मनोबल बढ़ेगा और धीरे धीरे वो हम सब पर हावी हो जाएगा ।
बैंगलूरू की प्रतिष्ठित पत्रकार गौरी लंकेश के घर की डोरबेल बजती है, वो सामने खड़े काल से अंजान कुछ और ही सोचती हुईं दरवाज़ा खोलती हैं और फिर सामने खड़ा एक अज्ञात शख़्स उन पर तीन गोलियाँ दाग कर मौके पर ही उनकी जीवन लीला समाप्त कर देता है । ये देश पर हावी होता जा रहा भीड़तंत्र और हत्यारातंत्र, लोकतंत्र के हाथ पैर काट कर उसे अपाहिज बनाये जा रहा है और लोकतंत्र बस अपने अपने नज़रिये के हिसाब से इन्हें देख कर या तो निर्लजता की हंसी हंस रहा है या बेबसी के आँसू रो रहा है । संभल जाईए, इन सब घटनाओं के साथ साथ हमारी आपकी और आने वाली पीढ़ी की जानें कौड़ियों से भी सस्ती होती जा रही है ।
हमारा अतुल्य और अखंड भारत खुद के ही टुकड़े बटोरने में लगा है और हम हैं कि उसके टुकड़े करते चले जा रहे हैं बिना ये सोचे कि कल को हमारे ही वाल पलट कर हम पर ही बरसेंगे । कुछ दिनों पहले राहुल सिंह नामक युवक को ट्रेन में बुरी तरह पीटा गया और फिर उसे ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया सिर्फ इसलिए क्योंकि वह किसी पुलिस वाले की नाजायज़ हरकतों को अपने मोबाईल से शूट कर रहा था । हत्या की खबर आते ही एक पक्ष रोष से भर उठा और दूसरा पक्ष शांत बैठा रहा ।
यह दो हाल की घटनाएं मगर इससे पहले भी हर रोज़ हत्याओं की खबर आती रही है, मगर इन सब हत्याओं पर कभी एक आवाज़ नहीं उठती । यहाँ कई पार्टियाँ हैं, कई विचार धाराएं और अफ़सोस यह है कि लोग इन सभी हत्याओं पर शोक प्रगट कर विरोध करने की बजाए इसे अपनी विचारधारा या राजनीति से जोड़ कर अपना अपना दुःख या खुशी मनाने लगते हैं । आप लगे रहिए अपने मनोरंजन में और ये हत्यारातंत्र आपसे ही बल पा कर एक दिन आपके ही दरवाज़े पर आ खड़ा होगा और फिर राजनीति की रोटियाँ आपकी ही चिता पर सिकेंगी । मगर अफ़सोस तब आप उन रोटियों की सिकाई देखने के लिए जीवित ही नहीं बचे होंगे ।
मैं जन्म से ब्राहम्ण और धर्म से हिंदू हूँ और मुझे यह भी पता है कि गौरी लंकेश ब्राहम्ण हटाओ जैसी विचारधारा वाली कक समर्थक थीं मगर बात यहाँ किसी पार्टी या विचारधारा की नहीं, बात है यहाँ हत्या और हत्यारों के बढ़ते मनोबल की । अगर हमें लगता है कोई दोषी है तो उसके खिलाफ़ कार्यवाही होती है, उसका विरोध होता है, उसकी हत्या करने का अधिकार किसी को भी नहीं । अगर इस तरह विचारों के मतभेद के आधार पर हत्याएं होने लगें तो सबसे ज़्यादा वारदातें सोशल मीडिया के द्वारा ही होंगी । संभल जाईए और सोचिए कि कहीं राजनीति का कीड़ा आपकी सोच को मार तो नहीं रहा ।
धीरज झा
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