जी वन भी बहुत अजीब है ना, शायद एक गुब्बारे की तरह. शायद क्या, सच में एक गुवारे के तरह ही तो है. पहले सिकुड़ कर एक कोने में पड़ी रहती है ज़ि...
जीवन भी बहुत अजीब है ना, शायद एक गुब्बारे की तरह. शायद क्या, सच में एक गुवारे के तरह ही तो है. पहले सिकुड़ कर एक कोने में पड़ी रहती है ज़िन्दगी फिर धीरे धीरे ख्वाहिशों की फूंक से हम खुशियों की हवा उसमें भरने लगते हैं. पहली फूंक से गुबारा थोड़ा बड़ा होता है, ये पल हमारे लिए सबसे ख़ुशी भरा होता है क्योंकि हमने ये फूला हुआ गुबारा पहली बार देखा है. हम बच्चे की तरह खुश होते हैं उछालते हैं. लेकिन फिर हम मायूस हो जाते हैं क्योंकि गुब्बारेनुमा ज़िन्दगी के उस आकार से हम अब संतुष्ट नहीं, हम एक ख्वाहिश की फूंक और मरते हैं और गुब्बारा थोडा और बड़ा हो जाता है, ये वक़्त होता है जब हम गर्व महसूस करते हैं, लेकिन वो बच्चों वाली ख़ुशी जो पहली फूंक के साथ गुब्बारे का आकार बढ़ने से आई थी वो इस गर्व के नीचे दब कर कम हो जाती है.
और फिर इसी तरह हम ज़िन्दगी को बड़ा करने के लिए ख्वाहिशों की फूंक मरते रहते हैं, लेकिन ख्वाहिशों की फूंक में अब वो खुशियों वाली हवा का अहसास मर गया है, अब बस इर्ष्या है, सामने वाले के गुब्बारे से अपना गुब्बारा बड़ा करने की प्रतिस्पर्धा है, उसकी हर की ख़ुशी तो कभी अपने पिछड़ जाने का दुःख है, लेकिन वो ख़ुशी नहीं जो पहली फूंक के साथ चेहरे पर झलक गयी थी. बस लगे हैं गुब्बारे को बड़ा करने में, और आगे निकलने की इसी होड़ में एक दिन गुब्बारा ज़ोरदार आवाज़ के साथ फूट जाता है. खुशियाँ दब चुकी होती हैं ख्वाहिशें हवा में बिखर जाती हैं और हम फिर से हताश, निराश वहीं आ खड़े होते हैं जहाँ से हमने शुरू किया था.
गुब्बारेनुमा ज़िन्दगी में ख्वाहिशों की फूंक मारना बुरा नहीं है, क्योंकि बिना फूंक के तो जिंदगी सिकुड़ी सहमी सी एक कोने में पड़ी रहेगी. हाँ लेकिन इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि ख्वाहिशें उतनी ही हों जिनसे हम ख़ुशी की हवा को बनाए रखें. कोई भी काम अपने लिए करना चाहिए, इस लिए नहीं कि हमें सामने वाले से आगे निकलना है. क्योंकि ज़िन्दगी जब किसी तरह कि रेस में शामिल हो जाती है तो फिर रास्ते के खुशनुमा दृश्यों पर हमारी नज़र कभी नहीं पड़ती. वो समय जब ज़िन्दगी के खेल का आखरी हूटर बजने वाला हो उस समय मन में ये आना ज़रूरी नहीं कि हमने कितना और क्या क्या किया, मन में ये आना ज़रूरी है कि हमने जो किया उससे हमें ख़ुशी कितनी मिली और हम संतुष्ट कितने हुए.
अपने ज़हन से ये बात कभी ना मिटने दीजिएगा कि समंदर बहुत विशाल है मगर बेचैन है और नहर छोटी है मगर अपनी मौज में है. डेनियल मकेंजी बहुत समृद्ध इस्पात व्यापारी थे, हर सुख सुविधा उनके पास ज़ुरूरत से कहीं ज़्यादा मात्र में उनके पास थी. मगर उनके पास जो था उसके लिए ना तो वो ईश्वर या नियति के शुक्रगुज़ार थे और ना ही उससे उन्हें ख़ुशी मिलती थी. उन्हें बस जो था उसे और ज़्यादा करने की सनक थी. एक रोज़ उनकी पत्नी का देहांत होगया. अपने अंतिम समय में उनकी पत्नी ने उनसे कहा “डेनियल, तुमसे मैं तब मिली जब तुम्हारे पास कुछ नहीं था, तुमने बहुत मेहनत की बहुत कुछ हासिल किया, हमें वो सारी सुख सुविधाएँ दीं जिनके बारे में हमने सपने में भी नहीं सोचा था. मगर मरते वक्त मैं एक सच तुमसे कहना चाहती हूँ और वो ये कि इन सुख सुविधाओं को पूरा करते करते तुम कहीं खो गए. जिस दिन तुम्हारी लोटरी लगी उस दिन की सुबह आखरी सुबह ठी जब मैंने तुम्हें देखा. उसके बाद से तुम अचानक गायब हो गए, तुम्हारा वो मुस्कुराता चेहरा, उस चेहरे पर सजी मासूमियत और और रोज़ घर से निकलते हुए तुम्हारी वो सुकून के चरम तक पहुँचाने वाली किस्स सब का उस दिन अंत हो गया. उस दिन के बाद मैंने तुम्हें बहुत तलाशा मगर तुम उस लौटरी की रकम को 50 से 100 100 से 200 गुना करने की होड़ में खुद को बहुत पीछे छोड़ आये. मैं तब भी खुश थी क्योंकि मुझे लगा कि तुम इसी में खुश हो मगर दिन बीतने के साथ साथ मैंने पाया कि तुम खुश नहीं हो. इस दौलत को बढ़ने की होड़ में तुम खुश होना ही भूल गए. क्या फायदा हुआ इस तरह से अंधाधुन भागने का, देखो तुम्हारी ये बेशुमार दौलत भी आज तुम्हारे सबसे प्रिय को मरने से ना बचा सकी. डेनियल, मेरी अंतिम इच्छा यही है कि ज़िन्दगी के अंत से पहले तुम एक बार खुद को ज़रूर ढूँढ लाना. ये मेरे लिए तुम्हारे द्वारा दी गयी सबसे बेहतरीन श्रद्धांजली होगी.”
पत्नी के गुजरने के कुछ दिन बाद ही डेनियल अपनी संपत्ति का 70% भाग अपने बच्चों के नाम कर के ये कहते हुए कहीं चले गए कि “ये सारी दौलत आज से तुम लोगों कि है, लेकिन एक बात याद रखना ज़िन्दगी में दौलत के पीछे भागने की बजाए तुम खुशियाँ बटोरने पर ज़्यादा ध्यान देना. अगर तुमने ऐसा किया तो सच कहता हूँ तुम्हें अपने जीवन के आखरी पलों में सबका साथ भी मिलेगा और संतुष्टि भी. अब मुझे ढूंढने की कोशिश ना करना मैं खुद को ढूंढने जा रहा हूँ.” बाक़ी के 30% से उन्होंने बेसहारा बच्चों की मुस्कान खरीदी तथा उनमें खुद को ढूंढने में सफल रहे.
ज़िन्दगी हमेशा तभी बड़ी बनती है जब उसमें खुशियाँ हों, ये आपकी खुद कि होती हैं जो आपके साथ जाती हैं. खूब तरक्की करिए मगर आप जो असल में हैं उसे उस तरक्की के नीचे दबने मत दीजिए. स्वस्थ रहिए मस्त रहिए हँसते मुस्कुराते रहिए
धीरज झा
Image Source :- Wallpaperup
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