बा प दादाओं की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए समृद्धि का चोला पहन कर गरीबी रेखा के आस पास लोट रहे बैजू के परिवार के लिए महीने में एक दो बार उत...
बाप दादाओं की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए समृद्धि का चोला पहन कर गरीबी रेखा के आस पास लोट रहे बैजू के परिवार के लिए महीने में एक दो बार उत्सव का माहौल तब होता है जब खेत बाड़ी के लिए लिये गए कर्जे में से कुछ पैसे बचा कर घर में आम दिनों से अच्छा भोजन बनया जाता ।
रोज़ रोज़ मड़ुआ की रोटी और अलुआ खा खा कर तंग आ चुके बैजू के लिए घर में मछली बनना किसी महाभोज से कम तो बिलकुल नहीं था । आलसी पिता की छः संतानों में बैजू दूसरे नंबर पर था । उसके पिता के लिए एक ही काम ऐसा था जिसमें उसे तनिक भी आलस नहीं था और वो था बच्चे पैदा करना । उन दिनों दो ही माँएं ज़्यादा बीमार दिखती थीं, बच्चे पैदा करते करते बैजू की माँ नहीं तो जयचंदों का भार ढोती भारत माँ । बैजू की माँ को उसकी बिमारी शायद इन सबसे मुक्त कर भी देती मगर भारत माँ को तो यह बोझ हमेशा ढोना पड़ेगा ।
उसके पिता के पास तीन ही तो काम थे घर की रौनक बढ़ाने के लिए बच्चों की लाईन लगाना, घर चलाने के लिए कर्जा उठाना, कर्जा चुकाने के लिए खेत बेचना । हाँ इन सबके बीच वह अपनी लपलपाती ज़ुबान से माँस मछली का स्वाद कम नहीं होने देते थे । चाहे बाकि दिन सूखी रोटी को भी तरसना पड़े पर कर्जे के पैसे से ही सही मगर महीने में चार पाँच बार वह मछली का स्वाद तो चख ही लेते । पिता की इसी आदत की वजह से ही सही मगर बैजू और बाकि भाई बहन भी गरीबी में रईसी खाने का स्वाद चख ही लेते थे ।
आज का दिन भी उन्हीं खास दिनों में से एक था । खेत की जुताई के लिए बैजू के पिता ने रामधन सेठ से कुछ पैसे उधार लिए थे । पैसे हाथ में आते ही उन्हें याद आया कि मछली खाए हुए लगभग सतरह दिन बीत गए है । सतरह दिन पहले ही परभू कका के श्राध के माँसमाँछ भोज में मछली खाई थी । लेकिन तब तो बारिश आ जाने की वजह से दस बारह बुटिया ही खा कर ही पांति में से उठना पड़ा था । प्रतिष्ठा पेट पर भारी पड़ने के कारण दोबारा पांति में बैठ भी तो नहीं पाए थे वरना जब तक इनके पत्तल के आगे मछली कांट का पहाड़ ना खड़ा हो मन को संतुष्टि कहाँ मिलती थी । जुताई का क्या है वह तो हो जाती और ना भी होती तो कौन सी आफत आ जानी थी मगर मछली के लिए मन मारना बिलकुल उचित नहीं था । वो "आत्मा रक्षितो धर्मः" में विश्वास रखते थे । मगर उनके लिए आत्मा की रक्षा का मतलब आत्मसंतुष्टि से था ।
यही सोच कर आज भी उन्हों ने कर्जे के पैसों में से नोट निकाल कर बैजू को मछली लाने मलाह के पास भेजा । मछली आने से बनने तक सारे बच्चे और लालका कुतबा चूल्हे के आस पास ही घूमते रहे । माँस मछली की खुशबू से ही बैजू के पिता का तन मन खिल जाता था । जिस दिन ये सब बनता उस दिन वो दुआर पर बैठे पेट को सहलाते हुए "नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगे कभी ना कभी" जैसे भजन गुनगुनाते रहते थे । भूखे इंसान के लिए खुशी बहुत सस्ती होती है भर पेट भोजन में ही वो सर्वस्व पाने जितने खुख की अनुभूति कर लेता है ।
गर्मी की मार से बेहाल बैजू की माँ ने पत्नीधर्म निभाते हुए गर्मी को चुल्हे की आग में जला कर मछली तैयार कर दी । पिता जी को बुलावा भेज दिया गया और सारी मछली का एक तिहाई हिस्सा पिता जी की थाली में परोस कर माँ पंखा डोलाते हुए उनका मुँह यह अनुमान लगाने के लिए निहारने लगी कि उन्हें मछली पसंद आई या नहीं । मगर पिता जी के दो चार कौर शांति से खाने के बाद उन्हें विश्वास हो गया कि मछली उनके मन मुताबिक बनी है नहीं तो अभी तक थाली हवाई सफर कर के सामने उतरती हुई नज़र आती जिसमें से मछली के टुकड़ों को बच्चे और ललका कुतबा चुन रहे होते । मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं, पिता जी सारा खाना चट कर गए और डकारते हुए हाथ धोने चले गए ।
अब बारी थी बच्चों की । बैजुआ सबमें तेज था इसलिए अपने हिस्से से तीन चार बोटियाँ ज़्यादा उसने अपनी थाली में हमेशा की तरह डाल लिये डिसे देख कर उसकी छोटी बहन तमतमा कर बोली "ई सरधुआ तऽ दरिदर है, आऊरो लोग क्या खाएगा एकर कोनो चिंता नहीं लेकिन अपन पेट में कोंच लेना जरूरी है ।" बाकि सब भी ऐसे ही भनभनाने लगे मगर हमेशा की तरह बैजुआ मस्त हो कर खाने लगा । सब इसलिए भी कुढ़ते थे कि इस तरह उन्हें ज़्यादा नहीं मिलेगा । मगर बैजुआ इन सब की परवाह किए बिना अपनी थाली भर के कोन्हिया घर में चला गया
निर्दयी बैजुआ को यह सोच कर थोड़ी भी दया ना आई कि वो बाकिओं का हक़ मार रहा है । उसका तो सरकार वाला हाल हो गया था "अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता" । अब कड़ाही में थोड़ा झोर (मछली का रस) बचा था जिसमें ललका कुतबा ने मुँह लगा दिया । बेशक परमिलिया ने उसे खोड़नाठी से मारा मगर उसे क्या गम वो तो था ही कुत्ता ।
वैसे तो माँ के हिस्से में एक आधे टुकड़े से ज़्यादा नहीं आता था मगर इस बार तो वो भी नसीब ना हुआ मगर उसे इसका बिलकुल ग़म नहीं था । वो खुश थी की सब ने खुशी खुशी खा लिया था । सबके सोने चले जाने के बाद उसने थाली में भात नमक तेल रखा और जब पहला कौर उठाने लगी तो बैजुआ पीछे से आया और बोला "ऐ माय, ऊ छोड़ दे ई खाले । तोहरा लिए चार पीस बचाए हैं ।"
"रे पगला ई काहे बचाया ? तोहर पेट नहीं भरा होगा । तू खा ले हमको नहीं सुहाता है मछली ।"
"माये हम जानते हैं तुमको मछली अच्छा लगता है । बचता ही तुम्हारे लिए इसीलिए तुम झूठे कह देती हो । हम ऐतना दरिदर थोड़े हैं कि सब खा जाएंगे । ऊ तो सबसे लड़ कर इसलिए रख लिए काहे कि हमको पता है तुम्हारे खाने के लिए नहीं बचता । पिछला बेर भी सब खतम हो गया था । अब तुम खा लो जल्दी से ।" माँ की आँखें बैजू के मासूम चेहरे पर टिक सी गई थीं । और धीरे धीरे माँ की आँखों में चले आए आँसुओं ने बैजू के चेहरे को धुंधला कर दिया था । वह सोच रही थी कि यह कितना मासूम है सबसे बात गाली सुन कर भी मेरे लिए खाना बचाया । शायद मेरे किए किसी बहुत अच्छे कर्म का फल है ये बेटा । बैजू ने माँ की आँखों से बह रहे आँसुओं को पोंछा और माँ की तरफ निवाला बढ़ाया ।
धीरज झा
रोज़ रोज़ मड़ुआ की रोटी और अलुआ खा खा कर तंग आ चुके बैजू के लिए घर में मछली बनना किसी महाभोज से कम तो बिलकुल नहीं था । आलसी पिता की छः संतानों में बैजू दूसरे नंबर पर था । उसके पिता के लिए एक ही काम ऐसा था जिसमें उसे तनिक भी आलस नहीं था और वो था बच्चे पैदा करना । उन दिनों दो ही माँएं ज़्यादा बीमार दिखती थीं, बच्चे पैदा करते करते बैजू की माँ नहीं तो जयचंदों का भार ढोती भारत माँ । बैजू की माँ को उसकी बिमारी शायद इन सबसे मुक्त कर भी देती मगर भारत माँ को तो यह बोझ हमेशा ढोना पड़ेगा ।
उसके पिता के पास तीन ही तो काम थे घर की रौनक बढ़ाने के लिए बच्चों की लाईन लगाना, घर चलाने के लिए कर्जा उठाना, कर्जा चुकाने के लिए खेत बेचना । हाँ इन सबके बीच वह अपनी लपलपाती ज़ुबान से माँस मछली का स्वाद कम नहीं होने देते थे । चाहे बाकि दिन सूखी रोटी को भी तरसना पड़े पर कर्जे के पैसे से ही सही मगर महीने में चार पाँच बार वह मछली का स्वाद तो चख ही लेते । पिता की इसी आदत की वजह से ही सही मगर बैजू और बाकि भाई बहन भी गरीबी में रईसी खाने का स्वाद चख ही लेते थे ।
आज का दिन भी उन्हीं खास दिनों में से एक था । खेत की जुताई के लिए बैजू के पिता ने रामधन सेठ से कुछ पैसे उधार लिए थे । पैसे हाथ में आते ही उन्हें याद आया कि मछली खाए हुए लगभग सतरह दिन बीत गए है । सतरह दिन पहले ही परभू कका के श्राध के माँसमाँछ भोज में मछली खाई थी । लेकिन तब तो बारिश आ जाने की वजह से दस बारह बुटिया ही खा कर ही पांति में से उठना पड़ा था । प्रतिष्ठा पेट पर भारी पड़ने के कारण दोबारा पांति में बैठ भी तो नहीं पाए थे वरना जब तक इनके पत्तल के आगे मछली कांट का पहाड़ ना खड़ा हो मन को संतुष्टि कहाँ मिलती थी । जुताई का क्या है वह तो हो जाती और ना भी होती तो कौन सी आफत आ जानी थी मगर मछली के लिए मन मारना बिलकुल उचित नहीं था । वो "आत्मा रक्षितो धर्मः" में विश्वास रखते थे । मगर उनके लिए आत्मा की रक्षा का मतलब आत्मसंतुष्टि से था ।
यही सोच कर आज भी उन्हों ने कर्जे के पैसों में से नोट निकाल कर बैजू को मछली लाने मलाह के पास भेजा । मछली आने से बनने तक सारे बच्चे और लालका कुतबा चूल्हे के आस पास ही घूमते रहे । माँस मछली की खुशबू से ही बैजू के पिता का तन मन खिल जाता था । जिस दिन ये सब बनता उस दिन वो दुआर पर बैठे पेट को सहलाते हुए "नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगे कभी ना कभी" जैसे भजन गुनगुनाते रहते थे । भूखे इंसान के लिए खुशी बहुत सस्ती होती है भर पेट भोजन में ही वो सर्वस्व पाने जितने खुख की अनुभूति कर लेता है ।
गर्मी की मार से बेहाल बैजू की माँ ने पत्नीधर्म निभाते हुए गर्मी को चुल्हे की आग में जला कर मछली तैयार कर दी । पिता जी को बुलावा भेज दिया गया और सारी मछली का एक तिहाई हिस्सा पिता जी की थाली में परोस कर माँ पंखा डोलाते हुए उनका मुँह यह अनुमान लगाने के लिए निहारने लगी कि उन्हें मछली पसंद आई या नहीं । मगर पिता जी के दो चार कौर शांति से खाने के बाद उन्हें विश्वास हो गया कि मछली उनके मन मुताबिक बनी है नहीं तो अभी तक थाली हवाई सफर कर के सामने उतरती हुई नज़र आती जिसमें से मछली के टुकड़ों को बच्चे और ललका कुतबा चुन रहे होते । मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं, पिता जी सारा खाना चट कर गए और डकारते हुए हाथ धोने चले गए ।
अब बारी थी बच्चों की । बैजुआ सबमें तेज था इसलिए अपने हिस्से से तीन चार बोटियाँ ज़्यादा उसने अपनी थाली में हमेशा की तरह डाल लिये डिसे देख कर उसकी छोटी बहन तमतमा कर बोली "ई सरधुआ तऽ दरिदर है, आऊरो लोग क्या खाएगा एकर कोनो चिंता नहीं लेकिन अपन पेट में कोंच लेना जरूरी है ।" बाकि सब भी ऐसे ही भनभनाने लगे मगर हमेशा की तरह बैजुआ मस्त हो कर खाने लगा । सब इसलिए भी कुढ़ते थे कि इस तरह उन्हें ज़्यादा नहीं मिलेगा । मगर बैजुआ इन सब की परवाह किए बिना अपनी थाली भर के कोन्हिया घर में चला गया
निर्दयी बैजुआ को यह सोच कर थोड़ी भी दया ना आई कि वो बाकिओं का हक़ मार रहा है । उसका तो सरकार वाला हाल हो गया था "अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता" । अब कड़ाही में थोड़ा झोर (मछली का रस) बचा था जिसमें ललका कुतबा ने मुँह लगा दिया । बेशक परमिलिया ने उसे खोड़नाठी से मारा मगर उसे क्या गम वो तो था ही कुत्ता ।
वैसे तो माँ के हिस्से में एक आधे टुकड़े से ज़्यादा नहीं आता था मगर इस बार तो वो भी नसीब ना हुआ मगर उसे इसका बिलकुल ग़म नहीं था । वो खुश थी की सब ने खुशी खुशी खा लिया था । सबके सोने चले जाने के बाद उसने थाली में भात नमक तेल रखा और जब पहला कौर उठाने लगी तो बैजुआ पीछे से आया और बोला "ऐ माय, ऊ छोड़ दे ई खाले । तोहरा लिए चार पीस बचाए हैं ।"
"रे पगला ई काहे बचाया ? तोहर पेट नहीं भरा होगा । तू खा ले हमको नहीं सुहाता है मछली ।"
"माये हम जानते हैं तुमको मछली अच्छा लगता है । बचता ही तुम्हारे लिए इसीलिए तुम झूठे कह देती हो । हम ऐतना दरिदर थोड़े हैं कि सब खा जाएंगे । ऊ तो सबसे लड़ कर इसलिए रख लिए काहे कि हमको पता है तुम्हारे खाने के लिए नहीं बचता । पिछला बेर भी सब खतम हो गया था । अब तुम खा लो जल्दी से ।" माँ की आँखें बैजू के मासूम चेहरे पर टिक सी गई थीं । और धीरे धीरे माँ की आँखों में चले आए आँसुओं ने बैजू के चेहरे को धुंधला कर दिया था । वह सोच रही थी कि यह कितना मासूम है सबसे बात गाली सुन कर भी मेरे लिए खाना बचाया । शायद मेरे किए किसी बहुत अच्छे कर्म का फल है ये बेटा । बैजू ने माँ की आँखों से बह रहे आँसुओं को पोंछा और माँ की तरफ निवाला बढ़ाया ।
धीरज झा
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