"आ युष, बेटा उठ जाओ । स्कूल के लिए लेट हो जाएगा ।" किचन से बर्तनों की खड़कती आवाज़ के बीच हिमांशी की ये तीसरी आवाज़ थी जो उसने ...
"आयुष, बेटा उठ जाओ । स्कूल के लिए लेट हो जाएगा ।" किचन से बर्तनों की खड़कती आवाज़ के बीच हिमांशी की ये तीसरी आवाज़ थी जो उसने आयुष को लगाई । मगर आयुष आज जगा हुआ हो कर भी जगने के मूड में बिल्कुल नहीं था । कारण था उसके स्कूल का पहला दिन । रोज़ वो हिमांशी के साथ ही उठ जाता और सारा दिन उसी के पीछे पीछे लगा रहता । मेरे पास तो वो तब ही आता जब हिमांशी उसे किसी बात के लिए डांट देती, हालांकि ऐसा बहुत कम होता था ।
"शुभम, आयुष को उठा दो ना प्लीज़ । आज पहले दिन ही लेट हो जाएगा तो अच्छा नहीं लगेगा । टीचर सोचेगी कि इसकी मम्मी ही आलसी है जो लेट भेजी ।" हिमांशी की आवाज़ पहले से ज़्यादा तेज़ थी । क्योंकि उसे पता था आयुष से मुश्किल मुझे जगाना है और उसे ये भी मालूम था कि जहाँ बात उसकी आरोप लगने की आये वहाँ मैं खड़ा हो ही जाऊंगा सो मैने भी आँखें मलते हुए आयुष की तरफ करवट ली और लगभग बंद आँखों में हल्का सा झांकते हुए आयुष के कान में कहा "मैं जानता हूँ बेटू जगा हुआ है ।"
"नई मैं शोया हूँ ।" आयुष ने अपने आप को सच्चा साबित करने की कोशिश की मगर बेचारा पकड़ा गया ।
"अच्छा तो जगोगे नहीं ?" मैने उसे अपने ऊपर लिटाते हुए कहा ।
"नहीं ।" उसने अपनी आँखों को अभी भी बंद कर रखा था ।
"क्यों ?"
"मुझे स्कूल नई जाना । मैं मुम्मा को छोल के नई जाऊंगा ।" अब बेचारे का दर्द फूट पड़ा था जो उसने कल प्ले स्कूल में एड्मिशन कराने के बाद से ही दबा रखा था ।
"पर स्कूल नहीं जाओगे तो बड़ा बाबू कैसे बनोगे ।"
"मुझे नई बनना बला बाबू, मैं मुम्मा का छोता बाबू ही ठीक हूँ ।" इतनी सी उम्र में ऐसे जवाब कहाँ से ढूंढ लाता था वो ये बात मुझे बिल्कुल हैरान नहीं करती थी क्योंकि वो मेरा बेटा जो था । साॅरी हिमांशी का भी ।
मगर इतने प्यारे जवाबों के बाद भी उसकी बेरहम माँ का दिल नहीं पिघला और उसने अपने लाढ़ प्यार और हल्की डांट और चीज़ पास्ता का लालच दे कर उसे तैयार कर ही लिया । स्कूल का पहला दिन था इसीलिए देवी जी चाहती थीं मैं भी साथ ही चलूँ, मेरा भी मन था और ना भी होता तो भला देवी जी की बात कैसे टाल देता ।
आयूष ने स्कूल तक खुद को जैसे तैसे समेटे रखा था । हम लो स्कूल पहुंचे और आयुष को उसकी क्लाॅस में छोड़ने गये तो सामने आयुष की मैम बैठी थीं । पंतीस चालीस के बीच की एक हंसमुख औरत जिसके चेहरे की मुस्कुराहट बता रही थी कि या तो इंसान बच्चपन में खुश रहता है या तो फिर बच्चों के साथ । चेहरे पर लगा गोल फ्रेम का चश्मा उनके चेहरे को और मासूम बना रहा था । हिमांशी का तो पता नहीं मगर मैं यहाँ आने से पहले बहुत डरा हुआ था मगर फिर आयुष की मैम को देख कर ना जाने क्यों लगा कि वो सब संभाल लेंगी ।
"हैलो ।" उनकी सूरत जितनी मासूम थी उतनी ही प्यारी उनकी आवाज़, जिसके साथ उन्होंने बड़े प्यार से आयुष को पुचकारा । आयुष अभी भी खुद को समेटने में लगा हुआ था शायद ये सोच कर कि मम्मा ने कसा है कि बहादुर और अच्छे बच्चे नहीं रोते । मगर आखिर कब तक ये बहादुर अपने आँसुओं और चिल्लाहट को रोक पाता है इसका कोई पता नहीं था ।
"हैलो, आई एम श्रेष्ठा ।" अब उनका रुख हमारी तरफ हुआ । हम दोनों ने भी मुस्कुरा कर अपना परिचय दिया ।
"मैम वैसे तो आपको काफी अनुभव होगा मगर फिर भी जब तक कहूँगी नहीं मेरा दिल नहीं मानेगा ।" हिमांशी ने कुछ सोच कर श्रेष्ठा मैम से कहा ।
"अरे आप खुल कर कहिए, कोई प्राब्लम नहीं । वैसे मैं जानती हूँ आप क्या कहना चाहती हैं ।" उनके चेहरे की मुस्कुराहट ये कहते हुए और गहरी हो गयी ।
"आपको कैसे पता, मैं क्या कहने वाली हूँ ।" हिमांशी ने आश्चर्य से पूछा ।
"पहली बात तो मुझे बच्चों के साथ रहने का और उनके पेरेंटस की बात सुनने और जज़्बात महसूस करने का बारह साल का तजुर्बा है और दूसरी बात मैं भी माँ हूँ और इस दौर से गुज़र चुकी हूँ । आप बेफिक्र हो कर घर जाईये, आयुष यहाँ एक दम सही से रहेगा । इसकी गैरेन्टी मैं लेती हूँ ।" अब जो उनके चेहरे की मुस्कुराहट थी वो इतनी गहरी हो गयी थी कि कोई मनहूस से मनहूस आदमी भी उन्हें देख कर कुछ देर सकून को पा जाता । ऊपर से उनकी बात ऐसी थी कि दिल पर लगी और दिल ने संभाल कर रख ली ।
"थैंक्यू सो मच मैम । मैं आपसे यही उम्मीद करती हूँ ।" अपनी आदत के अनुसार हिमांशी ने मुझे एक शब्द भी बोलने का मौका नहीं दिया । शादी के बाद तो जैसे मैं बेचारा बोलना ही भूल गया था । इस बात पर हिमांशी को भी कभी कभी सोचना पड़ता था क्योंकि शादी से पहले उन प्रेम के दिनों में जहाँ गुस्सा मेरी नाक पर रहता था वो गुस्सा शादी के बाद जैसे गुम सा ही हो गया था । ये हिमांशी की बहुत बड़ी जीत भी थी । ख़ैर हम लोग इतना कह कर वापिस लौटने को मुड़े ही थे कि बहादुर आयुष की बहादुरी जवाब दे गयी और वो मम्मी से लिपट कर लगा रोने ।
"मुम्मा मैं कोई शलालत नहीं कलूंगा, कुछ भी बनाने को नई कहूँगा, अच्छा बच्चा बन कल लहूंगा । प्लीज़ मुझे बी साथ ले चलो, मुझे नई लहना यहाँ ।" छोटे साहब ऐसे रो रहे थे जैसे उन्हें बोर्डिंग स्कूल में डाल कर जा रहे हों हम और अब ना जाने कब हमसे मुलाकात हो । हिमांशी की ममता वाला बांध टूट ही रहा था कि श्रेष्ठा मैम ने आयुष को अपने पास खींच लिया और इशारे में हम से जाने को बोला । मैने भी हिमांशी का हाथ पकड़ा और बाहर की तरफ हो लिया । इधर हमारा बाहर जाना हुआ ही था कि इधर आधी बची जवानी में ही आयुष का हम लोगों को एक जवान बेटी के माँ बाप होने का अहसास कराना शुरू हो गया । वो ऐसे रोने लगा जैसे हम दोनों उसकी डोली विदा कर रहे हों ।
इधर हिमांशी की आँख डबडबा गयी, ऐसे ही कुछ क्षणों में लगता है कि बाप सच में निर्दयी और माँएं असल में ममतामयी होती हैं । हमने पिता जी के इतने डंडे खाये थे कि ये सब देख कर लगता है काश उस ज़माने में भी ऐसे स्कूल होते तो हम लोग घर जाते हुए रोते । क्लाॅस से निकलने पर भी आयुष के रोने की आवाज़ कानों तक पहुंच रही थी । पार्किंग तक आते आते हिमांशी की ममता बोल पड़ी "एक बार देख आती हूँ । वो कितना रो रहा है । रोते हुए उसे हिचकियाँ आ जाती हैं ।" मुझे अब चिढ़ सी हो रही थी मगर फिर भी मैने खुद को संभालते हुए अपने मुख से निकलने वाले तीखे वचनों को थोड़ा नर्म किया और बोला
"ऐसा करते हैं, घर से अपना भी लंच ले आते हैं और उसके साथ क्लाॅस में ही बैठते हैं ।" ना चाहते हुए भी मैं हिमांशी को टाँट कर ही गया ।
"आप नहीं समझोगे शुभम ।" वैसे मैं क्या नहीं समझता जो मुझे बार बार 'आप नहीं समझोगे' सुनना पड़ता है ये मैं आज तक नहीं समझ पाया ।
"समझ आप नहीं रहीं हिमांशी । ऐसे करेंगे तो वो कभी स्कूल नहीं जा पायेगा । वो मैम मुझे बहुत समझदार लगीं, वो सब हैंडल कर लेंगी । तुम प्लीज़ चिंता ना करो ।" इस पर हिमांशी ने कोई जवाब नहीं दिया । मैने भी मौके का फायदा उठाया और गाड़ी स्टार्ट कर ली । उसके बाद मैने हिमांशी को घर छोड़ा और खुद मीटिंग के लिए निकल गया । हिमांशी को मैने 10 बजे घर छोड़ा था और ग्यारह बजे उसका काॅल आगया ।
"जल्दी घर पहुंचिए, आयुष को लेने जाना है ।"
"अरे उसे एक बजे लाना है । मैं आजाऊंगा फिक्र मत करो ।"
फिर बारह बजे काॅल आयी
"आप निकले नहीं । आयुष को लेने जाना है ।"
"बच्चे अभी बारह बजे हैं । मैं कुछ देर में पहुंच जाऊंगा यार ।"
साढ़े बारह बजे
"आपको कोई फिक्र ही नहीं है । वो रो रहा होगा । आधा घंटा पहले चले जाएंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा ।"
"अरे यार हिमांशी , आप कितना सोचती हो यार । वो ठीक होगा । मैं बस पाँच मिनट में पहुंचता हूँ और उसके बाद दस मिनट में हम आयुष के पास होंगे ।"
मेरे पाँच मिनट का मतलब पाँच मिनट ही था मगर उन पाँच मिनटों में भी मुझे पाँच बार हिमांशी का काॅल इग्नोर करना पड़ा । क्योंकि मैं ड्राईव कर रहा था और बस पहुंचने ही वाला था । घर पहुंचा तो देखा जिस तरह मैं हिमांशी को छोड़ कर गया था वह उसी तरह बैठी थी । उसने पक्का कुछ खाया भी नहीं था ।
"बहुत केयरलेस हैं आप । उधर मेरा बच्चा तड़प रहा होगा और आप हैं कि कोई परवाह ही नहीं ।" हिमांशी ऐसे कह रही थीं जैसे आयुष को उसने अकेले के दम पर लोन ले कर खरीदा हो । ख़ैर मैं बस चुप चाप मुस्कुरा दिया । और चलने का इशारा किया ।
स्कूल पहुंचने तक हिमांशी बीस बार केयरलेस होने का और आयुष तड़प रहा होगा वाला डाॅयलोग रिपीट कर दिया था । कार स्कूल की पार्किंग में लगाते ही हिमांशी अकेली ही क्लास की तरफ भागने लगी । मैं समझ रहा था कि ये एक माँ का मातृत्व है जो उससे ये सब करवा रहा है फिर भी मुझे ना जाने क्यों ये सब फिल्मी लग रहा था । शायद मैं शादी के बाद शांत के साथ साथ पत्थर दिल भी हो गया था ।
मुझे भी हिमांशी के साथ चलने के लिए लगभग भागना ही पड़ा । क्लास ऑफ होने में अभी दस मिनट बाक़ी थे । मगर मैने सोच लिया था यहाँ माँ बेटे के गंगाजल बहाने से अच्छा उनके रोने से पहले उन्हें घर ले जाऊं । मगर जब हम आयुष की क्लाॅस में पहुंचे तो देखा आयुष मज़े से खेल रहा है श्रष्ठा मैम के साथ । बाक़ी बच्चों के साथ साथ इतनी ही देर में आयुष भी उनसे घुल मिल गया था ।
"अच्छा अब आयुष बताएगा कि उसे कौन कौन से रंग पसंद हैं ।" हम दोनों जिनके पैर कुछ देर पहले तक हवा में थे वो क्लाॅसरूम के बाहर ही जम गये थे ।
"मैम मुझे ऑलेंज कलल, ब्लू कलल, लेड कलल ये तीनों बहुत पशंद हैं । औल औल मुझे पिंक भी बहुत पशंद है ।" आयुष का इस तरह से खुश हो कर बोलना हम दोनों के लिए जादू से कम नहीं था ।
"अच्छा तो आपको ये कलर क्यों पसंद हैं ?" मैम आयुष से पूछा
"क्योंकि ना मैम ये शब मेली मुम्मा को भी पशंद हैं वो ना जब भी पापा के लिए कपले लेती हैं तो यही सब कलल लेती हैं । और उस कलल में पापा बहुत सुंदल दिखते हैं ।" इतना कह कर आयुष के साथ मैम और बाक़ी बच्चे भी खिलखिला कर हंस पड़े और इधर हम दोनों पुराने फिल्मों के हीरो हिरोईन की तरह खुद में ही शर्मा कर मुस्कुरा दिये । इतनी देर में बैल बज गयी और क्लाॅस खत्म हो गयी ।
आयुष हम दोनों को देख कर हमारी तरफ भागता हुआ आया और झट से हिमांशी की गोद में चढ़ कर बोला "मुम्मा बला मजा आया ।" उसकी इतनी बात सुन कर हम दोनों का मन खुश हो गया ।
"मैम ये तो सच में जादू से कम नहीं है ।" मैने मुस्कुरा कर श्रेष्ठा मैम से कहा । इस पर वो हंसने लगीं ।
"बच्चों का मन ना बड़ा निश्छल और पवित्र होता है आपको बस प्यारी और उनके पसंद की बातें कर के उनका मन पढ़ना होता है और उसके बाद उनसे अपने आप दोस्ती हो जाती है । शुरू शुरू में मुझे बहुत मुश्किल लगता था जब एक बच्चा अपनी माँ से भले ही कुछ घंटों के लिए ही दूर हो मगर फिर भी वो ऐसे रोता जैसे उससे उसकी सबसे प्यारी चीज़ छीन ली गयी हो । मगर फिर धीरे धीरे मैने बच्चों से दोस्ती करना सीख लिया और अब तो ये सब बहुत आसान लगता है ।" मैम हम बड़ों को भी इतने प्यार से समझा रही थीं कि मन कर रहा था उन्हें सुनते रहें ।
उसके बाद तो आयुष सुबह अपने आप उठ जाता और स्कूल जाते ही अपनी मैम को ढूंढता । उसे तो अब स्कूल इतना पसंद आने लगा कि वो संडे को कहता "उफ्फ ये हल वीक संडे कहा शे आ जाता है । मैं बोल हो जाता हूँ घर पर ।" हालाँकि हिमांशी को उसकी इस बात से मैम के साथ थोड़ी जलन होती कि कैसे आयुष उससे दूर नहीं जाता था और अब है कि संडे को घर पर रहना उसे बोर लग रहा है । मगर फिर वो अपने आप समझ गयी और उसने कुछ कुछ नया बना कर खिलाना, आयुष को नयी जगह घुमाना शुरू कर दिया जिससे आयुष ना स्कूल जाने से डरता और ना ही घर पर बोर होता ।
जब कभी बीमार होता मैम उसका हाल पूछने घर पर आतीं और फिर वो मैम को सारी बात बताता । मैम तो जैसे हमारे घर का हिस्सा बन गयी थीं । उनके ना होने पर भी आयुष के पास घर में उनकी ही बातें होती और स्कूल में मैम को सुनाने के लिए हम दोनों की बातें । अब आयुष प्ले स्कूल से निकल चुका है मगर श्रेष्ठा मैम ने उसे इतना मजबूत बना दिया कि स्कूल जाने से भी उसे डर नहीं लगता । अब भी मैम से उसकी मुलाकात महीने में चार पाँच बार हो जाती है ।
देखा जाए तो समस्या कुछ खास नहीं मगर असल में यही समस्या सबसे खास है । आपका बच्चा जो अभी तक पापा के प्यार माँ के दुलार की छांव में बड़ा हुआ है और अचानक से उसे एक दिन बाहर की दुनिया में जाना होता है, नये चेहरों के बीच । ये समय उसके लिए सबसे कठिन मगर सबसे अहम भी होता है क्योंकि यह उसके भविष्य की नींव होती है । ऐसे में स्कूल के टीचर और आपका आपके बच्चे के प्रति समर्पण बहुत मायने रखता है । श्रेष्ठा मैम जैसी सभी अध्यापकों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं, क्योंकि हम बच्चे स्कूल भेजते हैं मगर उन्हें इंसान इन जैसे अध्यापक ही बनाते हैं ।
नोट- कहानी के साथ साथ नाम भी काल्पनिक हैं
धीरज झा
Keywords : Hindi Story, First Day Of School, Mom & Dad, Perfect Teacher
"शुभम, आयुष को उठा दो ना प्लीज़ । आज पहले दिन ही लेट हो जाएगा तो अच्छा नहीं लगेगा । टीचर सोचेगी कि इसकी मम्मी ही आलसी है जो लेट भेजी ।" हिमांशी की आवाज़ पहले से ज़्यादा तेज़ थी । क्योंकि उसे पता था आयुष से मुश्किल मुझे जगाना है और उसे ये भी मालूम था कि जहाँ बात उसकी आरोप लगने की आये वहाँ मैं खड़ा हो ही जाऊंगा सो मैने भी आँखें मलते हुए आयुष की तरफ करवट ली और लगभग बंद आँखों में हल्का सा झांकते हुए आयुष के कान में कहा "मैं जानता हूँ बेटू जगा हुआ है ।"
"नई मैं शोया हूँ ।" आयुष ने अपने आप को सच्चा साबित करने की कोशिश की मगर बेचारा पकड़ा गया ।
"अच्छा तो जगोगे नहीं ?" मैने उसे अपने ऊपर लिटाते हुए कहा ।
"नहीं ।" उसने अपनी आँखों को अभी भी बंद कर रखा था ।
"क्यों ?"
"मुझे स्कूल नई जाना । मैं मुम्मा को छोल के नई जाऊंगा ।" अब बेचारे का दर्द फूट पड़ा था जो उसने कल प्ले स्कूल में एड्मिशन कराने के बाद से ही दबा रखा था ।
"पर स्कूल नहीं जाओगे तो बड़ा बाबू कैसे बनोगे ।"
"मुझे नई बनना बला बाबू, मैं मुम्मा का छोता बाबू ही ठीक हूँ ।" इतनी सी उम्र में ऐसे जवाब कहाँ से ढूंढ लाता था वो ये बात मुझे बिल्कुल हैरान नहीं करती थी क्योंकि वो मेरा बेटा जो था । साॅरी हिमांशी का भी ।
मगर इतने प्यारे जवाबों के बाद भी उसकी बेरहम माँ का दिल नहीं पिघला और उसने अपने लाढ़ प्यार और हल्की डांट और चीज़ पास्ता का लालच दे कर उसे तैयार कर ही लिया । स्कूल का पहला दिन था इसीलिए देवी जी चाहती थीं मैं भी साथ ही चलूँ, मेरा भी मन था और ना भी होता तो भला देवी जी की बात कैसे टाल देता ।
आयूष ने स्कूल तक खुद को जैसे तैसे समेटे रखा था । हम लो स्कूल पहुंचे और आयुष को उसकी क्लाॅस में छोड़ने गये तो सामने आयुष की मैम बैठी थीं । पंतीस चालीस के बीच की एक हंसमुख औरत जिसके चेहरे की मुस्कुराहट बता रही थी कि या तो इंसान बच्चपन में खुश रहता है या तो फिर बच्चों के साथ । चेहरे पर लगा गोल फ्रेम का चश्मा उनके चेहरे को और मासूम बना रहा था । हिमांशी का तो पता नहीं मगर मैं यहाँ आने से पहले बहुत डरा हुआ था मगर फिर आयुष की मैम को देख कर ना जाने क्यों लगा कि वो सब संभाल लेंगी ।
"हैलो ।" उनकी सूरत जितनी मासूम थी उतनी ही प्यारी उनकी आवाज़, जिसके साथ उन्होंने बड़े प्यार से आयुष को पुचकारा । आयुष अभी भी खुद को समेटने में लगा हुआ था शायद ये सोच कर कि मम्मा ने कसा है कि बहादुर और अच्छे बच्चे नहीं रोते । मगर आखिर कब तक ये बहादुर अपने आँसुओं और चिल्लाहट को रोक पाता है इसका कोई पता नहीं था ।
"हैलो, आई एम श्रेष्ठा ।" अब उनका रुख हमारी तरफ हुआ । हम दोनों ने भी मुस्कुरा कर अपना परिचय दिया ।
"मैम वैसे तो आपको काफी अनुभव होगा मगर फिर भी जब तक कहूँगी नहीं मेरा दिल नहीं मानेगा ।" हिमांशी ने कुछ सोच कर श्रेष्ठा मैम से कहा ।
"अरे आप खुल कर कहिए, कोई प्राब्लम नहीं । वैसे मैं जानती हूँ आप क्या कहना चाहती हैं ।" उनके चेहरे की मुस्कुराहट ये कहते हुए और गहरी हो गयी ।
"आपको कैसे पता, मैं क्या कहने वाली हूँ ।" हिमांशी ने आश्चर्य से पूछा ।
"पहली बात तो मुझे बच्चों के साथ रहने का और उनके पेरेंटस की बात सुनने और जज़्बात महसूस करने का बारह साल का तजुर्बा है और दूसरी बात मैं भी माँ हूँ और इस दौर से गुज़र चुकी हूँ । आप बेफिक्र हो कर घर जाईये, आयुष यहाँ एक दम सही से रहेगा । इसकी गैरेन्टी मैं लेती हूँ ।" अब जो उनके चेहरे की मुस्कुराहट थी वो इतनी गहरी हो गयी थी कि कोई मनहूस से मनहूस आदमी भी उन्हें देख कर कुछ देर सकून को पा जाता । ऊपर से उनकी बात ऐसी थी कि दिल पर लगी और दिल ने संभाल कर रख ली ।
"थैंक्यू सो मच मैम । मैं आपसे यही उम्मीद करती हूँ ।" अपनी आदत के अनुसार हिमांशी ने मुझे एक शब्द भी बोलने का मौका नहीं दिया । शादी के बाद तो जैसे मैं बेचारा बोलना ही भूल गया था । इस बात पर हिमांशी को भी कभी कभी सोचना पड़ता था क्योंकि शादी से पहले उन प्रेम के दिनों में जहाँ गुस्सा मेरी नाक पर रहता था वो गुस्सा शादी के बाद जैसे गुम सा ही हो गया था । ये हिमांशी की बहुत बड़ी जीत भी थी । ख़ैर हम लोग इतना कह कर वापिस लौटने को मुड़े ही थे कि बहादुर आयुष की बहादुरी जवाब दे गयी और वो मम्मी से लिपट कर लगा रोने ।
"मुम्मा मैं कोई शलालत नहीं कलूंगा, कुछ भी बनाने को नई कहूँगा, अच्छा बच्चा बन कल लहूंगा । प्लीज़ मुझे बी साथ ले चलो, मुझे नई लहना यहाँ ।" छोटे साहब ऐसे रो रहे थे जैसे उन्हें बोर्डिंग स्कूल में डाल कर जा रहे हों हम और अब ना जाने कब हमसे मुलाकात हो । हिमांशी की ममता वाला बांध टूट ही रहा था कि श्रेष्ठा मैम ने आयुष को अपने पास खींच लिया और इशारे में हम से जाने को बोला । मैने भी हिमांशी का हाथ पकड़ा और बाहर की तरफ हो लिया । इधर हमारा बाहर जाना हुआ ही था कि इधर आधी बची जवानी में ही आयुष का हम लोगों को एक जवान बेटी के माँ बाप होने का अहसास कराना शुरू हो गया । वो ऐसे रोने लगा जैसे हम दोनों उसकी डोली विदा कर रहे हों ।
इधर हिमांशी की आँख डबडबा गयी, ऐसे ही कुछ क्षणों में लगता है कि बाप सच में निर्दयी और माँएं असल में ममतामयी होती हैं । हमने पिता जी के इतने डंडे खाये थे कि ये सब देख कर लगता है काश उस ज़माने में भी ऐसे स्कूल होते तो हम लोग घर जाते हुए रोते । क्लाॅस से निकलने पर भी आयुष के रोने की आवाज़ कानों तक पहुंच रही थी । पार्किंग तक आते आते हिमांशी की ममता बोल पड़ी "एक बार देख आती हूँ । वो कितना रो रहा है । रोते हुए उसे हिचकियाँ आ जाती हैं ।" मुझे अब चिढ़ सी हो रही थी मगर फिर भी मैने खुद को संभालते हुए अपने मुख से निकलने वाले तीखे वचनों को थोड़ा नर्म किया और बोला
"ऐसा करते हैं, घर से अपना भी लंच ले आते हैं और उसके साथ क्लाॅस में ही बैठते हैं ।" ना चाहते हुए भी मैं हिमांशी को टाँट कर ही गया ।
"आप नहीं समझोगे शुभम ।" वैसे मैं क्या नहीं समझता जो मुझे बार बार 'आप नहीं समझोगे' सुनना पड़ता है ये मैं आज तक नहीं समझ पाया ।
"समझ आप नहीं रहीं हिमांशी । ऐसे करेंगे तो वो कभी स्कूल नहीं जा पायेगा । वो मैम मुझे बहुत समझदार लगीं, वो सब हैंडल कर लेंगी । तुम प्लीज़ चिंता ना करो ।" इस पर हिमांशी ने कोई जवाब नहीं दिया । मैने भी मौके का फायदा उठाया और गाड़ी स्टार्ट कर ली । उसके बाद मैने हिमांशी को घर छोड़ा और खुद मीटिंग के लिए निकल गया । हिमांशी को मैने 10 बजे घर छोड़ा था और ग्यारह बजे उसका काॅल आगया ।
"जल्दी घर पहुंचिए, आयुष को लेने जाना है ।"
"अरे उसे एक बजे लाना है । मैं आजाऊंगा फिक्र मत करो ।"
फिर बारह बजे काॅल आयी
"आप निकले नहीं । आयुष को लेने जाना है ।"
"बच्चे अभी बारह बजे हैं । मैं कुछ देर में पहुंच जाऊंगा यार ।"
साढ़े बारह बजे
"आपको कोई फिक्र ही नहीं है । वो रो रहा होगा । आधा घंटा पहले चले जाएंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा ।"
"अरे यार हिमांशी , आप कितना सोचती हो यार । वो ठीक होगा । मैं बस पाँच मिनट में पहुंचता हूँ और उसके बाद दस मिनट में हम आयुष के पास होंगे ।"
मेरे पाँच मिनट का मतलब पाँच मिनट ही था मगर उन पाँच मिनटों में भी मुझे पाँच बार हिमांशी का काॅल इग्नोर करना पड़ा । क्योंकि मैं ड्राईव कर रहा था और बस पहुंचने ही वाला था । घर पहुंचा तो देखा जिस तरह मैं हिमांशी को छोड़ कर गया था वह उसी तरह बैठी थी । उसने पक्का कुछ खाया भी नहीं था ।
"बहुत केयरलेस हैं आप । उधर मेरा बच्चा तड़प रहा होगा और आप हैं कि कोई परवाह ही नहीं ।" हिमांशी ऐसे कह रही थीं जैसे आयुष को उसने अकेले के दम पर लोन ले कर खरीदा हो । ख़ैर मैं बस चुप चाप मुस्कुरा दिया । और चलने का इशारा किया ।
स्कूल पहुंचने तक हिमांशी बीस बार केयरलेस होने का और आयुष तड़प रहा होगा वाला डाॅयलोग रिपीट कर दिया था । कार स्कूल की पार्किंग में लगाते ही हिमांशी अकेली ही क्लास की तरफ भागने लगी । मैं समझ रहा था कि ये एक माँ का मातृत्व है जो उससे ये सब करवा रहा है फिर भी मुझे ना जाने क्यों ये सब फिल्मी लग रहा था । शायद मैं शादी के बाद शांत के साथ साथ पत्थर दिल भी हो गया था ।
मुझे भी हिमांशी के साथ चलने के लिए लगभग भागना ही पड़ा । क्लास ऑफ होने में अभी दस मिनट बाक़ी थे । मगर मैने सोच लिया था यहाँ माँ बेटे के गंगाजल बहाने से अच्छा उनके रोने से पहले उन्हें घर ले जाऊं । मगर जब हम आयुष की क्लाॅस में पहुंचे तो देखा आयुष मज़े से खेल रहा है श्रष्ठा मैम के साथ । बाक़ी बच्चों के साथ साथ इतनी ही देर में आयुष भी उनसे घुल मिल गया था ।
"अच्छा अब आयुष बताएगा कि उसे कौन कौन से रंग पसंद हैं ।" हम दोनों जिनके पैर कुछ देर पहले तक हवा में थे वो क्लाॅसरूम के बाहर ही जम गये थे ।
"मैम मुझे ऑलेंज कलल, ब्लू कलल, लेड कलल ये तीनों बहुत पशंद हैं । औल औल मुझे पिंक भी बहुत पशंद है ।" आयुष का इस तरह से खुश हो कर बोलना हम दोनों के लिए जादू से कम नहीं था ।
"अच्छा तो आपको ये कलर क्यों पसंद हैं ?" मैम आयुष से पूछा
"क्योंकि ना मैम ये शब मेली मुम्मा को भी पशंद हैं वो ना जब भी पापा के लिए कपले लेती हैं तो यही सब कलल लेती हैं । और उस कलल में पापा बहुत सुंदल दिखते हैं ।" इतना कह कर आयुष के साथ मैम और बाक़ी बच्चे भी खिलखिला कर हंस पड़े और इधर हम दोनों पुराने फिल्मों के हीरो हिरोईन की तरह खुद में ही शर्मा कर मुस्कुरा दिये । इतनी देर में बैल बज गयी और क्लाॅस खत्म हो गयी ।
आयुष हम दोनों को देख कर हमारी तरफ भागता हुआ आया और झट से हिमांशी की गोद में चढ़ कर बोला "मुम्मा बला मजा आया ।" उसकी इतनी बात सुन कर हम दोनों का मन खुश हो गया ।
"मैम ये तो सच में जादू से कम नहीं है ।" मैने मुस्कुरा कर श्रेष्ठा मैम से कहा । इस पर वो हंसने लगीं ।
"बच्चों का मन ना बड़ा निश्छल और पवित्र होता है आपको बस प्यारी और उनके पसंद की बातें कर के उनका मन पढ़ना होता है और उसके बाद उनसे अपने आप दोस्ती हो जाती है । शुरू शुरू में मुझे बहुत मुश्किल लगता था जब एक बच्चा अपनी माँ से भले ही कुछ घंटों के लिए ही दूर हो मगर फिर भी वो ऐसे रोता जैसे उससे उसकी सबसे प्यारी चीज़ छीन ली गयी हो । मगर फिर धीरे धीरे मैने बच्चों से दोस्ती करना सीख लिया और अब तो ये सब बहुत आसान लगता है ।" मैम हम बड़ों को भी इतने प्यार से समझा रही थीं कि मन कर रहा था उन्हें सुनते रहें ।
उसके बाद तो आयुष सुबह अपने आप उठ जाता और स्कूल जाते ही अपनी मैम को ढूंढता । उसे तो अब स्कूल इतना पसंद आने लगा कि वो संडे को कहता "उफ्फ ये हल वीक संडे कहा शे आ जाता है । मैं बोल हो जाता हूँ घर पर ।" हालाँकि हिमांशी को उसकी इस बात से मैम के साथ थोड़ी जलन होती कि कैसे आयुष उससे दूर नहीं जाता था और अब है कि संडे को घर पर रहना उसे बोर लग रहा है । मगर फिर वो अपने आप समझ गयी और उसने कुछ कुछ नया बना कर खिलाना, आयुष को नयी जगह घुमाना शुरू कर दिया जिससे आयुष ना स्कूल जाने से डरता और ना ही घर पर बोर होता ।
जब कभी बीमार होता मैम उसका हाल पूछने घर पर आतीं और फिर वो मैम को सारी बात बताता । मैम तो जैसे हमारे घर का हिस्सा बन गयी थीं । उनके ना होने पर भी आयुष के पास घर में उनकी ही बातें होती और स्कूल में मैम को सुनाने के लिए हम दोनों की बातें । अब आयुष प्ले स्कूल से निकल चुका है मगर श्रेष्ठा मैम ने उसे इतना मजबूत बना दिया कि स्कूल जाने से भी उसे डर नहीं लगता । अब भी मैम से उसकी मुलाकात महीने में चार पाँच बार हो जाती है ।
देखा जाए तो समस्या कुछ खास नहीं मगर असल में यही समस्या सबसे खास है । आपका बच्चा जो अभी तक पापा के प्यार माँ के दुलार की छांव में बड़ा हुआ है और अचानक से उसे एक दिन बाहर की दुनिया में जाना होता है, नये चेहरों के बीच । ये समय उसके लिए सबसे कठिन मगर सबसे अहम भी होता है क्योंकि यह उसके भविष्य की नींव होती है । ऐसे में स्कूल के टीचर और आपका आपके बच्चे के प्रति समर्पण बहुत मायने रखता है । श्रेष्ठा मैम जैसी सभी अध्यापकों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं, क्योंकि हम बच्चे स्कूल भेजते हैं मगर उन्हें इंसान इन जैसे अध्यापक ही बनाते हैं ।
नोट- कहानी के साथ साथ नाम भी काल्पनिक हैं
धीरज झा
Keywords : Hindi Story, First Day Of School, Mom & Dad, Perfect Teacher
COMMENTS