"अ म्मा ई क्या कर रही हो ?" स्कूल से लौटे गुड्डू ने माँ को तिल धोते देख कर पूछा । "दिखता नहीं तिल धो रहे हैं ।" का...
"अम्मा ई क्या कर रही हो ?" स्कूल से लौटे गुड्डू ने माँ को तिल धोते देख कर पूछा ।
"दिखता नहीं तिल धो रहे हैं ।" काम से थकी हुई माँ ने गुड्डू के बेतुके सवाल का थोड़ा गुस्सा कर उत्तर दिया
"धो कर क्या करोगी इसका ।"
"देख गुड्डू सुबह से काम करते करते हमारा माथा झन्नाया हुआ है ऊपर से तुम हो कि आऊरो कपार चाट रहे हो । बोले थे तुम्हारे पिता जी से कि सफेद तिल ला दो । मगर उनको फुर्सत कहाँ, बस तिल्ल का लड्डू खाने में ही मजा आता है उनको काम करने को कहो तो उनका अपना काम जोर करने लगता है ।" गुड्डू के पिता जी को लेकर माँ के अंदर सुबह से खौल रहा गुस्सा अब जा कर निकल रहा था । बेचारी अम्मा कहे भी तो किससे जब से गाँव छोड़ कर शहर में आई है तबसे तो जैसे ज़ुबान ही सिल गया है । आस पड़ोस को टोका नमस्कार के सिवा और कोई मतलब नहीं और पति देव के पास उतना पर्याप्त समय नहीं कि वो सारी बातें सुन सकें । बच गया नन्हा सा गुड्डू, वो माँ की पीड़ा को समझे ना समझे लेकिन माँ गुड्डू से हर बात कह कर मन शांत कर लेती थी ।
"अम्मा हमको नहीं पता इसीलिए ना पूछ रहे । पता होता तो काहे बार बार पूछते ।" छोटे से गुड्डू ने बड़ी मासूमियत के साथ अपनी बात कही ।
"अरे मेरा राजा बेटा, जानते तो हो कि अम्मा कभी कभी सनकिया जाती है । अब अम्मा की बात का क्या बुरा मानना । अच्छा सुने दू दिन बाद तिला सक्रांति है, उसमें चूड़ा मूढ़ी तील ई सबका लाई बनता है । अब उजरका तिल होता तो इतना मेहनत नहीं करना पड़ता हमको । अभी इस करिअका तिल को धोएंगे फेर सुखा कर इसको कूट के इसका छिलका उतारेंगे ।" गुड्डू अम्मा की बातों को किसी परिकथा की तरह सुन रहा था ।
"माँ तो क्या जरूरत है इत्ता सब करने की बजार से मंगा लो ना मिठाई ।" गुड्डू के नन्हें दिमाग में जितनी बात समाई उतने का निचोड़ निकाल कर उसने अपनी साफ़ ज़ुबान से सब कह दिया ।
"बेटा, थोड़ा बेहतर जिनगी और बाल बच्चा के भविष्य के लिए गाँव छोड़ आए अब परम्पराओं को भी कैसे भुला दें भला । वैसे भी सहर का जिनगी इतना ब्यस्त है कि आदमीं को खुस होने का समय कहाँ मिलता है । सोचे थोड़ा लाई बना कर आस पड़ोस में भी बांट देंगे । इसी बहाने ई उसठ लोग सबसे थोड़ा प्रेम प्यार बढ़ जाएगा । याद रखना खुसी जो होता है ना ऊ बांटने से ही बढ़ता है ।" माँ ने अपना ज्ञान गुड्डू के सामने परोस दिया अब गुड्डू की जितनी क्षमता थी उसने उतना ज्ञान चख लिया ।
"क्या बातें हो रही हैं माँ बेटा के बीच ।" इसी बीच गुड्डू के पिता जी भी आ गये ।
"कुछो नहीं, बस आपकी सिकायत कर रहे थे गुड्डुआ से ।"
"अरे भई, हमने अईसा का कर दिया जो आप गुड्डू महराज से सिकायत करने लगीं ।" गुड्डू के पिता जी ने उसकी अम्मा की नाराज़गी को थोड़ा कम करने के लिए बड़े मीठे स्वर में बोले और गुड्डू को अपनी गोद में बिठा लिया ।
"कल कहे थे थोड़ा उजरका तील भी ले आईएगा, लेकिन आपको याद रहे।तब ना ।"
"अरे हाँ, हम सच में भूल गये । अभी ले आते हैं ।"
"रहने दीजिए, हम करिअका को भिजा लिए । मेहनत तो कईए लिए अब लाने का क्या फायदा ।"
"पिता जी, खुसी कहाँ मिलेगा ? माँ बोलीं कि वो बांटने से बढ़ता है । हमको भी बांटना है ।" कितनी देर से अपना सवाल मन में दबाए हुए बैठा गुड्डू अब और ना सह पाया और दोनों की बात के बीच अपना नन्हा सा सवाल ला कर पटक दिया । गुड्डू के पिता जी ने उसकी अम्मा की ओर देखते हुए इशारे में पूछा "माजरा क्या है ?" इधर से उसकी अम्मा ने मुस्कुरा दी ।
"खुसी, तो कहीं नहीं बिकती बेटा । ऊ तो अईसहीं कभी भी किसी रूप में मिल जाती है । बस उसको खोजने की इच्छा होनी चाहिए ।" पिता जी ने बड़े प्यार से समझाया ।
"अच्छा बहुत हो गयी ज्ञान की बात । चलिए खाना दे दें नहीं तो फोन आ जाएगा तो आप बिना कुछो खाये निकल जाएंगे ।" माँ और पिता जी नीचे चले गये मगर गुड्डू वहीं बैठा सोचने लगा कि अब खुशी कहाँ ढूंढे ।
आज तिला संक्रान्ति का दिन आगया था । पूरे घर में तिल चूड़ा और गुड़ की खुशबू बाहर से मक्खियों और पेट के अंदर से भूख को दावत दे रही थी । सुबह उठते ही गुड्डू की नज़र सामने बड़े से मर्तबान में रखे चूड़ा के लाई (चिड़वड़े या पोहे के लड्डू) पर पड़ी । बच्चपन का चंचल और लालची मन उन लड्डुओं को देखते ही ललचा गया । गुड्डू ने चोर की तरह इधर उधर नज़र दौड़ाई । उसने मैदान साफ देख कर एक लड्डू चट करने के मंसूबे से मर्तबान खोला । लड्डू जैसे जैसे मुंह के पास आ रहा था वैसे वैसे जीभ की उसे चखने की तृष्णा बढ़ती जा रही थी । लड्डू मुंह के पास पहुंचा ही था कि माँ की कड़क आवाज़ से गुड्डु बेचारा कांप गया और लड्डू मुंह तक आते आते फिर से मर्तबान में जा गिरा ।
"ऐ गुड्डुआ, याद रहे भिना नहाए एगो दाना भॅ नहीं मिलेगा । चलो जल्दी से नहाओ और फिर हम तुमको चुड़ा मलाई दही, आलू गोभी का सब्जी और मन भर लाई देते हैं ।" माँ ने इतनी चीज़ों के नाम ले लिए कि बेचारे गुड्डु का आधा पेट तो मुंह में आए पानी को गटक कर भर गया । उसका मन कर रहा।था कि अभिए सब मिल जाए और बिना रुको एक बार में ही सब चट कर जाए । लेकिन हाए रे ये ज़ालिम नियम जिसका पालन करते हुए इतना प्यार करने वाली अम्मा भी ज़ालिम हो जाती है । मन को मार कर गुड्डु जल्दी जल्दी तैयार होने के लिए भागा । कुछ देर में वो नहा धो कर तैयार था । माँ ने उसे सबसे पहले तिल का लड्डू आज के दिन के प्रशाद के रूप में दिया और फिर जो जो उन्होंने कहा था सब गुड्डू के आगे रख दिया । गुड्डू ने भी अपने नन्हें पेट के मुताबिक भर पेट और भर मन सब कुछ खा लिया ।
"माँ आज रहने दो ना हम नहीं जाएंगे आज ।" गुड्डु ने भोला सा।मुंह बना कर कहा ।
"क्यों आज का है जो नहीं जाओगे ? परिक्षा सर पर आ गया है और तुम अभी भी ट्यूसन जाने में आना कानी करते हो । चलो उठो जाओ । बस दू घंटा का बात है उसके बाद आओ तो हम तुमको मलाई आ लाई देंगे और फिर पड़ोस में लाई बांटने चलेंगे ।" गुड्डू बेचारा समझ गया कि माँ के सामने उसकी दाल नहीं गलने वाली । माँ की डांट सुन कर भी जाना ही होगा उससे अच्छा ऐसे ही चले जाते हैं ।
दो घंटे बाद गुड्डू दौड़ता हुआ ट्यूशन से वापिस आया । आते ही उसने माँ को कितनी आवाज़ें लगाईं मगर माँ का जवाब नहीं आया । वो समझ गया कि माँ बाहर गयी हैं । उसने बैग एक तरफ़ रखा कर जल्दी से एक लिफाफे में आठ दस लड्डू डाल लिये और बाहर भाग गया । सब कुछ उसने ऐसे किया जैसे कोई बड़ी चोरी कर रहा।हो । कुछ देर बाद जब माँ घर आईं तो गुड्डू का बैग देख कर समझ गयी कि वो ट्यूशन से आगया है । मगर कई बार आवाज़ लगाने के बाद भी वो कहीं दिख नहीं रहा था । उसे खोजते हुए माँ की नज़र आधे से ज़्यादा खत्म हो चुके लड्डुओं कर पड़ी । ये देखते ही माँ को बड़ी हैरानी हुई कि इतना सा गुड्डू इतने सारे लड्डू कैसे चट कर गया ।
"माँ ।" गुड्डू ने आवाज़ लगाई
"कहाँ थे तुम ? और एतना लाई कईसे खा गये तुम ? तबियत बिगड़ जाएगा तुम्हारा । बाप रे ऊ तो पाँच आदमी से भी नहीं खतम होता और तुम अकेले ही कैसे खा गये ?" माँ को समझ ही नहीं आ रही थी कि ये हुआ कईसे ।
"माँ खुसी बांटने गये थे । और हम तो एकोगो नहीं खाए सब दे दिए हम ।" गुड्डू ने खुश होते हुए कहा ।
"क्या हो गया किस बात का हल्ला मचाए हो तुम माँ बेटा ।" माँ बेटे की बात हो ही रही थी कि इसी बीच गुड्डू के पिता जी भी आ गये ।
"देखिए ना ऐतना सारा लड्डू खा गया । इसका मियाज बिगड़ जाएगा और पूछ रहेऐं तो कहता है दे दिए ।"
"किसे दे दिए बेटा ? या खुदे चट कर गये और अब बहाना बना रहे हो ।" पिता जी ने बड़े प्यार से पूछा ।
"नहीं पिता जी हम सच में खुसी बांट कर आए हैं । जब हम ट्यूसन से लौट रहे थे ना तब रस्ता में एक लड़का था । उधर ना किसी का थैला फट गया था और ना वो ना वो लड़का थैला से गिरा खाने का सामान सड़क पर से उठा कर खा रहा था । जो आंटी का थैला फटा था ना वो आँटी उसे खूब डांटी और भगा दी । हम उसको पूछे कि क्यों उठाए किसी का सामान ये बुरा बात है । तो वो हमको कहा कि वो भूखा है, उसके घर में और भी लोग हैं सब को भूख लगा है । फिर ना हम उससे पूछे कि लाई खाएगा तो बोला हाँ । तब हम ना उसको खूब सारा लाई दिए । पिता जी वो बहुत खुस हुआ और हमको उसी मिल गया ।" गुड्डू लम्बी लम्बी सांसें ले कर सारे घटनाक्रम की जानकारी अपने माँ और पिता जी को दे रहा था और वो दोनो उसकी बातों को सुन कर उसका मुंह निहार रहे थे ।
"हम जानते हैं माँ कि आपको वो लाई सब पड़ोस में बांटना था । अब केतना कम हो गया है । लेकिन माँ आप हमारे लिए भी तो बनाई थी ना तो हम ना अब एको लाई नहीं खाएंगे । हम अपना हिस्सा का उसको दे आए हैं ।" माँ इस उधेड़बुन में थी कि उस नन्हीं सी जान के इस बड़प्पन पर क्या प्रतिक्रिया दे । उन्होंने बस गुड्डू को गले से लगा लिया ।
"कोनो बात नहीं बेटा, हम तुमारे लिए आऊरो खूब सारा बना देंगे ।" माँ ने गुड्डू का माथा चूमते हुए कहा ।
गुड्डू की माँ होंठों पर आँसुओं में भीगी मुस्कान सजाए उसके पिता जी की तरफ देख रही थी । पिता जी ने भी मुस्कुराते हुए गुड्डू के सर पर हाथ फेर कर कहा "कमाल है, कभी कभी बच्चे बड़ों से भी बड़े हो जाते हैं । बधाई हो गुड्डू की माँ गुड्डू बड़ा हो गया ।"
त्यौहार क्या हैं ? शायद खुश होने और खुशियाँ बांटने का बहाना मात्र । पहले या आज भी गाँवों अथवा छोटे शहरों में लोग त्यौहार पर एक दूसरे के घर बाज़ार की मिठाईयाँ या जो कुछ घर में विशेष बना हो वो देते हैं । सबको पता होता है कि आज तो त्यौहार है सबके घर मिठाईयाँ आई होंगी या कुछ विशेष बना होगा लेकिन फिर भी लोग यह दस्तूर निभा रहे हैं । असल में वो एक दूसरे के साथ मिठाईयाँ नहीं बल्कि खुशियाँ बांटते हैं । लेकिन खुशियाँ पहले से खुश लोगों में ही बांटी जाएं ये दस्तूर भी तो गलत है । ये दुनिया एक बड़े आंगन के समान है । जो खुशियों के दीपक से जगमगाती हुई बहुत प्यारी लगेगी । आँगन हमारा है तो इसे सजाना भी हमे ही पड़ेगा । इसीलिए खुशी के छोटे से छोटे दीपक को उस कोने में जलाएं जहाँ अंधेरा है । थोड़ा थोड़ा करते हुए एक समय ऐसा आएगा कि आँगन पूरी तरह से जगमगा उठेगा ।
आप सभी को मकर संक्रांति कि हार्दिक शुभकामनाएं । खुश रहें और जहाँ खुशियों की कमी है वहाँ अपनी क्षमतानुसार खुशियाँ बांटने का प्रयास करते रहें ।
धीरज झा
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