“गम्मा हाउए का रे?” “हई लईका त गम्मा बा।” उक्त पंक्तियां बचपन में बहुत बार सुनी हैं। पहली का मतलब है “गम्मा है क्या रे?” दूसरी का...
“गम्मा हाउए का रे?”
“हई लईका त गम्मा बा।”
उक्त पंक्तियां बचपन में बहुत बार सुनी हैं। पहली का मतलब है “गम्मा है क्या रे?” दूसरी का मतलब है “ये बच्चा तो गम्मा है।” गम्मा उसे कहा जाता है जिसमें खूब ताकत होती है या जो किसी बात का गम नहीं करता। मगर इस शब्द का इस्तेमाल कर्ने वालों को शायद ही पता हो कि ये गम्मा आखिर है या था कौन। हां सब इतना जरूर जानते थे कि गम्मा एक पहलवान है, जिसकी ताकत बजरंगबली से थोड़ी ही कम है। कई लोग तो ये मानते थे कि गम्मा एक हिन्दू पहलवान है, जिसे बजरंगबली का आशीर्वाद प्राप्त है।
किसी व्यक्ति के लिए इससे बड़ी उपलब्धि भला और क्या हो सकती है कि उसके बारे में ना जानने वाले भी उसकी चर्चा करते रहते हैं। गम्मा यानी गामा एक शक्तिशाली पहलवान थे इससे ज्यादा भी बहुत कुछ है जो उनके बारे में बताना और जानना जरूरी है। तो आइये आज बात करते हैं उस अजय पहलवान गामा की :
ज्यादा दिनों नहीं मिल सका पिता का साथ
22 मई 1878 के दिन अमृतसर की पाक पवित्र धरती पर जन्मा था एक ऐसा बच्चा जिसने इतिहास के पन्नों पर अपना नाम कुछ इस तरह लिखा कि वो नाम हमेशा के लिए अमर हो गया। वो बच्चा था गामा पहलवान। गामा पहलवान जिसे आज भी गांव देहातों में अधिकांश लोग एक हिन्दू पहलवान मानते हैं उनका नाम था गुलाम मोहम्मद । गामा बचपन से ही अपने पिता के दांव पेंच को बारीकी से देखते आये थे। उनके पिता मोहम्मद अजीज बक्श स्वयं एक जाने माने पहलवान थे। अब जिस बच्चे का लालन पालन ही अखाड़े में हुआ हो, जो बड़ा ही अखाड़े की मिट्टी फांक कर हुआ हो उसके लिए अखाड़ा जैसे माँ की गोद ही होगा। नन्हा गामा अपने पहलवान पिता से बहुत कुछ सीख सकता था लेकिन दुर्भाग्यवश छोटी उम्र में ही उसने अपने पिता को खो दिया। उनके पिता के जाते ही नियति को ये डर सताने लगा कि कहीं ये योद्धा किसी अच्छी क्षत्रछाया के आभाव में उस ख्याति को पाने से वंचित ना रह जाए जिसके लिए इसका जन्म हुआ है। तभी नियति ने भेजा दतिया के महाराजा को जिन्होंने गामा के संरक्षण का जिम्मा उठाया और मन में ये ठान लिया कि वो उसे पहलवान बना कर ही रहेंगे।
छोटी सी उम्र में ही दिखने लगा था दम
जिस उम्र में कोई भी माँ अपने बच्चे को अपनी आंचल की छांव में इसलिए छुपा कर रखती है कि कहीं निर्दयी सूरज की धधकती किरणें उसके लाल की कोमल त्वचा ना जला दे, उस उम्र में छोटे मियां गामा अपना पहला दंगल लड़ने अखाड़े में कूद गए थे। फिर इसके दो साल बाद समय आया वो दंगल लड़ने का जिसने गामा को लोगों के लिए एक अचंभा बना दिया। वो सन था 1890, उम्र थी वही कोई 12 वर्ष, आयोजन था जोधपुर के राजा द्वारा करवाए गए दंगल का। एक बारह वर्ष के लड़के ने अपनी कसरत और चुस्ती फुर्ती से राजा का ध्यान सभी पहलवानों पर से हटा कर अपनी तरफ खींच लिया। गामा ने कुछ मुकाबले भी लड़े, मुकाबलों का परिणाम सबकी सोच से कहीं ज्यादा था। गामा को पहले 15 पहलवानों में चुना गया। जोधपुर के राजा ने उन्हें विजेता घोषित कर दिया।
5 फुट 7 इंच का गामा 6 फुट 9 इंच के पहलवान के सामने घंटों तक अड़ा रहा
इसके बाद गामा रुकने वाले कहाँ थे। वो बढ़ते रहे। फिर आया वो दंगल जिसने लोगों का भ्रम तो तोड़ा ही साथ ही साथ गामा पहलवान के नाम और उनके हौंसले को असमान की बुलंदियों तक पहुंचा दिया। 1895 में उनका मुकाबला हुआ उस समय के रुस्तम ए हिन्द और देश के सबसे बड़े पहलवान रहीम बक्श सुल्तानीवाला से। कहते हैं उस दिन इन दोनों का मुकाबला देखने पूरा लाहौर उमड़ आया था। दंगल में जब 6 फुट 9 इंच के सुल्तानिवाला के सामने 5 फुट 7 इंच के गामा लड़ने के लिए खड़े हुए तो लगभग हर किसी ने मन ही मन सुल्तानिवाला को विजेता करार करते हुए गामा की होने वाली हालत पर तरस खाया। दर्शक भले ही गामा को ले कर डरे हों लेकिन गामा के चेहरे पर रत्ती भर भी भय नहीं था। गामा ने रुस्तम ए हिन्द रहीम का डट कर मुकाबला किया और घंटों चले मुकाबले में हारे नहीं। इस तरह से मैच ड्रा हो गया। लेकिन इस मुकाबले के बाद गामा का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा।
गामा ने 1898 से लेकर 1907 के बीच दतिया के गुलाम
मोहिउद्दीन, भोपाल के प्रताब सिंह, इंदौर के अली बाबा सेन और मुल्तान के हसन बक्श जैसे नामी पहलवानों को लगातार हराया। 1910 में एक बार फिर गामा का सामना रुस्तम-ए-हिंद रहीम बक्श सुल्तानीवाला से हुआ। एक बार फिर मैच ड्रॉ रहा। अब गामा देश के अकेले ऐसे पहलवान बन चुके थे, जिसे कोई हरा नहीं पाया था।
विश्व के सबसे बड़े पहलवान को दी थी मात
वैसे तो गामा पहलवान कई देशों में अपनी कुश्ती का झंडा गाड़ चुके थे, लेकिन 1910 में वो अपने रेसलर भाई इमाम बख्श के साथ लंदन पहुंचे, जहां उन्हें इंटरनेशनल चैंपियनशिप में भाग लेने से मना कर दिया गया। लेकिन गामा ने ओपन चैलेंज दिया कि वो किसी भी पहलवान को पराजित कर सकते हैं और फिर उन्होंने अमेरिकी चैंपियन बेंजामिन रोलर को सिर्फ 1 मिनट, 40 सेकंड में ही चित्त कर दिया। बस फिर क्या था ना चाहते हुए भी आयोजक उन्हें चैंपियनशिप में हिस्सा लेने से रोक नहीं पाए। यहां उनका मुकाबला पोलैंड के स्टैनिसलॉस जबिश्को से हुआ। जबिश्को उस समय का चैम्पियन था, उसका नाम विश्व के सबसे बड़े पहलवानों में लिया जाता था। 10 सितंबर 1910 को फाइट हुई। गामा ने ज़बिश्को को पहले ही मिनट में जमीन पर पटक दिया। 2 घंटे 35 मिनट तक मैच चला, लेकिन उसे ड्रॉ करार दे दिया गया। मैच दोबारा 19 सितंबर को हुआ और ज़बिश्को मैच में आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया। इस तरह, गामा वर्ल्ड हैवीवेट चैंपियन बनने वाले भारत के पहले पहलवान बन गए। यह खिताब रुस्तम-ए-जहां के बराबर था।
1911 में गामा का सामना फिर रहीम बक्श से हुआ। इस बार रहीम को गामा ने चित कर दिया। इसके बाद, 1927 में गामा ने आखिरी फाइट लड़ी। उन्होंने स्वीडन के पहलवान जेस पीटरसन को हराकर खामोशी से इस खेल को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
ये था गामा की ताकत का राज
गामा पहलवान की ताकत का सबसे बड़ा नमूना था उनके द्वारा 1200 किलो वजनी पत्थर उठाना। 24 साल की उम्र में द ग्रेट गामा ने 1200 किलो का पत्थर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। इसी पत्थर को उठाने में 25 लोग लगे थे। गामा पहलवान की खुराक भी कोई कम नहीं थी। कहा जाता है कि 6 देसी मुर्गे, 10 लीटर से उबाल कर 7.5 लीटर हुए दूध, आधा किलो देसी घी ये सब वो आराम से चट कर जाया करते थे। उन्होंने अपना डाईट चार्ट खुद तैयार किया था। इसी की देन थी कि वो एक बार में तीन तीन हजार दंड (पुश अप) और पांच पांच हजार बैठक (सिट अप) लगा देता थे।
इस तरह गामा ने जीत लिए थे कितने दिल
ये सब पहलवानी की बात थी लेकिन गामा के बारे में कुछ बातें ऐसी भी हैं जो पहलवानी से अलग हैं लेकिन सबके लिए जाननी बहुत जरूरी है। भारत पाकिस्तान बंटवारा हुआ, गामा को लाहौर जाना पड़ा। लेकिन जिस तरह वह यहाँ हिन्दू परिवारों के बीच रहे थे वैसे ही अब लाहौर में भी वो हिन्दू परिवारों के बीच जा बसे। बंटवारे की आग कुछ लोगों की आत्मा तक जला चुकी थी और वो अब इंसान ना रह कर हिन्दू मुस्लिम हो गए थे और एक दूसरे को खत्म कर देना चाहते थे। लेकिन गामा पहलवान ने ये कसम खायी कि वो एक भी हिंदू का बाल भी बांका नहीं होने देंगे। कहते हैं जब दंगाई हिन्दू परिवारों को मरने उनके मोहल्ले की तरफ आये तो गामा अपने कुछ पहलवान साथियों के साथ उनके सामने खड़े हो गए। इधर गामा का एक हाथ एक दंगाई पर पड़ा कि उधर बाकी बचे दंगाई भाग खड़े हुए।
गामा पहलवान ने ना केवल हिन्दू परिवारों की रक्षा की बल्कि उनके रहने खाने और आने जाने का खर्चा भी उठाया। गामा ने जब तक हिन्दू परिवारों को सही सलामत सरहद पार नहीं भेजा तब तक वो शांत नहीं बैठे। आज जिनके दिलों में नफरत की आग धधक रही है उन्हें गामा के इस कारनामे को याद करते हुए शर्मिंदा होने की जरूरत है।
गामा को पाकिस्तान से ज्यादा प्यार हिंदुस्तान से मिला
शायद यही वो कारण है कि आज भी पाकिस्तान से ज्यादा गामा भारत में याद किये जाते हैं। लाहौर में पैदा हुए और इंग्लैंड में रह रहे त्वचा विशेषज्ञ डॉ आमिर बट्ट पाकिस्तानी हो कर भी ये लिखते हैं कि जितना सम्मान गामा को हिंदुस्तान में मिला उतना पाकिस्तान नहीं दे पाया। इतिहास में काफी रुचि रखने वाले डॉ बट्ट ने चिंता जाहिर करते हुए पाकिस्तानी अख़बार नेशन में ये लिखा महाराष्ट्र के कोल्हापुर में कुछ साल पहले जब गामा पहलवान के नाती कुछ अन्य पहलवानों के साथ लाहौर से किसी कुश्ती दंगल में भाग लेने पहुंचा तो पूरे इलाके में चर्चा हो गई कि गामा पहलवान का नाती आया है। आस पास के जिलों के करीब 2 लाख गांव वाले उसकी कुश्ती में गामा पहलवान की एक झलक पाने के लिए 14 घंटे पानी में भीगते रहे। उनके मुताबिक भारत मे इतना सम्मान तो क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर को भी नहीं मिलता। आज भारत के लोग उसके नाती के सम्मान में भी 14 घंटे बारिश में खड़े होकर इंतजार करते हैं और दूसरी तरफ पाकिस्तान के युवा हैं, जो उसे पहचानते भी नहीं। डॉ बट के मुताबिक नवाज शरीफ की बीवी कलसुम शरीफ गामा पहलवान की ही नातिन हैं।
गामा को टाटा भेजते थे हर महीने रुपये
गामा पहलवान ने अपनी पहलवानी के 50 साल के करियर में एक भी मुकाबला ना हार कर एक नया इतिहास रचा था। उन दिनों जब ना इतने संसाधन थे ना लोगों के पास इतना धन था कि वो अपने शौक को आगे तक ले जा सकें, उस समय में गामा ने अपना सब कुछ पहलवानी को दे दिया था। कहा जाता है कि जे आर डी टाटा की तरफ से हर महीने 2000 रुपये गामा पहलवान को खर्च के लिए भेजे जाते थे।
एक दिन खुशी तो अगले दिन गम
अपनी ताकत से बड़े-बड़े पहलवानों को चित कर देने वाला ‘दुनिया का सबसे बड़ा पहलवान’ दिल की बीमारी के कारण अपनी सांसें रोकने पर मजबूर हो गया। एक तरफ जहां 22 मई को गामा पहलवान के जन्म की खुशी मनाई जाती है वहीँ उसके अगले दिन मन शोक में दूब जाता है क्योंकि गामा अपने 82वें जन्मदिन के ठीक एक दिन बाद 23 मई, 1960 को इस दुनिया को अलविदा कह गए थे।
धीरज झा
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