'जब समझ ही ना पाएं तब फिल्म देखे ही क्यों ?' ये सवाल मैंने खुद से किया जब मैंने देखी लखनऊ की गलियों में गुलाटी खाती फिल...
'जब समझ ही ना पाएं तब फिल्म देखे ही क्यों ?'
ये सवाल मैंने खुद से किया जब मैंने देखी लखनऊ की गलियों में गुलाटी खाती फिल्म गुलाबो सिताबो । कम शब्दों में समझना हो तो यही समझिए कि ये फिल्म गुड्डे गुड़िया का खेल है जहां नाचते तो खिलौने हैं लेकिन डोर किसी और के ही हाथ में होती है । इस फिल्म को समझना उनके बस की बात तो बिल्कुल भी नहीं जिन्हें एक्शन का तड़का और थ्रिलर फ्राई फिल्में पसंद हैं ।
इसे समझने के लिए बहुत गहरे उतरना पड़ेगा, दिल को बहुत ज़ोर से और बहुत देर तक थामना पड़ेगा । कहने को तो फिल्म का केंद्र बिंदू फातिमा महल है, जो कोई ताज महल नहीं लेकिन फातिमा महल का महत्व ताज महल से कहीं कम भी नहीं है । अगर ताज महल मोहब्बत की निशानी है तो फातिमा महल मोहब्बत की जीती जागती मिसाल । ये मोहब्बत है एक लालची बूढ़े की इस पुरानी हवेली से । ऐसी मोहब्बत जिसके लिए बूढ़ा सालों से इस हवेली को पाने की चाहत लिए इसी में पड़ा है ।
जितना कोई महबूब अपनी महबूबा को चाह सकता है उससे कहीं ज़्यादा मिर्जा (अमिताभ बच्चन) फातिमा महल नामक इस हवेली को चाहते हैं । लेकिन कहते हैं ना कि वो मोहब्बत ही क्या जिसके रास्ते में आग का दरिया ना हो । किसी ना किसी रूप में मोहब्बत के रास्ते में ये दरिया तो आता ही है । यहां भी मिर्जा और हवेली की मोहब्बत के बीच आग का दरिया खोद रहे हैं हवेली में रहने वाले किराएदार ।
बाँके (आयुष्मान खुराना) इन कराएदारों का हेड है । आटा चक्की चलाने वाला ये शख्स आज के दौर में 30 रुपये महीने पर इस हवेली में अपनी 3 बहनों और मां के साथ रहता है । इसी तरह के कई और किराएदार भी इस हवेली में रहते हैं । असल जंग मिर्जा और किराएदारों के बीच है । यहां मिर्जा और बाँके का रिश्ता किसी मध्यवर्गीय मियां बीवी के रिश्ते जैसा है जिन्हें गाड़ी के दो पहियों की तरह साथ भी चलना है और नजदीक भी नहीं आना । जो एक दूसरे से झगड़ते तो हैं लेकिन एक दूसरे के बिना किसी काम के भी नहीं ।
फिल्म की एक बात सबसे खास लगी मुझे । इसमें लीड रोल में जहां एक तरफ फिल्मी दुनिया के चमकते सितारे आयुष्मान खुराना हैं वहीं हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन । ऐसे में भला किसी और पर ध्यान ही क्यों जाए मगर यहां ऐसा बिल्कुल नहीं है । यहां तो फिल्म की असली खुबसूरती ही स्पोर्टिंग कलाकारों से है ।
एक तरह से ये फिल्म कोई मटर पनीर नहीं जहां मटर सिर्फ नाम के लिए हो बाक़ी असल पूछ पनीर की हो रही हो । ये फिल्म तो मिक्स वेज है जिसमें ध्यान भले पनीर खोजने पर हो लेकिन भूमिका अन्य सब्जियों की भी बेहद महत्वपूर्ण साबित होती है । विजय राज का तो यहां हर कोई फैन है, बिजेंदर काला को कल ही आंखों देखी में देखा था । उनके बारे में सोच ही रहा था कि वे इस फिल्म में भी दिख गये । बंदे में गजब का टेलंट है भिया । बाक़ी अन्य साथी कलाकार भी कमाल के रहे । गुडडो और बेगम के तो क्या ही कहने ।
फिल्म में एक और बात आकर्षित करती है और वो है लखनऊ को जी भर के देखना । मेरी नज़र से फिल्म में लखनऊ को किसी अहम किरदार जितनी जगह दी गयी है ।
कुल मिला कर मुझे ये फिल्म देखने लायक लगी । ज़िंदगी के कई सबक सीखे जा सकते हैं इस फिल्म को देख कर । अगर आप भी इसे देखने का मन बना रहे हैं तो कुछ बातों का ध्यान ज़रुर रखें :
* इसे हड़बड़ी में बिल्कुल ना देखें, वर्ना कुछ समझ नहीं आएगा ।
*फिल्म देखने से पहले ये तो बिल्कुल ना सोचें कि आप महानायक अमिताभ और अपनी अलग तरह की फिल्मों के लिए पहचाने जाने वाले आयुष्मान की फिल्म देख रहे हैं । ऐसा ना किया तो पक्का आप निराश होंगे ।
*फिल्म में हँसी के लिए चुटकलों का इंतज़ार ना करें, ये लखनऊ है यहां बातचीत में ही हँसी फूट जाती है ।
*अंतिम और सबसे अहम बात, ये गुलाबो सितबो पर मेरे विचार हैं, मेरे शब्द हैं । आप इस पोस्ट के आधार पर फिल्म देखने का विचार कतई ना बनाएं ।
धन्यवाद
धीरज झा
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