[{ नई कहानी -: सहेली }] तब तक उसे कुछ मालूम नहीं था जब उसने अपनी सहेली के होंटों पर जमी मुस्कुराहट को देखते हुए अपने गर्मजोशी से भरे वादे...
[{ नई कहानी -: सहेली }]
तब तक उसे कुछ मालूम नहीं था जब उसने अपनी सहेली के होंटों पर जमी मुस्कुराहट को देखते हुए अपने गर्मजोशी से भरे वादे के साथ ये कहा था "जब मेरी जॉब लग जाएगी ना तो हम पहाड़ों में घूमने चलेंगे । सुना है वहां की हवा में ज़िंदगी खुल कर मुस्कुराती है ।"
हालांकि अभी तक मालूम सहेली को भी ना था, इसीलिए उसने भी अपनी पिघलती मुस्कान को ज़ुबां से लपेटते हुए कहा था "हां यार, मगर चलेंगे अपनी इसी स्कूटी पर ही । मुझे भी ज़िंदगी को खुल के मुस्कुराते हुए देखना है ।"
"हां मगर अभी तो पढ़ लें तभी तो इग्ज़ाम पास करेंगे, तभी तो आगे पढ़ेंगे, तभी तो जॉब...." सहेली ने उसके होंटों पर अपनी ककड़ी सी नर्म उंगली रख दी थी ।
"इतनी प्लैनिंग से ज़िंदगी मुस्कुराती तो मेरे पापा आज दुनिया के सबसे ज़्यादा मुस्कुराने वाले इंसान होते । वो तो सांस भी प्लैनिंग से लेते हैं ।"
"अच्छा तो ज़रा बताएंगी कि कैसे जीते हैं ज़िंदगी ।"
"अरे यार जो सामने है उसे जी लो । पहाड़ों में न जाने कब जाने को मिले मगर अभी उसका ख़याल आया है तो उसे ही खुल कर जी लो । कौन जाने कल क्या हो ।"
"देख तेरी बातें सुन कर आसमान भी रो पड़ा ।"
"अरे बारिश ! वाह, चल ना भीगते हैं ।"
"पागल है क्या इतनी रात को कौन भीगता है ?"
"कोई नहीं भीगता इसीलिए तो इस अंधी बारिश का दुलार नहीं ले पाता । चल ना बड़ा सुकून है इसमें ।" आने वाले कल की पहेली का जवाब ना उसे पता था ना उसकी सहेली को शायद इसीलिए इतने अच्छे से बादलों का दुलार ले पाई थीं दोनों ।
उसकी सहेली आज बहुत खुश थी । उसने उसे आज से पहले इतना खुश कभी नहीं देखा था । सच कहूं तो उदास होने की मनाही के साथ अगर मुझे मेरी ज़िंदगी का आखिरी दिन जीना हो तो मैं इसी तरह खुश रहूंगा जिस तरह उसकी सहेली थी । ये बादल जो बरसते हैं और फिर कहीं दूर आसमान में खो जाते हैं किसी को भला इतनी खुशी कैसे दे सकते हैं । ऐसा लग रहा था मानों किसान ने अपनी अपनी फसलों, ग़रीब ने अपनी फूस की छत और किसी बच्चे ने अपने रेत के घरौंदे दे कर इस बच्ची के लिए खुशियां खरीदीं हों आज ।
एग्ज़ाम आने वाले थे । उसके सोते हुए ही वो उठ कर अपने घर चली गयी थी ये सोच कर कि समय कम है जितना पढ़ पाऊं उतना अच्छा । सुबह सहेली ने उठते ही सबसे पहले उसे खोजा । वो मिली नहीं । सहेली ने फोन किया ।
फोन उठते ही "तुझे कहा था ना मेरे पास रहना । कुछ दिनों तक मैं सुबह उठते सबसे पहले तुझे देखना चाहती हूं ।"
"अरे मेरी जान एग्ज़ाम हैं, मैंने सोचा थोड़ा पढ़ लूंगी ।"
"वो तो तू यहां भी पढ़ सकती थी ।"
"अच्छा बाबा गलती हो गयी, मैं आती हूं ।"
"अब मत आना कभी मत आना । अपनी शक्ल भी मत दिखाना ।" वो समझ ही नहीं पाई कि उसकी सहेली में इतना रूखापन कब से भर गया । वो तो एक नंबर की हँसोड़ थी । फिर अचानक से ऐसा क्यों ? कई बार उसे फोन किया मगर उसने फोन नहीं उठाया । उसके घर गयी तो दरवाज़ा बंद कर लिया । उसकी मम्मी को भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसे हुआ क्या है। सबके साथ वो ऐसी ही हो गयी थी ।
इसे भी गुस्सा आ गया । भला इतनी भी क्या नवाबी कि एक छोटी सी बात पर मुंह फुला लो । नहीं बोलती तो ना बोले ।
कुछ दिनों में ही एग्ज़ाम आ गये । एग्ज़ाम के बाद एग्ज़ाम हॉल के बाहर सहेली को देख वो अपने आप को रोक ना पाई । नज़दीक जा कर पूछ ही लिया ।
"कैसा रहा ?"
"ठीक नहीं रहा यार । चक्कर से आ रहे हैं ।" शायद सहेली भी बात करना चाहती थी ।
"और नहाओ बारिश में । रात भी भीगती रही है ना ।"
"मम्मी के साथ मेरी जासूसी करते करते तू भी उनकी ज़ुबान बोलने लगी । और नहाओ, और खाओ, और जाओ । जीने दो यार ।"
"चल डॉक्टर के पास ।"
"नहीं यार आराम कर लूंगी सही हे जाएगा ।" उसने बहुत कहा मगर उसकी सहेली ना मानी ।
"ठीक है । तू किसी की मानेगी ही नहीं तो जैसा मन वैसा कर । ख़याल रखना ।"
"सुन ।"
"हां बता ।"
"आज आ जाना सोने ।" वो मुस्कुरा दी सहेली की बात पर ।
"हां पक्का ।" इसके बाद दोनों घर चले गये ।
आज वो जाने वाली थी सहेली के घर । सोच रही थी खूब लड़ेगी उससे कि इतने दिन क्यों बात नहीं की लेकिन शाम को ही उसकी मम्मी का आगया । उन्होंने बताया कि सहेली हॉस्पिटल में है । भागी भागी हॉस्पिटल गयी । पता चला सेल घट गये हैं । रैफर कर रहे हैं । पांच घंटे का सफर और इधर ज़िंदगी मिनट भर रुकने को तैयार नहीं ।
हॉस्पिटल पहुंचे सैल चढ़ाए गये । हालत ज़रा सी सुधरती कि रिपोर्ट आ गयी । वो लड़की जिसे अभी जीना था, ज़िंदगी को खुल कर मुस्कुराते देखना था, पहाड़ घूमने थे, खूब बातें करनी थीं, बारिश में नहाना था उसे ब्लड कैंसर था, लास्ट स्टेज का ।
कहते हैं बुरा वक्त काटे नहीं कटता लेकिन यहां तो बुरे वक्त ने समय ही नहीं दिया । वो रो रो कर मरी जा रही थी । उस सफेद कपड़े में लिपटी लड़की के लिए सबसे ज़्यादा वही चीख़ रही थी । सांसों के चलते हुए रूह को जिस्म से अलग करना इतनी ही पीड़ा पहुंचाता होगा जितनी इस समय उसे हो रही थी । एक पल को लगा एक नहीं दो लाशें उठेंगीं आज । उसे बार बार एक ही बात याद आ रही थी "मैं सुब उठते तुझे देखना चाहती थी कुछ दिन ।" पता होता कि कुछ दिन इतने कम होंगे तो उसका साया बन जाती, उसके साथ ही चली जाती ।
जैसे सबको संभालता है समय ने उसे भी संभाला । उसके घर उसकी मां से मिलने गयी तो उन्होंने रोते हुए एक पर्ची पकड़ा दी जिसकी लिखावट बता रही थी कि इसे लिखते हुए हाथ किस तरह से कांपे होंगे उसके । उसने पर्ची पढ़ा और उसे मुट्ठी में इतनी ज़ोर से मीच लिया कि एक एक शब्द कराह उठा ।
समय कैसा भी हो बीत जाता है । ये भी बीत गया । आज चार साल हो गये सहेली को गये हुए । जॉब लग गयी है उसकी । मां ने फोन किया था । पूछ रही थीं "छः महीने हो गये हैं जॉब पर गये । घर चक्कर मार जा ।"
"इस बार नहीं मां । अगली बार आऊंगी ।"
इस बार वो कहीं और जाना चाहती है । हां पहाड़ों में । होटल की बालकनी से सामने का नज़ारा उतना ही सुंदर है जितना ज़िंदगी को मुस्कुराता देखना ।
वो सामने का नज़ारा देखते हुए जेब से कागज़ का टुकड़ा निकालती है जिस पर कांपते हाथों से कभी उसकी सहेली ने लिखा था "पहाड़ों में ज़रूर जाना । मुझे तुझ में से ज़िंदगी को मुस्कुराते देखना है ।"
ज़िंदगी के साथ साथ वो भी मुस्कुराती है और खुद से ही कहती है "हैप्पी बर्थ डे जान । देख ज़िंदगी मुस्कुरा रही है ।"
बादलों में एक चेहरा उभरता है जिसके होंटों पर जमी है वही खूबसूरत सी मुस्कुराहट ।
धीरज झा
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