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ये कैसे हुआ मैं नहीं जानता लेकिन फोन का रिसीवर कान से लगाते ही मेरा दिल सालों बाद ठीक उसी तरह धड़कने लगा था जैसे उसके साथ होने पर धड़का करता था । उधर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी मगर मुझे पूरा यकीन था ये वही थी ।
"कहां हो तुम, कम से कम एक बार बताओ तो सही । तुम ठीक हो ना ?" ये वही थी, इस बात पर मुझे इतना यकीन था कि मैं बिना उधर से कोई आवाज़ सुने ये सब कह गया ।
कुछ देर में उधर से बिना कुछ कहे फोन काट दिया गया । मैं ऐसे तिलमिला उठा जैसे मुझ पर किसी ने खौलता हुआ तेल डाल दिया हो । मैंने वो नंबर दोबारा मिलाया मगर उधर से किसी ने नहीं उठाया । मैं लगातार नंबर मिलाता रहा मगर कोई जवाब नहीं आया ।
मैं सातवीं बार नंबर मिलाने जा रहा था कि फोन की रिंग बजने । ऑफिस टेबल के पीछे बैठा शख्स पहले से ही मुझे घूर रहा था । फोन आने के बाद उसने चाहा कि वो रिसीवर उठा ले मगर जब तक वो वहां तक पहुंचता उससे पहले ही मैंने फोन उठा लिया । उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया हो । लेकिन मुझे इस वक़्त किसी की परवाह नहीं थी ।
"ये कोई तरीका होता है ?" फोन उठाते ही मैंने दुख और गुस्से के मिले जुलेभाव में कहा ।
"तरीका नाम की कोई चीज़ नहीं होती । आप जिस ढंग को अपना लें वही तरीका है और वही सही भी । जैसे कि आप जो कर रहे हैं हमारे साथ वो भी आपके लिए सही ही है ।" ये आवाज़ उसकी नहीं थी ।
फिर भी मैंने एक बार सुनिश्चित किया "हेलो, तुम ही हो ना ?"
"और किसी का भी फोन आता है क्या ? शायद इसीलिए हफ्ते भर से मेरे फोन का जवाब नहीं दे रहे थे ।" ये सलोनी थी । उसकी शिकायत सुनने के बाद मैं जैसे नींद से जाग गया था । ऐसी नींद जहां मेरा सपना मेरे एकदम करीब आ गया था ।
"नहीं ऐसी कोई बात नहीं । वो हरीश बार बार फोन कर रहा था तो मुझे लगा वही होगा ।" मैंने झूठ बोल कर पीछा छुड़ाना चाहा । सलोनी की तमाम अच्छी आदतों में ये आदत भी अच्छी थी कि वो किसी बात को जानने के लिए ज़्यादा दबाव नहीं डालती थी । उसका यही जानना बहुत था कि मैं ठीक हूं या नहीं ।
"कैसे हो तुम ? कई बार फोन किया मगर तुमसे बात नहीं हो पाई इसीलिए फिक्र हो रही थी तुम्हारी ।"
"मैं ठीक हूं । आज कल समय नहीं मिल पा रहा ।" हालांकि ये झूठ बात थी । मैं खुद ही किसी से बात नहीं करना चाहता था । घर भी फोन करता तो सिर्फ़ मां की तबियत और घर की किसी ज़रूरत के बारे में जानने के लिए । इतनी चिढ़ और उदासी के बाद भी सलोनी का ऐसे फिक्र करना अच्छा लगता था । इंसान शायद उदास ही इसलिए होता है कि कोई उसके नज़दीक आए । हालांकि वो ये बात मानता नहीं मगर सच यही होता है ।
इसी तरह की कुछ बातों के साथ फोन कट गया । सलोनी घर लौट आई थी । वो अब घर से ही तैयारी करना चाहती थी । उसने कहा कि वो मिलना चाहती है मुझसे । एक बार अपनी आंखों से देखना चाहती है कि मैं ठीक तो हूं । मैंने मना किया मगर वो नहीं मानी । हार कर मुझे कहना पड़ा कि जल्द ही मैं बताऊंगा कि कब मिल सकते हैं । रुड़की से ज़्यादा समय नहीं लगता यहां आने में । ऊपर से उसकी मौसी यहीं मसूरी में ही रहती हैं । वो जितनी बेचैन लग रही थी मैं मैं उससे मिलने से उतना ही घबरा रहा था ।
मेरी ज़िंदगी में ट्रेनिंग के सिवा कुछ खास नहीं बचा था । सुबह 5 बजे उठना और रात तक एकेडमी के बनाए नियमों के हिसाब से चलते रहना । बस इतना ही था । मुझे अब कुछ महसूस ही नहीं होता था । किसी मशीन की तरह अपना काम मैंने दिमाग में फिट कर लिया था । रात जहां बाक़ी साथी थके नज़र आते वहीं मेरे चेहरे पर ना कोई थकान दिखती और ना मुझे कुछ महसूस होता । उस दिन जिस नंबर से फोन आया था उस पर बाद में मैंने बात की थी वो नंबर किसी स्टेशन के टेलीफोनी बूथ का था । उसे याद भी नहीं था कि ये नंबर मिलाने वाला था कौन । उससे बात नहीं हुई थी लेकिन मेरा मन कह रहा था कि ये वही है ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद तक मैं उदास रहा लेकिन अब उदासी भी नहीं थी । मैं बिल्कुल अजीब हो गया था । कभी कभी मन होता की खुल के रो लूं मगर ना रोना आता और ना आंसू । नियति मेरी ये हालात बदलना चाहती थी । शायद वो हैरान थी ये देख कर कि मेरे जीवन में इतना कुछ है रोने को फिर भी मैं रो क्यों नहीं रहा ।
फिर एक दिन घर से फोन आया, मां की तबियत बेहद खराब थी । उसे हॉस्पिटल में एडमिट किया गया था । वो बार बार मुझे बुला रही थी । उसके लिए तो मैं एक नौकरी में था जहां से कभी भी छुट्टी लेकर आ सकता था मगर वो नहीं जानती थी कि जहां मैं हूं वहां इतनी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती । लेकिन मुझे मिल गई । मेरे पास घर जाने का कारण भी था और मैंने अभी तक एक दिन भी ट्रेनिंग मिस नहीं की थी ।
मां की तबियत मुझे हर बार डरा देती थी । उसे देख कर ऐसा लगता था मानों उसकी जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी हो । घर पहुंचा तो मां की हालत देख कर मेरे अंदर जमा सारा गम पिघलने लगा । सुनीता का रो रो कर बुरा हाल था । डॉक्टर कह रहे थे हालत स्थिर होने में समय लगेगा और समय मेरे पास था नहीं । मुझे समय की चिंता नहीं थी । मुझे बस किस्मत से डर लग रहा था ।
"आ गए बबुआ ?" नींद खुलने पर मां ने पूछा मुझसे ।
"हां मां आ गया । कैसा लग रहा है ?"
"ठीक ही है, बेकार में सब घबरा जाते हैं ।" मां को याद ही नहीं था कि वो इतनी बेसुध हो गई थीं कि बार बार मेरा नाम पुकार रही थीं ।
"सब बहुत प्यार करते हैं ना तुमसे इसीलिए घबरा जाते हैं ।" मैंने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा । मां भी इस पर मुस्कुरा दी ।
"हां सो तो है । तुम्हारा नौकरी कैसा चल रहा है ।" मां के इस सवाल पर हर बार की तरह मुझे झूठ बोलना पड़ता था ।
"अच्छी चल रही है मां । अब जल्दी ही बाबू साहब बन जाएंगे ।"
"दरमाहा भी बढ़ेगा ?" हर बार की तरह मां का पहला सवाल यही था । होता भी कैसे ना दो बेटियों की चिंता जो थी उन्हें । हालांकि मैं अभी उनकी शादी के बारे में सोच भी नहीं रहा था । अभी उन्हें खूब पढ़ना था ।
"हां मां वो भी बढ़ेगा । बस अब तू ठीक हो जा जल्दी से । एतना दरमाहा का हिसाब भी तो रखना होगा ना ।" मां मेरी बात सुन के हल्का सा हंसी । उनकी हालत इससे ज़्यादा हंसी की इजाज़त नहीं दे रही थी ।
"हम कौन पढ़े लिखे हैं । तू खुद ले आ कोई जो तेरा दरमाहा गिन ले और उसका हिसाब भी रखे । पिछली बार भी शादी के लिए कहा था लेकिन तू तो है कि सुनता ही नहीं । अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है बेटा । जाने से पहले...।" शायद ये डायलॉग भारत की हर मां के लिए अनिवार्य कर दिया गया है । मैंने भी हां में सर हिला दिया ।
उस रात हॉस्पिटल में बैठे मैं सोच रहा था कि जिसके लिए मां ने इतने दुख सहे वो खुशी उनसे और नहीं छुपा सकता । वैसे भी मैंने कोई अपराध तो नहीं किया । ये सुन कर उन्हें मुझ पर गर्व होगा कि मैं अपने दम पर एक बड़ा अधिकारी बनने वाला हूं । मैंने तय कर लिया कि मैं कल सुबह ही मां को सब सच बता दूंगा । लेकिन ये तय करते हुए मैं भूल गया कि मेरे तय करने से कुछ नहीं होगा । ये तो वो नियति तय करती है जिसे इंसान के साथ खेल खेलने में मज़ा आता है ।
मां अगले दिन का सूरज भी ना देख पाई । सुबह लगभग साढ़े चार बजे वो हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई । मेरे सूख चुके आंसुओं ने आज फिर से बरसना शुरू कर दिया था । खुद के साथ साथ दो छोटी बहनों को संभालना था मुझे । मां ने जितना दुख हमारे लिए झेला था वो सब याद आ रहा था मुझे । वो शायद हमारे हिस्से का दुख कम करने ही आई थी । इसीलिए तो दुखों के बदले एक सुख भी ना ले गई साथ ।
मैं ग्लानि से भरा हुआ था, उसके जाने से पहले उसे वो सच भी ना बता पाया जिसे जानना उसका पहला अधिकार था । पिता जी के जाने के बाद आसमान छिन गया था हमसे और आज मां हमसे ज़मीन भी छीन ले गई । बहनों के लिए मैं था मगर मैं खुद आज अनाथ हो चुका था ।
अब सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि बहनों की देखभाल कैसे करूंगा । गांव अपना था कुछ अच्छे लोग भी थे यहां मगर फिर भी बहनों को यहां अकेला नहीं छोड़ सकता था । ऐसे में फिर एक बार सलोनी मेरे लिए फरिश्ता बन कर सामने आई । उसे जब मैंने सारी बात बताई तो उसने बिना देर किए ये फैसला सुना दिया कि मेरी बहनें अब से उसके घर रहेंगी । उसने अपने घरवालों से भी बात कर ली थी । वहां इनके रहने और आगे पढ़ पाने की समस्या का भी समाधान हो सकता था ।
हमेशा की तरह मैंने पहले बहुत मना किया मगर अंत में मुझे उसकी बात माननी ही पड़ी । और कोई रास्ता भी तो नहीं था । कुछ रिश्तेदार थे जो सालों पहले हमसे संबंध तोड़ चुके थे । अब कुल मिला कर यही एक रास्ता बचा था ।
मैंने सुनीता और लक्ष्मी को सारी सच्चाई बता दी । दोनों के लिए ये खबर सूखे में बारिश की फुहार जैसी थी । मां के जाने से दुखी इन दोनों के चेहरे पर खुशी झलकने लगी । कुछ दिनों बाद मैं अपनी बहनों को सलोनी के घर छोड़ कर एकेडमी लौट आया ।
क्रमशः
धीरज झा
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