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ज़िंदगी हर रोज़ अपने नए रंग में नज़र आती है । उसे हर रोज़ हमारे साथ खेलने में मज़ा आता है । आज जो जैसा दिखता कल उसका रूप कुछ और होता है । किसी पर कोई ठोस राय नहीं बना सकते आप । मैंने इस बाबा के लिए क्या कुछ नहीं सोचा, इसे क्या कुछ नहीं कहा । मैंने इन पर इस लड़की के साथ कुछ गलत करने तक का इल्ज़ाम लगाया । अब मुझे अहसास हो रहा था उनके उन आँसूओं का जो मेरे तीर समान चुभते शब्दों के साथ निकल रहे थे । मैं ऐसा इंसान था जिसने अपनी आम ज़िंदगी से लेकर अपने सरकारी दायित्व भरे जीवन तक में कड़े शब्दों से किसी का दिल नहीं दुखाया था और आज मैंने ही एक निर्दोष इंसान पर उसकी अपनी बेटी के साथ गलत करने का इल्ज़ाम लगा दिया था ?
मैं नियमों कानून का पालन करने वाला शख्स कैसे खुद को न्यायाधीश मानते हुए किसी को आरोपी ठहरा सकता हूं ? वो भी बिना सच जाने । उस लड़की के इन शब्दों ने मुझे जड़ कर दिया था । मैं चाहता था कि कुछ ऐसा हो कि मुझे फिर से इस लड़की और बाबा का सामना ना करना पड़े । लेकिन सच अभी भी अधूरा था । उसका पूरा होना ज़रूरी था ।
"ये क्या कह रही हो ? कोई पिता अपनी ही बेटी की असलियत क्यों छुपाएगा ? और अगर तुमने इनसे ऐसा करने को कहा तो भला क्यों ?" मुझे इस बात का यकीन नहीं हो रहा था कि मैं इतने सालों से उसे सच साबित करने में लगा हुआ था जिसने खुद अपने झूठे होने की साज़िश रची थी ।
"क्योंकि तुम्हें खुद से दूर करना चाहती थी मैं। क्योंकि खुद को तुम्हारे लायक नहीं समझ रही थी मैं । क्योंकि मेरी सारी ज़िंदगी ही झूठ पर टिकी थी, क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी नर्क नहीं करना चाहती थी मैं ।" उसने चिल्लाते हुए कहा । मैं स्तब्ध था और वो बेचैन ।
"तो जो पहले था वो सब ? तुम्हारा वो घर तुम्हारे पिता वो सब क्या था और क्यों था ?" मैं थर्रा कर वहीं ज़मीन पर बैठ गया ।
"वो सब झूठ था ।" उसके आँसूओं ने सारे बांध तोड़ दिए थे । वो रो रो कर सब बताती रही और मैं पत्थर की तरह चुपचाप सब सुनता रहा ।.....
सालों पहले...
जब तुम दिल्ली चले आए तो मेरे लिए दिन काटने मुश्किल होने लगे । मैंने कॉलेज जाना छोड़ दिया । मुझे हर वो रास्ता चौक चौराहा और जगह काटने को दौड़ती थी जहां मुझे तुम दिखा करते थे । पहली बार जाना कि भीड़ में भी तन्हा होना क्या होता है । तुम्हारे जाते ही ऐसा लगा जैसे दुनिया वीरान सी हो गई है । जिधर जाती सिर्फ़ तुम दिखते । तुम्हारे पास नंबर था घर का, ये सोच कर मैं घंटों टेलीफोन के आगे बैठी रहती फिर खुद को समझा लेती कि तुम हमारे लिए ही तो वहां गए हो । अगर तुम मेहनत नहीं करोगे तो हम एक कैसे होंगे । बस कुछ ही दिनों की तो बात है उसके बाद तो सारी उम्र साथ रहना है ।
सिर्फ़ इतनी बात खुद को समझाने में मुझे 6 महीने लग गए । तुम्हारी याद तो बहुत आती थी मगर मैंने खुद को संभाल लिया था । दिन गिन रही थी मैं । लगता था कि दुनिया में सिर्फ़ मैं तुम और ये वक़्त है लेकिन मैं भूल गई थी कि ज़िंदगी तो हर रोज़ अपना रूप बदलती है । इस बार तो उसने ऐसे अपना रूप बदला कि मैं सब कुछ भूल गई ।
एक दिन अचानक ही पता लगा कि मेरी सारी ज़िंदगी ही झूठ है । जिसे मैं अपना मानती रही असल में वो ज़िंदगी एक उधार थी । एक ऐसा उधार जिसे मेरे एक पिता ने दूसरे पिता के एक अहसान के बदले में चुकाया था । ये जो बाबा हैं ये मेरे पिता हैं । ऐसे पिता जिन्हें मैं पहचानती भी नहीं थी ।
एक दिन पापा अपना सारा काम छोड़ कर एक मैले कुचैले कपड़े पहने साधारण से आदमी के लिए भागे आए । उस शख्स ने पापा के सामने हाथ जोड़े तो पापा ने आगे से उन्हें गले लगा लिया । ऐसा करते कभी देखा नहीं था पापा को । वो आसमान में उड़ने वालों में से थे ज़मीन पर रहने वालों का उन्हें खयाल ही नहीं था लेकिन ये अलग नज़ारा था ।
"मालिक अब हमको हमारी अमानत सौंप दीजिए ।" उस शख्स ने पापा से कहा ।
"हिम्मत तुमने हमारे लिए जो किया है उसका देना नहीं दे सकते हम ।"
पापा की बात आधे में काट कर वो शख्स बोला "आपने भी तो हमारे लिए कितना किया है । लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपनी बेटी को अपने साथ ले जाएं । उसका बचपन भी नहीं देख पाए हम सही से । लेकिन अब उसके लिए सब करेंगे ।"
"वो सब ठीक है हिम्मत लेकिन तुम बिटिया को हमारे पास छोड़ गए थे । हमने वादा भी किया था कि जब तक तुम नहीं लौटते तब तक हम उसे अपनी बेटी की तरह पालेंगे और हमने पाला भी लेकिन हिम्मत अब वो सच में हमारी बेटी हो गई है । उसे हमसे मत छीनो । बदले में जो तुम्हें चाहिए वो मांग लो ।"
"लेकिन मालिक उसके सिवा हमारा कोई नहीं । जब वही नहीं होगी तो बाक़ी कोई चीज़ हमारे किस काम की ।"
"ज़रा सोचो, वो कितने आराम में पली बढ़ी है । क्या वो एकदम से खुद को तुम्हारे बनाए हालातों में ढाल पाएगी । बेवकूफी मत करो । अपने स्वार्थ के लिए क्यों उसकी ज़िंदगी बर्बाद करोगे ।" पापा के बहुत समझाने पर बाबा मान गए । बदले में उन्होंने बस इतना मांगा कि वो इसी घर में नौकरी करेंगे जिससे वो मेरे पास रह सकें । पापा ने मान लिया लेकिन उनसे वादा ले लिया कि मुझे इन सब बातों के बारे में ना पता चले ।
उन दोनों को ये कहां पता था कि मैं उनकी बातें सुन रही हूं । मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब सच है । मैं चाहती तो बाबा को जा कर गले लगा सकती थी लेकिन मैं उनके सामने तक नहीं गई । मुझे कुछ वक़्त चाहिए था । लेकिन ये वक्त था कि मुझे मोहलत देने को तैयार ही नहीं था । इस बात को दो ही महीने बीते थे कि पापा ने ये तय किया कि वो मुझे ले कर अमेरिका शिफ्ट हो जाएंगे । उन्हें पता नहीं था कि मैं किन हालातों से गुज़र रही हूं । उन्हें तो बस ये डर था कि कहीं मैं सब सच ना जान जाऊं । मैं जैसे पत्थर हो गई थी । मुझे अपनी पूरी ज़िंदगी एक उधार लग रही थी ।
मैं पूछना चाहती थी बाबा से कि आखिर ऐसा क्यों किया उन्होंने, क्यों नहीं मुझे अपने साथ रखा लेकिन मैं कुछ पूछने या कहने की हालत में नहीं थी । पापा कभी अच्छे से वक़्त नहीं दे पाते थे मुझे लेकिन जितनी देर भी मेरे साथ रहते खुश रहते । मां के बाद उनके लिए सिर्फ़ मैं ही तो जीने का सहारा थी । मैं उनसे उनका ये सहारा नहीं छीन सकती थी ।
पापा सब तय कर चुके थे । हम लोग वीज़ा इंटरव्यू के लिए जा रहे थे । मुझे अचानक से तुम्हारा खयाल आया मैं ये सोच के डर गई कि जब तुम लौटोगे और मैं तुम्हें नहीं मिलूंगी तो तुम्हारा क्या हाल होगा । तुम्हारा कोई फोन या चिट्ठी नहीं आई थी मगर फिर भी मैं जानती थी कि तुम ज़रूर लौटोगे । मैं ऐसे सब छोड़ के नहीं जा सकती थी । मैं अभी पापा से सब कह देना चाहती थी ।
"पापा ।"
"हां बे……।" इससे आगे कोई आवाज़ नहीं आई । एकदम सन्नाटा छा गया । लगा जैसे किसी ने गले की आवाज़ छीन कर घने अंधेरे कमरे में बंद कर दिया हो । हाथ पैर झटके मगर सब स्थिर था । कुछ याद नहीं कि क्या हुआ । जब आंख खुली तो हॉस्पिटल में थी । बाबा मेरे पास थे । मैं बोलने तक की हालत में नहीं थी । मैंने पूछना चाहा पापा कहां हैं ? मगर मैं पूछ ना पाई । हां बाबा के बह रहे आँसूओं ने ज़रूर बता दिया कि पापा नहीं रहे । वो एक भयानक एक्सीडेंट था । मन हुआ की दौड़ कर जाऊं और पापा को खोज लाऊं । मगर तभी अहसास हुआ कि पापा के साथ साथ मेरे दोनों पैर भी मुझसे छीन लिए हैं किस्मत ने ।
एक साल लग गया सिर्फ़ बैठने में । बाबा हर पल साए की तरह मेरे साथ रहने लगे । पहले जो ज़िंदगी उधार की लग रही थी वो अब बोझ लगने लगी । ज़्यादा बात नहीं होती थी हमारी । वो समझ रहे थे कि मुझे सच नहीं पता लेकिन मैं यहां सब जानती थी । उनके पास तो जीने की वजह थी लेकिन उनकी वजह के पास जीने का कोई मक़सद नहीं बचा था । मैं खुद को खत्म करने का मन बना चुकी थी लेकिन किस्मत को तो यहां कुछ और ही मंज़ूर था । जाना मुझे था और चले हरीलाल गए । पापा ने हमेशा मुझे सहेज कर रखा था और उनका सहेजना ही मेरा अकेलापन बन गया था ।
हमउम्र बच्चों के पास अपनी बातें थीं, अपनी बड़ाई थी, लेकिन अपनापन किसी के पास नहीं था इसलिए स्कूल से ही मेरे दोस्त बच्चे नहीं बल्कि वहां काम करने वाले ऐसे लोग होते थे जिनसे कोई नहीं बात करता था । इसी तरह कॉलेज में भी मैं अक्सर हरीलाल और उर्मिला काकी के पास बैठा करती थी । मेरे ऐक्सीडेंट के बाद कई बार मिलने आए थे ये दोनों मुझसे । उर्मिला काकी ने ही बताया कि हरीलाल अपने 3 साल के पोते को अकेला छोड़ इस दुनिया साए चले गए । हरीलाल का पोता रमन ही मेरे जीने की वजह बना । पापा बहुत बड़ी जायदाद छोड़ गए थे जिसे भोगने वाला कोई नहीं था ।
मैंने सोचा मेरे जैसे कई ऐसे बच्चे होंगे जिनकी ज़िंदगी उधार की होगी या फिर कोई संभालने वाला नहीं होगा उन्हें । मैंने तय कर लिया कि मैं ऐसे ही बच्चों को आसरा दूंगी और कोशिश करूंगी कि उन सबका भविष्य संवार सकूं । मैंने बाबा को तुरंत भेजा और रमन की ले आने को कहा । इसके बाद तो बस यही सब चलता रहा ज़िंदगी में ।
इसी बीच पता चला कि तुमने अपनी मंज़िल पा ली है । कॉलेज की तरफ से पूरे शहर में पर्चे बंटवा दिए गए कि उनके यहां के छात्र ने यूपीएससी परीक्षा में 32वां रैंक प्राप्त किया है । हमारा सपना पूरा हो चुका था, अब हम एक होने वाले थे । मैं बहुत दिनों बाद इतनी खुश हुई थी लेकिन इस खुशी में फर्क था । अब मैं हमारे लिए नहीं बल्कि सिर्फ़ तुम्हारे लिए खुश थी । मैंने फैसला कर लिया था कि तुम्हारा मेरा यहीं तक का साथ है । मैं तुम पर बोझ बन कर नहीं रहना चाहती थी ।
मैं ये भी जानती थी कि तुम मुझे खोजते हुए ज़रूर आओगे । मैंने ही बाबा से कहा था कि वो तुम्हें यहां से भेज दें और कहें कि वो मुझे नहीं जानते । वैसे भी उन्होंने झूठी कसम नहीं खाई थी, पापा को कोई औलाद नहीं थी । बाबा ने झूठ नहीं कहा तुमसे बस सच छुपाया । वो वक्त मेरे लिए ज़िंदगी का सबसे मुश्किल वक्त था जब मुझे जान से ज़्यादा प्यार करने वाला शख्स मेरे सामने मेरे लिए ही रो रहा था और मैं उसके आंसू तक ना पोंछ पाई ।
हम लोग किसी नई जगह संस्था शुरू करने जा रहे थे । बहुत याद आ रही थी तुम्हारी । लगा कि नहीं रह पाऊंगी तुम्हारे बिना । मसूरी एकेडमी का नंबर मेरे पास था । स्टेशन से तुम्हें फोन लगाया मगर तुम्हारी आवाज़ सुनने के बाद मन बदल दिया । मैं अपनी खुशी के लिए तुम्हारी मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाहती थी । दूसरी तरफ ये भी डर रहता था कि कहीं तुम मेरे लिए अपनी ज़िंदगी ना बर्बाद कर लो । बाबा को हर वक़्त तुम्हारे पीछे लगा रखा था । वो तुम्हारे ही आसपास होते और तुमसे जुड़ी हर जानकारी मुझे मिल जाती । जिस दिन शादी हुई तुम्हारी उस दिन मैंने चैन की सांस ली । उस दिन के बाद से मुझे तसल्ली हो गई कि अब तुम ठीक हो ।
"यही थी मेरी कहानी । यही थी वो वजह जिस वजह से मैं तुमसे दूर रही । और कुछ भी पूछना हो तो पूछ लो ।" अपनी सारी बात बताते हुए उसने चैन की सांस ली । उसने अपनी सांस पूरी भी नहीं की थी कि एक ज़ोरदार थप्पड़ उसकी गाल पर पड़ा । वो बिना किसी भाव के चेहरा लिए मुझे देखती रही । समझ ही ना पाई कि ये क्या हुआ ।
क्रमशः
धीरज झा
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