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घर में मातम पसरा हुआ था । हर तरफ चीख चिल्लाहट मची हुई थी । सारी उम्र खुद को घूंघट में समेट कर रखने वाली विनय की मां को आज जमीन पर लोट लोट कर रोते समय इतना भी होश ना रहा कि उसका घूंघट उससे छिटक कर भागा जा रहा है । ऐसा हाल हो भी कैसे ना, अपने बेटे, बेटी और अपनी पत्नी को असहाय छोड़ कर जो चले गए थे रतन बाबू । एक छोटी सी फैक्ट्री थी जिससे सब कुछ अच्छा चल रहा था लेकिन जब फैक्ट्री चलाने वाला ही चला गया तो भला पीछे क्या ही अच्छा रहेगा । जिनसे लेना था उनका कोई पता नहीं था और जिन्हें देना था वे अभी से मुंह खोले घूम रहे थे ।
हर कोई अपना दुख प्रकट कर रहा था उस घर के इकलौते मर्द के सामने जिसकी उम्र अभी दो महीने पहले 15 की हुई थी । वो छोटा सा जिम्मेदार मर्द आने जाने वालों के सामने हाथ बांधे खड़ा था । उसकी आँखें शांत थीं, एकदम शांत, ऐसी शांत जिन्हें देख कर मन कांप जाए । आँसू बर्फ से जमे नहीं थे, जमे होते तो कभी ना कभी जरूर पिघलते । ये तो जैसे रेत के ज़र्रों की तरह हो गए थे । आँख से झरते और हवा में मिल जाते ।
इतनी सी उम्र और इतना धैर्य, विश्वास करना मुश्किल हो रहा था । इसी बीच श्यामलाल जी भी पहुंच गए । दिल के बहुत नेक इंसान थे श्यामलाल जी । रतन बाबू के यहां से माल उठाते थे । हैं तो बहुत अमीर लेकिन घमंड रत्ती भर का भी नहीं । व्यापार के अलावा भी रतन बाबू से अक्सर मिलना हो जाता था । उनके यूं चले जाने से बहुत झटका लगा था इन्हें । इतनी बड़ी बीमारी लिए घूम रहे थे लेकिन कभी चर्चा तक ना की । जब कभी श्यामलाल जी कुछ खाने को कहते तो रतन बाबू बहाना बना देते । ये तो अब मालूम पड़ा कि वे परहेज करते थे । ऐसे ही थे रतन बाबू, खुशियां सबके लिए और दुख सिर्फ अपने लिए । खैर जो चला गया उसके बारे में क्या ही कहना ।
बहुत देर तक बैठे रहे श्यामलाल जी । लोगों का आना जाना कुछ कम हुआ तो जा कर विनय के पास बैठ गए । उसके कंधे पर हाथ रखा और जेब से नोटों की गड्डी निकालते हुए उसकी तरफ बढ़ा दी ।
"जानता हूं रतन के इलाज में बहुत खर्च हुआ है । उसके रहते उसे मदद देता रह गया मगर उसने हमेशा मना कर दिया । कहता था भाई साहब जब जरूरत पड़ेगी तो आप ही से कहूंगा । मगर वो झूठा तो बिना कहे ही..." श्यामलाल जी भावुक हो गए लेकिन विनय उसी मुद्रा में बैठा रहा ।
"तू इसे रख ले बेटा और आज से जो भी जरूरत हो बस एक बार कह देना । खुद को अकेला मत समझना ।" इतना कहते हुए श्यामलाल जी ने वो नोटों की गड्डी विनय के हाथ में थमानी चाही । ऐसे इंसान भला आज कल कहां मिलते हैं जो किसी के जाने के बाद उसके परिवार के साथ खड़े हो सकें । और ऐसे इंसान भी कहां मिलते हैं जो मदद के लिए बढ़े हाथों को मना कर सकें ।
"नहीं ताऊ जी, इसकी जरूरत नहीं है । पापा इतना छोड़ गए हैं कि सब अच्छे से हो जाए । और जरूरत पड़ी तो आप ही से कहूंगा । आप बस सही और गलत रास्ते का फर्क बताते रहिएगा । इतना ही बहुत है ।" विनय की बात पर श्यामलाल जी ने उसे गौर से देखा और रोते हुए उसके सिर को सहलाने लगे ।
समय अपनी गति से चलता रहा, विनय ने छोटी सी उम्र में ही अपनी पढ़ाई और फैक्ट्री दोनों की जिम्मेदारी उठा ली । वो जहां भी जाता वहां व्यापार की बारीकियों पर ध्यान देता । लोगों से बात करने से लेकर अपने काम को बढ़ाने तक का हुनर उसने लोगों से ही सीखा । उसे पता होता कि जहां वो जा रहा है वहां उसका मज़ाक भी उड़ाया जा सकता है लेकिन फिर भी वो जाता । लोगों की बातें सुनीं, धमकियाँ सुनीं लेकिन गिरते पड़ते चलता रहा ।
लोगों को सच में लगने लगा कि रतन बाबू परिवार के लिए अच्छा खासा पैसा छोड़ कर गए हैं । समय के साथ विनय ने कारोबार में अपने पिता से कई गुना ज्यादा तरक्की कर ली थी । अब उसका नाम जिले के जाने माने कारोबारियों में आता था ।
विनय की बहन की शादी होने वाली थी, उसी उपलक्ष में घर पर एक पूजा रखी थी । श्यामलाल जी भी आए थे । पूजा संपन्न होने के बाद विनय उन्हीं के पास बैठ गया । वो उसके बड़े से घर को बड़ी गौर से देखते हुए मुस्कुरा रहे थे ।
"गर्व होता है तुझे देख कर । कहां से कहां तक पहुंच गया तू । इतनी कम उम्र में इतनी तरक्की वो भी खुद के दम पर, सोच कर हैरान हो जाता हूं मैं ।"
"सब पापा की देन है ताऊ जी वर्ना मेरे पास था ही क्या । उस उम्र में तो सही गलत की पहचान ही नहीं होती फिर भला मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे उठाता। ये सब पापा का दिया हुआ है ।"
"बेटा बहुत अच्छे से जानता था मैं तेरे पापा को । उसके एक एक रुपए की जानकारी होती थी मुझे । उसके जाने के बाद कुछ खास बचा नहीं था । मैं हमेशा तेरा इंतजार करता रहा ये सोच कर कि तू मदद लेने आएगा मगर पता नहीं तेरे बाप ने मुझसे छुपा कर ऐसी कौन सी दौलत रखी थी जिससे तुझे कभी मदद की जरूरत ही नहीं पड़ी ।" शयामलाल जी ने ये बात हंसते हुए कही थी और विनय भी उनकी बात पर मुस्कुरा दिया ।
"आपसे उनका कहां कुछ छुपा था ताऊ जी । जो आपके सामने था उसी में से उन्होंने मुझे दिया । जानते हैं अपने अंतिम समय में वो और किसी से ज्यादा देर नहीं मिले लेकिन मुझसे वो लगातार बात करते रहे और अंत में अपनी संपत्ति मेरे नाम कर के चले गए । वो संपत्ति थी उनके अंतिम शब्द ।" विनय कुछ देर के लिए खामोश हो गया । उसे डर था कि कहीं इतने सालों से रोक रखे आँसू आज बह ना जाएं । लेकिन उसने खुद को संभाल लिया । वही शांत आँखें, वही रेत के ज़र्रे ।
"उन्होंने जाते हुए मुझसे कहा कि बेटा मैं जा रहा हूं, तुम सबसे बहुत दूर । मेरे बाद घर की जिम्मेदारी मेरे बहादुर बेटे पर होगी । मैं जानता हूं ये तेरे साथ अन्याय होगा लेकिन तुझे ये अन्याय सहना पड़ेगा । मेरे जाने के बाद बहुत सी दिक्कतें आएंगी । मन होगा कि किसी से मदद मांग लें, इसमें कोई हर्ज भी नहीं लेकिन बेटा एक बात याद रखना अगर तू ने अभी किसी की मदद ली ना तो ज़िंदगी भर अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाएगा । ये मदद ऐसी चीज है जो आज आराम देती है लेकिन कल को यही अपाहिज बना देती है । आज तुझे मदद मिली तो तू उम्र भर इसी मदद की तलाश में भटकेगा । इसीलिए कोशिश करना जितना हो सके उतना खुद से संभालना और जब ना संभले तब ताऊ जी के पास चले जाना । उनका साथ कभी मत छोड़ना मेरे बच्चे । अब ये सब तेरे हवाले है ।" आज रेत के ज़र्रे भी पिघल रहे थे । विनय का कुर्ता आंसुओं से भीग चुका था और चेहरा मुस्कुरा रहा था ।
श्यामलाल जी ने उसे गले से लगाते हुए कहा "शक्ल सूरत के मामले में बहुत से बाप बेटों को एक जैसा देखा है लेकिन तू ने तो अपने पिता के व्यक्तित्व और विचारों की ही कॉपी मार ली । आज तेरे पिता को तुझ पर कितना गर्व होगा ये मैं महसूस कर सकता हूं ।"
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मदद मांगना या लेना गलत बात नहीं है लेकिन बेवजह इसकी आदत पाल लेना एक रोग की तरह है । ऐसा रोग जो आपके बिना जाने आपको और आपके अंदर की प्रतिभा को खोखला करता रहता है और आप एक दिन हाथ पैर सही सलामत होने के बावजूद अपाहिज हो जाते हैं । अंत तक कोशिश करिए कि आप किसी तरह से अपनी जरूरत को पूरा कर लें । अगर ना हो पाए फिर आगे तो रास्ते हैं ही ।
धीरज झा
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