Yoga day, योग दिवस
'ऐ बबुआ न सुना रहा तोहरा, जल्दी उठ न' उस 30 साल की बुढ़िया ने अपने बेटे से कहा जो बचपने की गलियों के बाद ज़िंदगी की भूलभुलैया में कुछ इस तरह खोई कि जवानी की पक्की सड़क छोड़ सीधे बूढ़ापे की कच्ची पगडंडी पर पैर रखा ।
'हेतना भोरे काहे उठा रही हो अम्मा?' अम्मा के दो बार लात से हिलाने पर मुन्नमा आंख मलता हुआ उठ गया ।
'काम पर जाना है ।'
'अभी त अन्हरिए है, एतना भोर में कौन मिलेगा ।'
'अरे ऊ बड़का मैदान तरफ चलेंगे न बहुत लोग मिलेगा आज । पैदल जाए में भी त टेम लगेगा ।' अम्मा ने कोने में पड़े दो झोले उठा लिए । एक झोले में से आधी पांव रोटी निकाल कर मुन्नमा को पकड़ा दी ।
'जल्दी खा के फटक लगा दे । हमार हाथ नहीं चल रहा । कल सरधुआ (गाली) एगो मरदबा धकिया दिया था ।'
'अरे अम्मा तो तुम नहीं जाओ न हम चले जाते हैं ।' दस साल के मुन्नमा को इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि उसकी मां को किसी ने धक्का दे दिया था कल, क्योंकि उसे पता है ये उनके काम का हिस्सा है । उसे खुद रोज़ इतने कंटाप खाने पड़ते हैं कि एक वक्त की भूख उसी से मिट जाती है ।
'अरे बेटा हम जानते हैं टी बी का बेमारी हमको जादा दिन नहीं जीने देगा। जितना जी रहे हैं तुम्हारे लिए कुछ जमा कर दें ।' मुन्नमा कुछ नहीं बोला बिस्तर पर बैठा ही पांव रोटी कुतरता रहा जो रात उसकी अम्मा को बेकरी की दुकान के बाहर गिरा मिला था ।
'मां हेतना भोरे कौन मिलेगा हमको ।' आधी नींद में था वो लेकिन मां ने हाथ इतनी जोर से पकड़ रखा था कि न चाहते हुए भी तेजी में चलना पड़ रहा था उसको । कोई देखता तो पक्का कहता लड़के ने पी रखी है ।
'रे बुड़बक आज जोग दिबस है । कल दुर्गा मंदिर के बाहर सब बतिया रहा था कि बड़ा बड़ा सेठ लोग आता है । कुछो त देगा ।' अम्मा ने फूलती सांसों को ज़ोर लगा कर थामते हुए कहा ।
'भोरे भोरे कोन पईसा ले के आता है अम्मा ।' मुन्नमा अभी भी झपकियां ले रहा था दो जगह तो गिरा भी, गिर कर वहीं लेट गया फिर अम्मा ने गरिया कर उठाया ।
'तू एक नंबर के बुड़बक है मुन्नमा । ई सेठ लोग पैसा लिए बिना त पैखाना भी नहीं जाता होगा ।' अम्मा का तजुर्बा बोला ।
'वहां सब क्या करता है अम्मा ?'
'हमको भी नहीं पता हम तो सबका बात सुने तो सोचे चलना चाहिए । बाकी जा के देखते हैं का होता है उहां ।'
'भंडारा होगा ?'
'का मालूम लगाया हो लोग सब ।' इसी तरह के कयास लगाते हुए दोनों मां बेटा घंटा भर चलते रहे और अंत में जा कर मैदान पहुंच ही गये ।
वहां देखा तो नज़ारा ही और था । खूब सारे लोग रंग बिरंगे अजीब कपड़े पहने कूद फान मचाए थे ।
'ऐ अम्मा ऊ मोटका मरदबा के देखो न कईसे पेट कुदका रहा है ।' मुन्नमा ने खिखियाते हुए कहा । अम्मा भी अपनी साड़ी के कोर से मुंह दबाते हुए हंसने लगी ।
'अम्मा ई सब काहे अइसा कर रहा है ।'
'सुना है बहुत खा लेता है उसको पचाने के लिए करता है सब ।'
'हम तो बहुत खा लेते हैं तो चार दिन पेट में संभाले रहते हैं । याद है सर्दिया में जब एक ठो बियाह में खाए थे । ऊ मरदबा केतना अच्छा था खूब खाना ला के दिया था । हम पांच दिन तक कुछो औरो नहीं खाए थे कि कहीं ऊ खाना का स्वाद ना चला जाए ।" अम्मा मुन्नमा की बात सुन कर एकदम से सिहर गयी । अम्मा को याद आया कि जिस आदमी को मुन्नमा अच्छा बता रहा था वो भला क्यों अच्छा बन रहा था । दोनो मां बेटा भागे थे बड़ा मुश्किल जान बचा के ।
देखते देखते सारा मेला खतम हो गया । सब लोग जाने लगे। दोनों मां बेटे को कुल मिला कर पच्चपन रुपये मिले थे । सब यही कह रहे थे कि पैसा नहीं उनके पास लेकिन आगे चल कर पूरी तरकारी की दुकान पर खूब भीड़ लग था ।
'अम्मा तुम तो कही थी खूब पईसा होगा ।'
'अब हमको का पता था सब दरिदर सब है ।'
'बेकार में नींद खराब कर दी ।' मुन्नमा ने मुंह बना कर कहा ।
'सही में । बाकी ई लोग थोड़ा देर देह हिला के आ मोटरकार में बईठ के चला गया इससे केतना जादा जोग तो हम लोग कर लिए । केतना दूर से चल के आए ।'
'अच्छा माई रुक तुमको पूरी खिलाते हैं ?'
'ई पईसा में से नहीं देंगे ।'
'पईसा से थोड़े लाएंगे, मांग लेते हैं न । तू बईठ हम लाते हैं ।' अम्मा अपने लाल को देख मुस्कुरा दी । कितना ख़याल है उसे अपनी मां का ।
काफी देर मेहनत के बाद मुन्नमा के नसीब में दो पूड़ी और सब्जी आई । शुक्र हो उस मैडम का जिसने एक निवाला खाया और फिर तीखे के कारण दोबारा खाने की उसकी हिम्मत न हुई ।
धीरज झा
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